Meer-Aur-Mohsin-Naqvi

जन्नत में शायरों की एक महफ़िल

Note: मीर साहब के डायलाग राफ़िया ज़ैनब के बड़े भाई इस्बाहुद्दीन ने लिखे हैं और मोहसिन नक़वी के ख़ुद राफ़िया ने।

मोहसिन नक़वी : अस्सलाम अलैकुम सय्यद-ज़ादे , दिल की नगरी के इन दिनों क्या हाल हैं ?

मीर : दिल की नगरी के हाल ख़स्ता हैं , इज़्ज़त-ए-सादात इश्क़ में गँवा ही चूका हूँ , तुमने इस लक़ब से पुकारा तो तुम्हारा ही शेर याद आ गया, कि जल-बुझी मेरे ख़्वाबों कि बस्तियां मोहसिन , तुम बताओ , अहबाब के अख़्लास की नेमत-ए-उज़्मा इन दिनों किस तरह करम फ़रमा है ?

मोहसिन नक़वी : कौन अहबाब और कैसा अख़्लास सरकार, बस सहरा की भीगी रेत पर आवारगी लिखता फिर रहा हूँ।

मीर : इस आवारगी को सँभालो मोहसिन, वर्ना हमारी तरह रातों में वहशत और जुनून के आलम में चाँद तकते फिरोगे, ख़ैर तुम मेरी दुआ का ही हासिल तो हो, बताओ दश्त-ए -जुनूं के ख़ार उतने तेज़ हैं क्या अब भी?

मोहसिन नक़वी : चाँद !!! मीर साहब चाँद की बात क्यों छेड़ते हैं आप, मुझे अपने आबा-ओ-अजदाद के ग़मों का वाहिद शाहिद नज़र आता है उसमें, तन्हा यही चराग़ है क़ब्र-ए-बतूल पर, और दश्ते-जुनूं से मैं गुज़रा ज़रूर सरकार, पर सूरत-ए-नक़्श-ए-क़दम ही रहा, कि अपने होने से न होने का पता भी देना

मीर : उफ़्फ़!! मोहसिन , तुम्हारा ये मजलिसी अंदाज़ वाक़ई दिल छू लेता है, ज़िक्र-ए-बुतूल किया तुमने, खुल कर न किया करो, नहीं तो गिरेबां चाक हो जाएगा इस ग़म से, और ये बेदर्द ज़माना तुम पर अदावत की घटा बरसा देगा।

ख़ैर, मैंने सुना है मेरे बाद कोई लफ़्ज़ों का ऐसा साहिर पैदा हुआ है, जिसे इश्क़ ने निकम्मा कर रखा था और ज़माने ने पागल क़रार दे रखा था, कोई ग़ालिब गुज़रा था , क्या था वो शख़्स? उस के बारे में मैं पहले ही कह दिया था कि उस्ताद मिला तो ठीक वर्ना मोहमल बकेगा। यहाँ तो मैं उसके घर जाने से डरता हूँ, वो क्या है कि शाम से वहाँ से ठहाकों कि आवाज़ आती है, मालूम होता है कुछ लफ़न्डर-लौंडे हंगामा बरपा कर रहे हैं।

मोहसिन नक़वी : मालूम होता है वो भी आप कि दीवानगी और तुनक-मिजाज़ी के क़िस्से सुन कर इधर नहीं भटके, वर्ना अपने अलावा बड़ा शायर सिर्फ़ आप को ही मानते थे, जन्नत आ गए यानी मग़फ़िरत हो गई, अजब आज़ाद मर्द था, मीर साहिब!! न दुनिया से कुछ शिकायत न ख़ुदा से कोई तलब, और लफ़न्डरों का क्या कहें, उनके मद्दाह होंगे, यहाँ वाले तो फिर भी बाज़ौक़ हैं, दुनिया में तो उनके नाम पर बे-तहज़ीब दो टके के लौंडों ने तमाशा बना रखा है।

मीर : मुझे तो अपने सिरहाने आवाज़ तक नागवार गुज़रती है, मैं उस कबूतर-ख़ाने में क्या जाऊँ मियाँ।

मोहसिन नक़वी : मैंने पहले भी आप की तरफ आने की कई बार कोशिश की है, पर दरवाज़े से ही आप के दरबान ने कह दिया “अभी टुक रोते रोते सो गया है” बस मेरी हिम्मत न पड़ी फिर!!

