मैं कौन हूँ? मेरी तारीख़ हिंदुस्तान की तारीख़ के आस पास है: बशीर बद्र
“मैं ग़ज़ल का आदमी हूँ, ग़ज़ल से मेरा जनम जनम का साथ है। ग़ज़ल का फ़न मेरा फ़न है, ग़ज़ल का तज्रबा मेरा तज्रबा है। मैं कौन हूँ? मेरी तारीख़ हिंदुस्तान की तारीख़ के आस पास है”- बशीर ‘बद्र’
वो शायर जिसने दुनिया में ख़ुश्बू, मोहब्बत और याद किये जाने वाले बेशुमार अशआर बांटे, अपने अहद का बहुत बुलंद शायर, मुशायरों की जान बल्कि मुशायरों की शम’अ बशीर ‘बद्र’ जो अपने नाम के साथ पूरा इंसाफ़ करता है कि वो चाँद भी है और ख़ुश-ख़बरी पहुंचाने वाला भी, वो शायर जो कहता है:
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए
क्या सितम है कि एक ज़माने की यादों में उजाले भरने वाले इस शायर की ज़िन्दगी की शाम में यादों के उजाले भी इनका साथ नहीं निभा पा रहे! आज ये शायर अपने ही अशआर याद नहीं कर पा रहा है, डिमेंशिया से जूझ रहे बशीर बद्र साहब को देखकर जाने कितने ख़याल ज़ेहन से गुज़रते हैं, लेकिन बीमारी और डिमेंशिया के बाद भी एक बात जो महसूस होती है वो ये कि इस शख़्स ने मोहब्बत बे-इंतिहा की है, बशीर बद्र की मोहब्बत महसूस करने के लिए उनकी शायरी पढ़ना ज़रूरी नहीं है, कोई उनकी ज़िन्दगी भी देख ले तो उसे एहसास होगा कि मोहब्बत को जीना क्या होता है।
उनका एक वीडियो है जिसमें उनके साथ उनकी बीवी राहत और बेटा तैय्यब हैं, बेटा उनके कान के क़रीब जा कर उन्हीं के शे’र उन्हें सुनाता है और बशीर साहब के चेहरे पर बिल्कुल बच्चों जैसी मासूम मुस्कुराहट तैर जाती है, पूरा शेर उन्हें याद नहीं है मगर सुनते हैं तो आख़िर का हिस्सा साथ बोलते जाते हैं, ये शे’र सुनाते और सुनते हुए वो हर वक़्त अपनी बीवी या बेटे का हाथ थामे रहते हैं, बड़े ग़ौर से उनकी बात सुनते हैं, बड़े प्यार से मुस्कुराते हैं, उनकी बीवी राहत जब उनका हाथ अपने हाथ में लेकर उनका शेर हँसते हुए सुनाती हैं तो बशीर बद्र उतनी ही प्यारी मुस्कुराहट और मोहब्बत से उस शेर का अगला मिसरा सुनाते हैं,
यूँ ही बेसबब न फिरा करो,कोई शाम घर भी रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके चुपके पढ़ा करो
ये मंज़र देख कर लगता है कि बशीर साहब ने अपनी शायरी में जो कहा है, सच ही कहा है और इसीलिए उनकी शायरी अवाम के दिलों में गहरी उतरती चली जाती है।
जब मेरठ फ़साद में उनका घर जला
बशीर साहब जब मेरठ में पढ़ा रहे थे तो उस दौरान वहाँ साम्प्रदायिक दंगे भड़के और दंगाइयों ने उनका घर जला डाला, घर के साथ ही उनकी लाइब्रेरी भी जला दी गयी, इस घटना को लेकर पूरे देश में बहुत ग़ुस्सा था, मगर बशीर साहब ने अपने घर को लेकर दुख जताने की जगह अपनी लाइब्रेरी और जल चुके लॉन के बारे में कहा,
मकाँ से क्या मुझे लेना, मकाँ तुमको मुबारक हो
मगर ये घास वाला रेशमी कालीन मेरा है
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि नफ़रत की आग का उनके ज़हन पर असर ही न हुआ हो,
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में
इस घटना के बाद बशीर बद्र काफ़ी अकेले रहने लगे थे, लिखना भी छोड़ दिया था, मगर दोस्तों की तवज्जो और लोगों के प्यार की मदद से उन्होंने इस मरहले में भी हिम्मत ढूंढ ली और अपने आप को फिर से समेटना शरू किया, सबसे पहले उन्होंने शहर बदला, और वो मेरठ से भोपाल चले गए, भोपाल में ही वो अपनी होने वाली बीवी, डॉक्टर राहत से मिले।
राष्ट्रपति से पद्म श्री सम्मान लेने नहीं पहुँचे
