दिन में ग़ज़ल कहते और रात तक तवायफ़ों / क़व्वालों के ज़रिये मशहूर हो जाती
रुख़-ए-रोशन के आगे शम्अ’ रख कर वो ये कहते हैं
उधर जाता है देखें या इधर परवाना आता है
दाग़ देहलवी ने जब ये शे’र कहा, उस वक़्त उनकी उम्र कुछ 13 साल की थी। दाग़ की ज़बान से अदा होते ही महफ़िल में क़यामत बरपा देने वाला शोर उठा। इतनी कम उम्र, ऐसी चुस्त बंदिश और नया-नवेला मज़मून अब तक किसी ने न कहा था। ये शे’र अगले कुछ दिन में सारे शहर में मशहूर हो गया।
1838 में जब शेख़ इमाम बख़्श नासिख़ का इंतक़ाल हो गया। उसके बाद अवध के क्षेत्र में सिर्फ़ ख़्वाजा हैदर अली आतिश बचे थे, जो दिल्ली में उस वक्त तक मशहूर थे और दिल्ली वाले उनका नाम अदब से लेते थे। इसी दौरान आतिश ने एक ताज़ा ग़ज़ल कही और जब ग़ज़ल दिल्ली पहुॅंची तो उसके मिस्रा-ए-ऊला ( मगर उसको फ़रेबे नार्गिसे मस्ताना आता है ) पर शायरों ने गिरह लगाने को कहा, कई शाइरों ने इस पर ग़ज़लें कहीं और दाग़ ने भी ग़ज़ल कही।
मगर उसको फ़रेबे नार्गिसे मस्ताना आता है
उलटती हैं सफ़ें गर्दिश में जब पैमाना आता है
~ आतिश
इस पर दाग़ ने जो शे’र कहे वो थोड़े ही दिन में पूरे शहर में मशहूर हो गए । कहा जाता है जिस तरह मीर के शेर लोगों की ज़बान पर थे उसी तरह दाग़ के भी शेर लोग गली मोहल्लों में गाते फिरते थे । बा’द के ज़माने में तो ये ग़ज़ल इतनी मशहूर हुई कि लोगों को पता ही नहीं इस ग़ज़ल की असली ज़मीन किस की थी। आतिश की ज़मीन में कहे गए दाग़ के कुछ अश’आर ~
जिगर तक आते आते सौ जगह गिरता हुआ आया
तेरा तीरे नज़र आता है ,या मस्ताना आता है
दगा, शोख़ी ,शरारत, बेहयाई , फ़ितनापरदाज़ी
तुझे कुछ और भी ऐ, नर्गिस-ए-मस्ताना आता है
ये बात दुरुस्त है कि जो ग़ज़ल मशहूर हो जाती है फिर लोगों को ये पता नहीं रहता किस की ज़मीन में ग़ज़ल कही गई थी । मिसाल के तौर पर वली की इस ज़मीन में अमीर मीनाई ने ग़ज़ल कही उसके बाद वो इतनी मशहूर हुई और लोगों ने ये समझ लिया अस्ल ज़मीन अमीर मीनाई की ही है ।
वली की ग़ज़ल का मतला ~
किया मुझ इश्क़ ने ज़ालिम कूँ आब आहिस्ता आहिस्ता
कि आतिश गुल कूँ करती है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता
अब अमीर मीनाई की ग़ज़ल का मतला देखें ~
सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता ।
आज जो भी शायरी सुनने,पढ़ने का शौक़ रखता है शायद ही कोई ऐसा हो जो दाग़ देहलवी से वाक़िफ़ न हो। दाग़ वो अज़ीम उल मर्तबत शायर हैं जिन्होंने ग़ज़ल को पुराने लहजे से निकाल कर मोहब्बत के वो तराने गाए जो उर्दू ग़ज़ल के लिए नए थे। इनसे पहले ग़ज़ल हिज्र की तड़प इन सब पर अबारत थी । दाग़ ने उर्दू ग़ज़ल को शगुफ़्ता लहजा दिया, साथ ही इसे फ़ारसी की बोझल तराकीब से निकाल कर आसान उर्दू में शाइरी की, जिसकी बुनियाद उस्ताद ज़ौक़ रख गए थे । आज जो ज़बान मौजूदा शक्ल में हम तक पहुॅंची है ,उसका सहरा दाग़ के ही सर है।
नवाब मिर्ज़ा ख़ान दाग़ की पैदाइश 25 मई 1831 को दिल्ली के लाल चौक में हुई, उनके वालिद शहीद शमसुद्दीन अहमद पंजाब में एक छोटी सी रियासत फ़िरोज़पुर झिरका के वली थे। इनकी वालिदा वज़ीर ख़ानम उर्फ़ छोटी बेगम थीं। दाग़ जब मात्र चार वर्ष के थे तभी इनके वालिद को एक अंग्रेज़ी सिविल सर्वेंट अधिकारी विलियम फ़्रेज़र के क़त्ल के जुर्म में 8 अक्टूबर 1835 को फाॅंसी दे दी गई ,उसके बाद इनकी वालिदा का रो रो कर बुरा हाल हो गया था और वो अंग्रेज़ों के भय से कई दिनों तक छुपकर रहीं। इसी दौरान दाग़ अपनी ख़ाला के यहाॅं रहे। 11 साल की उम्र होते होते दाग़ थोड़ी फ़ारसी ,अरबी, तर्क ,गणित शायरी, शतरंज,खगोल शास्त्र और पिंगल इन सबसे वाक़िफ़ हो चुके थे। शायरी में तो उन्हें सैंकड़ों अश’आर याद हो गए थे, वो मिस्रों पर गिरह लगाने लगे थे।
