Meer O Ghalib Ke Qasid Kitne Masoom Kitne Chalaak

मीर-ओ-ग़ालिब के क़ासिद: कितने मासूम कितने चालाक

शायरों के ख़यालात हर मुआमले में एक अनोखापन लिए हुए होते हैं, या यूँ कहिए कि उन्हें बयाँ करने का भी उनका एक अलग अंदाज़ होता है, ज़ाहिर है शायरों के तअल्लुक़ात भी जुदा होते हैं या कम अज़ कम अलाहिदा नज़रिए से देखे जाने का या बयान किये जाने का शरफ़ पाते हैं।

अब शायरों की मुहब्बत के क़िस्से तो ख़ूब हैं, महबूब की अदाएं, उसका मिज़ाज, उसका हुस्न, उसके ख़याल, उसके बारे में ख़याल, उसकी बातें.. मगर ये बातें आज के ज़माने की तरह फ़ोन या टेक्स्ट पर नहीं की जाती थीं, ये बातें ख़तों के ज़रिये होती थीं और इसी लिए ख़त लाने, ले जाने वाले य’अनी नामाबर या क़ासिद से भी आशिक़ों का एक तअल्लुक़ सा हो जाता था।

जब फ़ोन और डाक सेवाएं आने के बाद भी नब्बे के दौर की प्रेमिका कबूतर से कहती है कि “पहले प्यार की पहली चिट्ठी साजन को दे आ, कबूतर जा जा जा” तो नामाबर के होने का चार्म समझा ही जा सकता है।

आज भी ऐसा नहीं है कि नामाबर की भूमिका ख़त्म हो गयी है, किसी दोस्त को अपने महबूब के पास पैग़ाम देकर भेजना, हिम्मत न होने पर दोस्त के ज़रिए प्रपोज़ल भेजना, विदेश में ऐसे ही “विंगमैन” होता है जो शुरुआत की सारी बातचीत संभालता है, इसी के साथ, ख़ास मैसेंजर, दोस्त का होना, महबूब की सहेली, उसकी बहन, उसके भाई के ज़रिए उस तक टॉप सीक्रेट बातें पहुँचाना, बताता है कि टेक्नोलॉजी के ज़माने में भी नामाबर की भूमिका बस बदल गयी है लेकिन ज़रूरी आज भी है।

किस तरह नामाबर या क़ासिद शायरों के इश्क़ में अपनी भूमिका निभाते थे, मुख़्तलिफ़ शायरों ने क्या अपने नामा-बर भी अपने मिज़ाज से रचे थे? ज़ाहिर है शायरों की दुनिया आधी हक़ीक़त, आधा फ़साना होती है, इस फ़साने वाले हिस्से में शायर अपना हुनर दिखाते हैं, हर शायर का इश्क़, हिज्र, इंतज़ार अलग तरह का है, इसी तरह हर शायर का नामाबर भी अलग है, ग़ालिब, मीर, मुसहफ़ी, मोमिन… सबके क़ासिदों की अलग ख़ासियत है और सबके साथ शायरों ने सुलूक़ भी अलग किया है।

आज ग़ालिब और मीर के चंद अशआर की रौशनी में उनके नामाबरों के साथ उनके तअल्लुक़ को समझने की कोशिश करते हैं!

ग़ालिब का नामाबर से बहुत पुराना याराना है, उसकी फ़िक्र भी है, उससे हमनवाई भी है, उससे रश्क भी है, और क़ासिद को भी ग़ालिब से एक आशनाई सी है,

जैसे ये शे’र है जिसमें ग़ालिब नामाबर पर इस बात पर रश्क कर रहे हैं कि वो महबूब के सामने बैठ कर सवाल जवाब कर सकता है मगर मैं यानी ग़ालिब नहीं!

गुज़रा ‘असद’ मसर्रत-ए-पैग़ाम-ए-यार से
क़ासिद पे मुझ को रश्क-ए-सवाल-ओ-जवाब है

वहीं मीर को अपने क़ासिद से ऐसा कोई मस’अला नहीं है बल्कि वो तो कहते हैं कि मेरा ख़त नज़दीक जा के दीजो,

हर्फ़ दूरी है गरचे इंशा लेक
दीजो ख़त जा के नामा-बर नज़दीक

मीर को अपने नामाबर की फ़िक्र ज़ियादा रहती है बजाय इस शक के कि वो उनके महबूब का आशिक़ हो जाएगा,

कुछ ख़लल राह में हुआ ऐ ‘मीर’
नामा-बर कब से ले गया है ख़त

हालाँकि इस शे’र में ख़लल से दोनों तरह के मआनी निकाले जा सकते हैं, लेकिन मैं नामाबर की सलामती की फ़िक्र पर इतना ज़ोर क्यूँ दे रही हूँ ये आगे खुलेगा!