मीर : यहाँ एक बड़ा मुहज़्ज़ब शख़्स भी आया हुआ है, दस्त-ए-सबा की मा’रिफ़त उसके पैग़ाम आते हैं, वो नहीं आता, बड़ी हस्सास तबीयत का मालिक है।

मोहसिन नक़वी : आहा, फैज़ साहब का ज़िक्र किया आपने, बस कल ही मुलाक़ात हुई थी उनसे। मैंने कहा मीर साहब के यहाँ चलिएगा मेरे साथ , तो बोले मियाँ ” मैं ठहरा पंजाबी! मुझे अपनी ज़ुबान की फ़साहत पर इतना भरोसा नहीं कि उनके पास जाऊँ, कहीं झिड़क देंगे कि हमारी ज़बान ख़राब होती है तो बड़ी शर्मिंदगी होगी”, खैर सच कहूँ मीर साहब तो आप की झिड़कियों का डर मुझे भी था, पर शौक़-ए-दीदार उस पर हावी हो गया, वैसे देखता हूँ कि जन्नत ने आप कि तबीयत को ज़रा नर्म कर दिया है।

मीर : अरे तुम और फैज़ आओ किसी रोज़, पर दिन में ही आना, इसलिए कि शाम से मैं बुझा सा रहता हूँ, और जन्नत में तो तबीयत नर्म पड़ी ज़रूर है, वो इसलिए कि अब यहाँ से कहीं जाना नहीं है, उस सराए-फानी में बेक़रारी थी कि आगे का आलम जाने कैसा हो, अब समझ आ गया है कि सब एक ही जैसा है।

मोहसिन नक़वी : सच है मीर साहब , जन्नत की यही हकीकत ग़ालिब को दुनिया में ही पता चल गई थी, इसलिए जैसे वहाँ थे वैसे ही यहाँ भी हैं , कहें तो बुला लूँ उन्हें भी, मैं तो शराब नहीं पीता ख़्वाह वो जन्नत की ही क्यों न हो, ज़रा आप लोगों कि सोहबत हो जाएगी।

मीर : ग़ालिब को बुलाने में एक मसअला है, एक शख़्स मेरा खुद-साख़्ता मुलाज़िम बना हुआ है , तुम तो जानते होगे, एलिया जौन, वो उसे देखते ही पत्थर उठा लेगा, फिर चाहे ग़ालिब का सर फोड़े या अपना। बड़ा अजीब मुलाज़िम है, काम सारे दिल से करता है लेकिन उलटे, पर इतनी अक़ीदत से करता है कि उसे निकाला नहीं जाता, कल ही मैंने कहा ज़रा हुजरा साफ़ कर दो, तो कहने लगा “मीर जी, वो फ़क़त सहन तक ही आती है, वहीँ तक झाड़ू लगाऊंगा”

मोहसिन नक़वी : उफ़्फ़ , यहाँ भी ख़याली महबूबा रख ली जौन ने , मीर साहब! ज़रा आप ही उसे समझाइये कुछ, दुनिया में ख़ून थूक थूक कर अपना सहन लाल कर दिया इस शख़्स ने।

मीर : कहता है कि ये सब शरारत है, मैं तो बस ख़ून ही थूकता हूँ, एक शायर ने तो शरारत में नया मुल्क ही बनवा दिया।

मोहसिन नक़वी : इक़बाल तो ख़ैर शायरों के मोहल्ले में रहते भी नहीं, वकीलों और सहाफ़ियों के टोले में ही जी लगता है उनका, मुल्क को जन्नत बनाने का ख़्वाब था, डर लगता है कहीं जन्नत में भी नया मुल्क न बना लें।

मीर : वैसे मोहसिन, हमें ख़ुदा-ए-सुख़न भी कहा गया, इतनी इज़्ज़त-अफ़ज़ाई भी हुई पीछे, पर मज़ार का पता-ठिकाना आज तक सही न हुआ।

मोहसिन नक़वी : ज़माने की रीत यही तो रही मुर्शिद , बदहाल तंगदस्तों को किसने पुछा है , सिवाय अपना मतलब निकालने के।

मीर : सच ही कहते हो , ज़माने ने तो ज़हरा का घर लूट लिया, हम जैसों की क्या बिसात बस जब ताज-दारी की हवस हुई तो दौड़ दौड़ कर सर-निगूँ हो गए।

मोहसिन नक़वी : बस मुर्शिद, अब और साज़-ए-दर्द न छेड़ें, चलता हूँ, फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया।

मीर : अभी तो साज़-ए-दर्द के तारों को छुआ ही था, तुम्हारा पैमाना छलक गया। ख़ैर समझता हूँ, ये बोझ कब नातवाँ से उठता है, जाते जाते जौन से वो पच्चीस शेरों का मजमूआ ले लेना और ग़ालिब को दे देना, कहना कि शायर तो वो अच्छा है प बदनाम बहुत है!!!