बशीर के साथ एक वाक़या और है जो उनके बारे में गहराई से बताता है, उन्हें पद्म श्री मिलने वाला था मगर बशीर को उस वक़्त मुल्क के बाहर चल रहे एक मुशायरे में जाना पड़ा, सम्मान को लेने के लिए बशीर बद्र राष्ट्रपति के सामने हाज़िर नहीं हो सके, उनसे इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि मुशायरे का वादा वो पहले ही कर चुके थे और उन्हें इतनी मोहब्बत से बुलाया गया था, पद्म श्री तो घर आ गई मगर उन लोगों की मोहब्बत घर कैसे आती जो उनका इतनी दूर इंतज़ार कर रहे थे।
बस मोहब्बत और बस मोहब्बत
बशीर बद्र की शायरी मोहब्बत की शायरी है, उनकी ज़िंदगी मोहब्बत की ज़िंदगी है,
मैं डर गया हूँ बहुत साया-दार पेड़ों से
ज़रा सी धूप बिछाकर क़याम करता हूँ
मुझे ख़ुदा ने ग़ज़ल का दयार बख़्शा है
ये सल्तनत मैं मोहब्बत के नाम करता हूँ
उनकी ‘मोहब्बत’ से इतनी मोहब्बत ही है जिसने उनकी शायरी में इतनी ख़ूबसूरती, भर दी है, बशीर बद्र को जितना अवाम ने याद रखा है, उतना बहुत से शायरों को नसीब नहीं होता, और अवाम प्यार भी क्यूँ न दें , जब बशीर बद्र उन्हीं की बात उन्हीं की ज़बान में कहते हैं,
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो
ज़िंदगी तू ने मुझे क़ब्र से कम दी है ज़मीं
पाँव फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है
इस तरह के जाने कितने शे’र संसद से सड़क तक आम बोलचाल का हिस्सा बन चुके हैं।
उनकी शायरी में अंग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल
बशीर बद्र ने अंग्रेज़ी लफ़्ज़ों को भी अपनी शायरी में ख़ूब इस्तेमाल किया है, अंग्रेज़ी लफ़्ज़ जो नस्र लिखते हुए भी ज़रा रकने पर मजबूर कर देते हैं, बशीर की शायरी में एक अलग ही कैफ़ियत रखते हैं, इनका इस्तेमाल इस महारत से हुआ है कि कहीं कोई अजनबिय्यत महसूस नहीं होती।
ये ज़र्द पत्तों की बारिश मिरा ज़वाल नहीं
मिरे बदन पे किसी दूसरे की शाल नहीं
ये ज़ाफ़रानी पुलओवर उसी का हिस्सा है
कोई जो दूसरा पहने तो दूसरा ही लगे
कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बँधा हुआ
वो ग़ज़ल का लहजा नया नया, न कहा हुआ न सुना हुआ
अवाम की ज़बान
बशीर ‘बद्र’ ने अपनी शायरी में जो तज्रबे किये हैं वो उन्हें आम और ख़ास दोनों में मक़बूल बनाते हैं, एक तरफ़ उन्होंने अवाम की ज़बान चुनी और दूसरी तरफ़ आसान ज़बान में भी ऐसे नाज़ुक ख़याल के शे’र कहे कि अवाम के साथ ख़वास-पसंद भी झूम उठे,
तुझे भूल जाने की कोशिशें कभी कामयाब न हो सकीं
तिरी याद शाख़-ए-गुलाब है जो हवा चली तो लचक गई
उनके नज़दीक शायरी क्या है
“ग़ज़ल चाँदनी की उँगलियों से फूल की पत्तियों पर शबनम की कहानियां लिखने का फ़न है, और ये धूप की आग बन कर पत्थरों पर दास्तान लिखती रहती है। ग़ज़ल में कोई लफ़्ज़ ग़ज़ल का वकार पाए बिना शामिल नहीं हो सकता। आजकल हिंदुस्तान में अरबी फ़ारसी के वही लफ़्ज़ चलन से बाहर हो रहे हैं जो हमारे नए मिज़ाज का साथ नहीं दे सके और उसकी जगह दूसरी ज़बानों के अल्फ़ाज़ उर्दू बन रहे हैं”
बशीर ‘बद्र’ साहब ने जो कहा है, उसकी अहमियत अपनी जगह, उसका मक़ाम अपनी जगह, लेकिन एक और चीज़ जो क़ाबिल-ए-ग़ौर है, वो ये कि इस तरह की नस्र लिखते वक़्त भी उनके क़लम ने कितने फूल बिखेरे हैं और ऐसे इल्मी नुक्ते पर बात करते हुए भी उनका लहजा ऐसा है, जैसे सुब्ह के वक़्त फूलों पर शबनम बरस रही हो।
ये हैं बशीर ‘बद्र’, और ये है बशीर ‘बद्र’ का मिज़ाज, क्यूँ न उनके इस शे’र से मज़मून का इख़्तिताम किया जाए,
लहजा कि जैसे सुब्ह की ख़ुश्बू अज़ान दे
जी चाहता है मैं तिरी आवाज़ चूम लूँ
उन की मज़ीद शायरी पढ़ने के लिए यहाँ जाएँ।
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