ये शब्द हमें कहाँ कहाँ ले जाते हैं
फ़ख़्र और ग़ुरूर, या गर्व और घमंड, या प्राइड और वैनिटी, दोनों में इन्सान ख़ुद को बड़ा समझता है, ख़ुद पर इतराता भी है मगर आपने अक्सर देखा होगा कि जहाँ फ़ख़्र और गर्व मुसबत/ सकारात्मक तासीर रखते हैं वहीं घमंड और ग़ुरूर मनफ़ी/ नकारात्मक।
हिन्दी और उर्दू के फ़र्क़ के बावजूद देखिए कि कैसे ज़बानें एक तरह ही काम करती हैं। फ़ाख़िर यानी ”फ़ख्र करने वाला”, ये नाम भी रखा जाता है, ऐसे ही गौरव भी नाम रखा जाता है, मग़रूर या घमंडी तो रखते नहीं या रखते हैं तो वो इसतिसना/अपवाद के तौर पर होंगे।
हिन्दी में क़ायदा-ए-कुल्लिया/ (युनिवर्सल रूल) तो नहीं लेकिन अकसर यही देखा जाता है कि न, ड, ड़, ण से मिलकर बनने वाले लफ़्ज़ , या जो लफ़्ज़ ज़बान में ज़रा झनझनाहट या रगड़ पैदा करते हैं उनके मानी (अर्थ) में भी एक क़िस्म की मनफ़ियत, या शिद्दत, या चोट, ग़रज़-कि कुछ ना कुछ ऐसी चीज़ अक्सर होती है जो सुकून अम्न, मुहब्बत या ऐसे ही दूसरे नाज़ुक एहसासात और हालात पर ज़र्ब करती है, चोट करती है, मसलन भीषण, घृणा, प्रचंड, रण, बाण, खन्डित, दन्ड और घमंड भी।
अब उर्दू में हालाँकि लफ़्ज़ के सौत-ओ-आहंग से ये मुआमला उतना वाज़ेह नहीं होता, हाँ रिवाज की वजह से हमारे ज़हन पर इस लफ़्ज़ के मनफ़ी या मुसबत असरात पहले से नक़्श होते हैं लेकिन फिर भी लफ़्ज़ का माद्दा क्या है उसका मसदर क्या है उसका मूल क्या है, यह बातें बहुत हद तक अर्थ को ज़ाहिर कर देती हैं।
अब आप लफ़्ज़ ‘मग़रूर’ को देखें, ये अरबी से उर्दू में आया है। ये ‘मफ़ऊल’ का सीग़ा है, जैसे ‘मक़्तूल’ जिसका क़त्ल किया गया हो, ‘मज़लूम’ जिस पर ज़ुल्म किया गया हो, ‘मरहूम’ जिसपर रहम किया गया हो, तो इस एतबार से शायद यह लगे कि ‘मग़रूर’ यानी जिस पर-ग़ुरूर किया गया हो, होना चाहिये था, जबकि उसे इस्तिमाल किया जाता है ‘ग़रूर करने वाला’ यानी फ़ाइल के मअनी में। तो शायद किसी को यह शक हो कि ये उर्दू में ग़लत मअनी में इस्तिमाल हो रहा है। लेकिन इसमें एक लतीफ़ और दिलचस्प बात छुपी हुई है, जो बहुत पुर-लुत्फ़ है।
ग़ुरूर लफ़्ज़ आया है अरबी के ‘ग़र्र’ से, जिसका मतलब होता है धोका देना,
क़ुरआन में है “मा ग़र्रका बिरब्बिकल करीम” (तुझे किस चीज़ ने धोका दिया, किस चीज़ ने बहका दिया अपने रब के रास्ते से)
तो मग़रूर है तो मफ़ऊल ही का सीग़ा, यानी वो लफ़्ज़ जो ख़ुद अमल या फे़’ल सादिर नहीं करता, ख़ुद क्रिया करने वाला नहीं है बल्कि क्रिया / फ़े’ल का असर इस पर होता है, लेकिन इसका फे़’ल ‘ग़र्र’ है, तो मग़रूर का इस एतबार से मअनी हुआ ‘बहकाया हुआ’ या ‘धोका खाया हुआ’। फिर ज़बान ने इस लफ़्ज़ को एक ख़ास तरह के धोके के लिए मख़सूस कर दिया, और मतलब हुआ वो शख़्स कि जिसको उसके ख़ुद के बारे में भी धोका दिया गया हो, जिसे बहकाया गया हो, मग़रूर वो शख़्स है जो अपने आपको लेकर भी धोके में हो, जो चीज़ उसके पास न हो, या जो चीज़ क़ाबिल-ए-फ़ख़्र भी न हो उस पर इतरा रहा हो। भला इससे ज़्यादा धोका खाना क्या होगा!