ग़ालिब के साथ ऐसा था कि उनका महबूब इतना दिलकश इतना ख़ूबसूरत है और उस पर ग़ालिब का महबूब की दिलकशी का बयान, इन सब के बाद ग़ालिब को यक़ीन है कि जो भी उससे मिलेगा वो महबूब का आशिक़ हुए बिना न रह पाएगा,

ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना
हो गया रक़ीब आख़िर था जो राज़दाँ अपना

इसी लिए उन्हें हमेशा ये शक रहता है कि नामा-बर उनके महबूब का आशिक़ हो चुका है, जैसे इस शे’र में जहाँ नामा-बर ग़ालिब से नज़रें मिला कर पैग़ाम नहीं दे रहा,

तर्फ़-ए-सुख़न नहीं है मुझ से ख़ुदा-न-कर्दा
है नामा-बर को उस से दावा-ए-हम-कलामी

लेकिन ग़ालिब का रवैया फिर भी नर्म है, मुआफ़ कर देने वाला है, नामा-बर भी आख़िर इंसान ही तो है अगर वो रक़ीब (rival in love) बन भी गया है तो क्या कहें:

दिया है दिल अगर उस को बशर है क्या कहिए
हुआ रक़ीब तो हो, नामा-बर है क्या कहिए

इस कैफ़ियत को दो क़दम और आगे ले जा कर ग़ालिब अपने दोस्त से कहते हैं कि तुझसे तो मुझे कुछ नहीं कहना लेकिन नामा-बर अगर मिले तो मेरा सलाम कहना, अब यहाँ दोस्त क्यूँ आया, तो दोस्त इसलिए आया कि ग़ालिब को यक़ीन था कि जो भी शख़्स उनके महबूब से मिलेगा वो उसका आशिक़ हुए बिना न रह सकेगा, तो उनके दोस्त ने एक भरोसे के आदमी के बारे में ग़ालिब को बताया कि वो आशिक़ नहीं होगा, मगर हुआ वही जो ग़ालिब सोच रहे थे।
वो नामाबर सिर्फ़ आशिक़ ही नहीं हुआ, आशिक़ी में दीवाना भी हो गया, तो ग़ालिब दोस्त से कहते हैं कि तुझे तो क्या कहूँ पर उस बेचारे को (उसकी कैफ़ियत ग़ालिब से बेहतर कौन समझेगा?) मेरा सलाम कहना!!

तुझ से तो कुछ कलाम नहीं लेकिन ऐ नदीम
मेरा सलाम कहियो अगर नामा-बर मिले

इसके अलावा ग़ालिब का क़ासिद उनका ग़मगुसार भी था, ग़ालिब आसमानी तख़य्युल के शायर थे, उनका लहजा नर्म और नफ़ीस था, तो ज़ाहिर है ऐसा ही उनका ग़म भी था, जो जब-तब क़ासिद के आगे खुलता था, हिज्र में ग़ालिब कभी सबा यानी हवा को देखते हैं कभी नामा-बर को, ग़ौर तलब है कि हवा भी एक तरह की नामाबर ही है,

ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
कभी सबा को कभी नामा-बर को देखते हैं

यहाँ ग़ालिब के दर्द की शिद्दत देख कर क़ासिद उनसे घबराता भी है,

वो बद-ख़ू और मेरी दास्तान-ए-इश्क़ तूलानी
इबारत मुख़्तसर क़ासिद भी घबरा जाए है मुझ से

ग़ालिब का नामा-बर भी ग़ालिब के मिज़ाज का है, उससे ग़ालिब की गुफ़्तगू जितनी खुले तौर से है, उससे कहीं ज़ियादा इशारों में है, यहाँ ख़त देने के बाद भी नामाबर ग़ालिब को देख रहा है, ग़ालिब भांप जाते हैं कि ख़त के अलावा भी कुछ बात कह कर भेजी गयी है:

देके ख़त मुँह देखता है नामा-बर
कुछ तो पैग़ाम-ए-ज़बानी और है

मीर का क़ासिद भी इसी तरह ख़ामोशी से बहुत कुछ कह जाता है और ग़ालिब की तरह मीर भी उसकी ख़ामोशी समझते हैं, हालाँकि ग़ालिब को ख़त मिला, मगर मीर को सिर्फ़ उसकी ख़ामोशी मिली,

जो वो लिखता कुछ भी तो नामा-बर कोई रहती मुँह में तिरे निहाँ
तिरी ख़ामुशी से ये निकले है कि जवाब ख़त का जवाब है

ग़ालिब कभी कभी ख़ुद अपना क़ासिद बन जाने की चाह भी रखते हैं या इतनी बातें कहनी होती हैं कि क़ासिद के साथ साथ ही कब हो लेते हैं उन्हें ख़बर ही नहीं रहती, इतनी बेसब्री का आलम होता है कि ख़ुद पर क़ाबू नहीं रख पाते और क़ासिद के साथ साथ ही चल देते हैं:

हो लिए क्यूँ नामा-बर के साथ साथ
या रब अपने ख़त को हम पहुँचाएँ क्या

शेर की ज़बान से ये लगता है कि ग़ालिब इस बात पर पशेमाँ हो रहे हैं, लेकिन यही उर्दू और फ़ारसी की रवायत है कि ऐसी हर रुसवाई जिसकी वज्ह महबूब हो उस पर न सिर्फ़ फ़ख़्र करते हैं बल्कि उसे दुनिया भर में दिखला कर उस पर इतराते भी हैं, यही ग़ालिब जो अभी पशेमान से नज़र आ रहे थे वो अपने इस शे’र में अपनी इसी हरकत पर अब दाद चाहते हैं:

