Shahryar Blog

ख़्वाब , सूरज , जुनून , रेत, रात जैसे शब्दों को शहरयार ने अलग अंदाज़ में बरता है

बीसवीं सदी की छठी दहाई की शुरुआत में उर्दू शायरी में एक नए और धीमे लहजे के शायर की आमद हुई, जिसने बिना किसी घन-गरज के (मगर हैरान कर देने वाली ज़बान और बयान के साथ) शायरी के दीवानों की रगों में बहना शुरू किया और गुज़रते वक़्त के साथ उसकी शायरी मुहब्बत करने वालों की सांसों को भी महकाने लगी। बरेली के पास आंवला में आंखें खोलने वाले और सही मानी में अलीगढ़ के दीवाने इस शायर को अदबी दुनिया शहरयार के नाम से जानती है। जदीद शायरी को एतमाद अता करने वाले चन्द अहम नामों में शहरयार का नाम काफ़ी ऊंचे पायदान पर चमक रहा है। शहरयार की सबसे बड़ी ख़ूबी जज़्बों का तवाज़ुन है। इसके अलावा उनकी ज़बान अगरचे सादा है मगर लफ़्ज़ियात में परतें हैं जो बार-बार क़िरअत का तक़ाज़ा करती हैं। बड़ी शायरी की बहुत सी ख़ुसूसियात हैं। एक ख़ासियत यह भी कि बड़ी शायरी कुछ मख़सूस अल्फ़ाज़ से इतनी अलग-अलग इमेज बनाती है कि वो अल्फ़ाज़ उस शायरी में अलग से चमकने लगते हैं। शहरयार ने भी कुछ अल्फ़ाज़ को नए-नए रंगों में इतनी मरतबा बरता है कि वो उनके ज़ाती अल्फ़ाज़ लगने लगे हैं। इन मख़सूस अल्फ़ाज़ में रात, जुनूं और ख़्वाब बहुत अहम हैं।

शहरयार ने रात को कई रंगों में रंगने की कामयाब कोशिश की है। उन्होंने रात को अक्सर ज़ुल्म से ताबीर किया है। रात का रंग सियाह होता है, जो नेगेटिविटी ज़ाहिर करता है। सूरज, रोशनी और ख़ुशहाली की अलामत है। शहरयार के यहां रात अक्सर ज़ुल्म की इंतिहा दिखाती है। वो इस ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ भी उठाते हैं :

हर एक सम्त ख़मोशी है रात काली है
न जाने कौन सी उफ़्ताद पड़ने वाली है

सियाह रात नहीं लेती नाम ढ़लने का
यही तो वक़्त है सूरज तिरे निकलने का

क्यों मेरा मुक़द्दर है उजालों की सियाही
क्यों रात के ढ़लने पे सवेरा नहीं होता

शहरयार शब को ज़ुल्म से ताबीर करते हैं। ख़ास तौर पर रात की तन्हाई उन्हें घबराती है, उन्हें ख़ून के आंसू रुलाती है और शब-बेदारी पर मजबूर करती है। उन्हें लगता है कि रात की तारीकी कभी ख़त्म नहीं होगी और शब के ज़िंदान में ही ज़िंदगी दम तोड़ देगी:

शबे-ग़म क्या करें कैसे गुज़ारें
किसे आवाज़ दें किसको पुकारें

सफ़-ब-सफ़ ऐसे ही उतरे थे सितारे दिल में
हू-ब-हू ऐसे ही कल भी शबे-तन्हाई थी

पहले नहाई ओस में फिर आंसुओं में रात
यूँ बूंद-बूंद उतरी हमारे घरों में रात

मगर यह तन्हाई उन्हें यादों से हम-कलामी का हुनर भी अता करती है और वो भी बिना किसी शिकवे के। शिकवा रात से भी नहीं, तन्हाई से भी नहीं, बिछड़े हुए यार से भी नहीं और अपनी क़िस्मत से भी नहीं। बस अपने दुख को किसी को बता देने, किसी से बयान कर देने की तड़प शहरयार को दूसरे शोरा से अलग करती है। मुसलसल तन्हा रातों के रतजगों पर उन्हें दुख तो है। मगर वो टूटे नहीं है। रात-रात भर जागती और बरसती हुइ आंखे उनका सरमाया हैं। शहरयार ने दर्द को बड़े चाव से संभाला है। दर्द और चुभन ज़रा कम होती है तो भी वो घबरा जाते हैं। देखिए :