मसलन सलतनत पर ग़ुरूर, जवानी पर ग़ुरूर, माल-ओ-दौलत पर ग़ुरूर, जब कि ये मिटने वाली हैं, या बहुत कमज़ोर बुनियादें हैं, इन पर इतराना धोका ही तो है!
जिस सर को ग़रूर आज है याँ ताज-वरी का
कल उसपे यहीं शोर है फिर नौहा-गरी का
मीर तक़ी मीर
क्यों बैठे हाथ मलते हो अब “यास” क्या हुआ
इस बेवफ़ा शबाब पर इतना ग़रूर था
यास यगाना चंगेज़ी
घमंड हर तरह करना ज़ेबा नहीं है
जवानी किसी की न पीरी किसी की
यासीन ख़ान मर्कज़
ग़ुरूर कमज़ोर और ना-पाएदार शैय पर होता है, और फ़ख़्र की बुनियाद मज़बूत है। इसी लिए आपने देखा होगा कि हम बोल-चाल में ग़ुरूर और घमंड के टूटने की बात करते हैं, मगर क्या कभी फ़ख़्र का टूटना सुना है? (ग़ुरूर टूटता है, फ़ख़्र नहीं टूटता)
ग़ुरूर-ए-ज़ब्त वक़्त-ए-नज़अ टूटा बेकरारी से
नियाज़-ए-पर-फ़िशानी हो गया सब्र-ओ-शकेब अपना
ग़ालिब
साहिल की बस्तियों का सारा घमंड टूटा
सैलाब ने तमांचा जब तान कर दिया है
फ़रहत एहसास
ख़ुलासा ये कि घमंड और ग़ुरूर एक है, घमंडी और मग़रूर एक है
हैं यही जौन एलिया जो कभी
सख़्त मग़रूर भी थे बदख़ू भी
जौन एलिया
वहीं फ़ख़्र में पाएदारी है, फ़ख़्र में सच्चाई है, किसी की औलाद बादशाह बन जाये तो ग़ुरूर हो सकता है लेकिन औलाद अक़्लमंद हो , नेक हो, आलिम हो तो फ़ख़्र का मक़ाम है |
हैदर से नबी बोले ये है फ़ख़्र तुम्हारा
हैदर ने कहा ये मिरी पुतली का है तारा
मिर्ज़ा दबीर
कभी कभी ये लफ़्ज़ एक दूसरे के मुतबादिल (substitute) के तौर पर भी इस्तिमाल हो जाते हैं क्योंकि रिवाज कहाँ किसी क़ाएदे का या मसदर का मुहताज होता है ! और कभी यूँ भी होता है कि शिद्दत-ए-मानी के लिए या मुबालग़े के लिए फ़ख़्र को ग़ुरूर कह देते हैं।
लेकिन अस्ल के एतबार से मग़रूर मनफ़ी/नकरात्मक हैसियत का हामिल है और फ़ाखिर मुसबत/सकरात्मक|
तो फ़ख्र कीजिए, फ़ख्र करने लायक़ कुछ कीजिए। इतराइए मगर इतराने लायक़ कुछ दामन में हो भी |
इस ज़ख़्म-ए-दिल पर आज भी सुर्ख़ी को देखकर
इतरा रहे हैं हम हमें इतराना चाहिये
अमीर इमाम
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