ख़ुदा के वास्ते दाद उस जुनून-ए-शौक़ की देना
कि उस के दर पे पहुँचते हैं नामा-बर से हम आगे

जहाँ ग़ालिब का क़ासिद अपने काम का पक्का है, वहीं मीर का क़ासिद ऐसी ग़लतियाँ भी कर बैठता है, जिससे मीर के तमाम राज़ आम हो जाते हैं, जैसे क़ासिद को महबूब के घर भेजते हैं और वो बावला मीर के घर चला जाता है, ये ऐसा ही है कि आप अपने महबूब को “I love you” लिखें और मेसैज चला जाये आपके अब्बा हुज़ूर के पास!

अब इसे बद क़िस्मती नहीं तो क्या कहेंगे, आप भी कहेंगे, मीर भी कह रहे हैं,

बरगशता-बख़्त देख कि क़ासिद सफ़र से मैं
भेजा था उस के पास सो मेरे वतन गया

जब क़ासिद का ये हाल है तो ज़ाहिर है इंसान और ज़रिए भी ढूँढेगा अपने पैग़ाम पहुंचाने के, तो ये देखिए कि मीर के ख़त ले जाने वाले सिर्फ़ इंसान नहीं हैं:

रंग-ए-परीदा क़ासिद बाद-ए-सहर कबूतर
किस किस के हम हवाले मक्तूब कर चुके हैं

क्या ख़ूबसूरत है रंग-ए-परीदा यानी उड़ा हुआ रंग। महबूब के हिज्र में मीर का जो रंग उड़ रहा है, उसी रंग के हवाले मक्तूब किये गए हैं, कि जब वो “उड़” सकता है तो ख़त ही ले जाये। रंग-ए-परीदा के अलावा क़ासिद, बाद-ए-सहर और कबूतर को भी पैग़ाम दिए गए हैं।

लेकिन हम नामाबर के ख़िलाफ़ बायस्ड नहीं हो सकते, ग़ालिब का महबूब अहिंसा-वादी था, मगर मीर का महबूब क्या था इसका अंदाज़ा मीर के क़ासिद की ख़त देने के बाद जो हालत होती है उसी से लगाया जा सकता है, मीर ख़ुद बेचारे रोते हुए क़ासिद और उसके फटे हुए गरेबाँ को देख कर शर्मिंदा होते हैं,

क़ासिद जो वाँ से आया तो शर्मिंदा मैं हुआ
बेचारा गिर्या-नाक गरेबाँ-दरीदा था

लेकिन अगर आपको लग रहा है कि ये बेचारे क़ासिद के साथ ज़ियादती हुई, तो अभी रुकिए, मीर का महबूब ख़त को फाड़ कर फेंकने और उनके नामा-बर को क़त्ल कर देने से भी गुरेज़ नहीं करता है,

नामे को चाक कर के करे नामा-बर को क़त्ल
क्या ये लिखा था ‘मीर’ मिरी सर-नविश्त में

अब आप सोचेंगे कि ठीक ही किया मीर ने, जो अपने पैग़ाम, रंग-ए-परीदा, बाद-ए-सबा और कबूतर को दे दिए, इंसानी नामाबर तो पहले पीटे गए फिर क़त्ल ही हो गए, अजी वो मीर हैं! मीर के महबूब भी कोई कम थोड़ी होंगे, आप चाहे कबूतर भेज कर उसका हाल ही देख लीजिए,

शायद कबाब कर कर खाया कबूतर उन ने
नामा उड़ा फिरे है उस की गली में पर सा

महबूब के द्वारा कबूतर तक को कबाब करके खा लिया जाता है और पैग़ाम पीछे बचे परों की तरह ‘एक पर सा’ गली में उड़ता रहता है!

प्रेम संदेश, मुहब्बत का पैग़ाम आज भी प्रासंगिक है, प्रेमी तो जीते मरते ही हैं और उन पर ख़ूब लिखा भी जाता है मगर नामा-बरों के अहवाल भी तो आख़िर शायर ही समझेंगे और हो भी क्यों न? जब रक़ीब के हाल से हाल मिल सकते हैं, उसकी फ़िक्र हो सकती है तो नामा-बर तो फिर भी राज़दार है, ग़म-गुसार है और बेचारा महबूब के ग़ुस्से का पहला शिकार भी!

ग़ालिब और मीर के ज़रिए ही सही पर आज याद कीजिए हमारी ज़िंदगी के तमाम नामाबरों को, जिन्होंने इस दुनिया का सबसे अज़ीम और मुश्किल काम यानी मोहब्बत को मुकम्मल करने की कोशिश की, चाहे वो हमारे पोस्टमैन हों, चाहे दोस्त, चाहे पन्द्रह रुपये में पच्चीस वाले टैक्स्ट मेसैज हों या पुराने फ़ोन्स!