यह क्या हुआ कि तबीयत संभलती जाती है
तिरे बग़ैर भी ये रात कटती जाती है

जागते रहने की लज़्ज़त दी थी मुझको रात ने
नींद की लज्ज़त से लेकिन आशना किसने किया

गुज़रा था रात भी कोई दरिया लबों के पास से
कितनी अजीब प्यास है कम तो हुई मिटी नहीं

यह एतमाद ही तो है जो तन्हा रात को अपने कांधों पर सैर कराने की क़ुव्वत अता करता है और नींद की लज़्ज़त से आशना कराता है। वर्ना बेचैन और टूटा हुआ दिल नींद का अमृत कैसे पा सकता है। बेदारी तो फिर भी आसान अमल है। कमाले-फन शहरयार का यह है कि वो हिज्र की तवील रात में भी महवे-ख़्वाब होने की जुरअत करते हैं। यह लगभग नामुमकिन काम है। विसाल और ख़्वाहिशे-विसाल के दरमियान भी कोई शय या कैफ़ियत होती है जो अल्फाज़ की क़ैद से बाहर है। जिसे महसूस करना भी हर किसी के बस की बात नहीं। दरिया मिलने के बावजूद भी प्यास का न बुझ पाना इसी दरमियान की कैफ़ियत को अल्फाज़ देने की कामयाब कोशिश है। शहयार ने बिला-शुबह रात को नए-नए रंगों में दरयाफ़्त किया है और इस इन्द्रधनुष के कुछ रंग मज़ीद ज़ाहिर होने हैं।

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तन्हा-तन्हा रात के डंक सहना भी कारे-जुनूं है और यह कारे-जुनूं शहरयार को पसंद है। वो अपने आप को इस जुनूं में ग़र्क़ होते हुए देखते हैं तो ख़ुश होते हैं। शहरयार को अपनी इस जुनूं-पसंदी पर ग़ुरुर भी है। साथ ही साथ अपने जैसे किसी और को भी अगर ऐसा ही अमल करते हुए देखते हैं तो उन्हें और ज़ियादा ख़ुशी होती है। कहते हैं :

ज़बानी दावे बहुत लोग करते रहते हैं
जुनूं के काम को करके दिखाना होता है

आंधी की ज़द में शम-ए-तमन्ना जलाई जाए
जिस तरह भी हो लाज जुनूं की बचाई जाए

कोंपलें ज़ख़्मों की फिर मुरझा गयीं एहले-जुनूं!
आओ शाख़े-आरज़ू को ख़ूं से फिर सींचो ज़रा

पुराने पड़ गए ज़ख़्मों को खुरच कर ताज़ा कर देना और इस जुनूं में सुकून पाना भी शहरयार का पसंदीदा काम है। दर्द की कोई शाख़ मुरझाने न पाए, आंखों से सिर्फ़ अश्क नहीं सिर्फ़ ख़ून नहीं, दर्द भी टपकना चाहिए और यह तब होता है जब हर दर्द ताज़ा रहे, रिस्ता रहे, रगे-जां पर निश्तर चलता रहे। यानी यह कारे-जुनूं जारी रहे। शहरयार पूछते हैं:

दिल में उतरेगी तो पूछेगी जुनूँ कितना है
नोके-ख़न्जर ही बताएगी कि ख़ूं कितना है

बदन में कितना लहू है यह जांच करवा लो
बताना फिर कि जुनूं कितना किस सहारे पे है

क्या हुआ एहले-जुनूं को कि दुआ मांगते हैं
शहर में शोर न हो दश्त में वीरानी न हो

कारे-जुनूं ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करना भी है, इश्क़ के मुश्किल मरहलों को सर करना भी है, रिश्तों को टूटने-बिखरने न देने और संभाले रखने की कोशिश भी है। लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद जब कुछ बदल नहीं पाता और धीरे-धीरे ज़माने की रविश इख़्तियार करनी पड़ती है। यह घुटन शहरयार के यहाँ बड़ी ख़ूबी से बयान हुई है। अपनी कमज़ोरी, नाकामयाबी और शिकस्त का एतराफ़ क़तई मुश्किल काम है जिसे शहरयार ने किस आसानी से कर दिखाया है :

इत्तिफ़ाक़ एहले-ज़माने से जुनूं से इनकार
पहले सोचा भी नहीं था जिसे अब करना है

शहरे-जुनूं में कल तलक जो भी था सब बदल गया
मरने की ख़ू नहीं रही जीने का ढब बदल गया

ख़ुश-फहमी अभी तक थी यही कारे-जुनूं में
जो मैं नहीं कर पाया किसी से नहीं होगा

Shahryar

शहरयार की शख़्सियत का तवाज़ुन उनकी शायरी में अलग रंग भरता है। वो एक तरफ़ रात को ज़ालिम कहते हैं वहीं दूसरी तरफ रात के एहसानमंद भी हैं क्योंकि रात अपने साथ ख़्वाब भी लाती है। उनकी तड़पती और तन्हा आंखें ख़्वाब देखने को बेकरार रहती हैं और मतलबी दुनिया से फ़रार पा कर वो ख़्वाबों की दुनिया में खो जाना चाहती हैं। कहते हैं :

ज़ख़्मों को रफू कर लें दिल शाद करें फिर से
ख़्वाबों की कोई दुनिया आबाद करें फिर से

ताबे-नज़्ज़ारा है आंखों में तो आंखें खोलो
शहर इक ख़्वाबों का ख़्वाबों में उभरता देखो

कौन सा क़हर ये आंखों पे हुआ है नाज़िल
एक मुद्दत से कोई ख़्वाब न देखा हमने

ख़्वाब देखने के अमल को शहरयार अपने ऊपर जब्र भी तस्लीम करते हैं। ख़्वाब जहां उन्हें सुकून फ़राहम कराते हैं वही दर्द भी देते हैं। ख़्वाबों की ताबीर न हो पाने से ख़्वाबों की किरचें उनकी आंखों और रूह को ज़ख़्मीं कर देती हैं और उन्हें खून के आंसू रुलाती हैं। शहरयार कराह उठते हैं और यह दर्द बयान करते हैं :

वक़्त की बात है यह भी कि मकां ख़्वाबों का
जिसने तामीर किया हो वही ढ़ाने आए

यह जब है कि इक ख़्वाब से रिश्ता है हमारा
दिन ढ़लते ही दिल डूबने लगता है हमारा

अब तो ले दे के यही काम है इन आंखों का
जिनको देखा नहीं उन ख़्वाबों की ताबीर करें

मगर कमाल यह कि ख़्वाबों के सितम से चूर होने के बावजूद ख़्वाब देखने की तमन्ना उनके दिल में बरक़रार है। वो ख़्वाबों के बदले किसी दौलत को लेने के लिए तैयार नहीं है। उनके लिए उनके ख़्वाब ही सबसे बड़ी दौलत हैं। रात की आमद के बाद भी अगर नींद या ख़्वाब या फिर दोनों ही उनकी आंखों को हासिल नहीं होते तो वो घबरा जाते हैं। कहते हैं:

सूरज का सफ़र ख़त्म हुआ रात न आई
हिस्से में मेरे ख़्वाबों की सौग़ात न आई

आंखों को सबकी नींद भी दी ख़्वाब भी दिए
हमको शुमार करती रही दुश्मनों में रात

लाता हम तक भी कोई नींद से बोझिल आंखें
आता हमको भी मज़ा ख़्वाब में मर जाने का

शहरयार ने रात, जुनून और ख़्वाबों का अलग-अलग रंगों का ऐसा जहाने-हैरत तामीर किया है कि बार-बार सफ़र करने का और हर मरतबा अपनी हैरतों में इज़ाफ़ा करने का दिल चाहता है। शहरयार का अपने चाहने वालों पर यह एहसान भी कम नहीं है।