एक बार दाग़ ने अपनी वालिदा और ख़ाला को मिर्ज़ा बेदिल का कोई फ़ारसी शे’र सुनाया ( जिसके मा’नी थे “बहार नई नई आई है और दुनिया बाग़ों की सैर कर रही है,लेकिन हमारे दीवाने के वजह और तौर भी बे तमाशे के हैं” ) वज़ीर और उम्दा ख़ानम ने खूब दाद दी। उसके बा’द दाग़ के शे’र कहने का सिलसिला शुरू हुआ। वज़ीर ख़ानम ने ही नवाब मिर्ज़ा को ‘दाग़’ तख़ल्लुस दिया था, अब वज़ीर उन्हें किसी उस्ताद शायर का कोई मिस्रा दे देतीं और उसपर गिरह लगाने को कहती। दाग़ ख़ूब मश्क़ करते और नये-नये मज़मून निकलते, मदरसे में भी वो दोस्तों को शे’र सुना देते थे। शाम को दाग़ जब दोस्तों के साथ शतरंज खेलते तो दोस्त शर्त लगाते, अगर हारे तो हम मिस्रा देंगे उसपर तुरंत ग़ज़ल कहनी होगी। दाग़ को दूसरों के बहुत शे’र याद रहते इसी तरह वो इसमें भी कमाल कर देते, इसी दौरान दाग़ के ये अश’आर बहुत मशहूर हुये ।
अफ़सोस की फ़ुर्सत में कभी ग़ौर से तुमने
अफ़साना-ए-अरबाब-ए-वफ़ा को नहीं देखा
जब दाग़ को देखा किसी बुतख़ाने में पाया
घर में कभी उस मर्द-ए-ख़ुदा को नहीं देखा ।
इसी उम्र से दाग़ शायरी की महफ़िलों में जाने लगे, जहाॅं उनकी मुलाक़ात कई शो’रा से हुई इनमें मौलवी इमाम बख़्श सहबाई ,घनश्याम लाल आसी, ज़हीर दहेलवी वग़ैरह थे। नवाब शमसुद्दीन का इकलौता बेटा, रियासत रही नहीं और इसी वजह से घर में माली आसूदगी का संकट पैदा हो गया। नवाब मिर्ज़ा बड़े हो रहे थे और वो अपनी वालिदा की ख़िदमत करना चाहते थे । दाग़ पर ये बात वाज़ेह थी कि उन्हें अब शायरी को ही अपना फ़न बनाना है और तलाश-ए-मआश का ज़रिया बनाना है, वे सोचते कोई र’ईस उन्हें अपने यहाॅं बतौर शायर नौकर रख ले ।
नवाब शमसुद्दीन की मौत होने के बा’द दाग़ की वालिदा कई जगह भटकती रहीं और अंत में इन्होंने बहादुर शाह सानी (ज़फ़र) के बड़े बेटे मिर्ज़ा फ़ख़रू जो ख़ुद शायर थे, इनसे विवाह कर लिया। उसके बा’द दाग़ भी लाल क़िले में रहने लगे। इन दिनों दिल्ली में उस्ताद ज़ौक के बहुत चर्चे थे और शायरी का बाज़ार बहुत गर्म था, उस्ताद ज़ौक़ बहादुर शाह ज़फ़र और उनके बेटे मिर्ज़ा फ़ख़रू दोनों के उस्ताद थे। यहाॅं दाग़ को भी संरक्षण मिलना शुरू हुआ और अच्छी से अच्छी ता’लीम हासिल हुई ,जैसी बादशाह के बेटों को मिलती थी। दाग़ को उस्ताद ज़ौक ने अपना शागिर्द बना लिया और कह दिया ख़ूब मश्क़ करो ,एक दिन ऐसा आएगा तुम भी उस्ताद शाइर बनोगे। पंद्रह साल की उम्र में दाग़ ने अपनी ख़ाला उम्दा ख़ानम की बेटी फ़ातिमा से शादी कर ली।
अब दाग़ की ज़िंदगी का बेहतरीन वक़्त लाल क़िला में गुज़रने लगा और तक़रीबन 12 वर्ष तक वो यहाॅं रहे । इसी बीच 1850 में, जब ग़ालिब और ज़ौक़ के चरम का ज़माना था, तवायफ़़ें इतना बड़ा आकर्षण नहीं थीं जितने कि मुशायरे। ख़ासतौर पर अजमेरी दरवाज़े वाले दिल्ली कॉलेज के प्रांगण में, फ़रहतुल्लाह बेग की किताब दिल्ली की आख़री शम्अ’, इस शानदार मुशायरा की ऑंखों देखी नहीं बल्कि कानों सुनी दास्तान है जो ज़फ़र की देहली में आख़री बार हुआ था। यह सर डेविड ऑक्टरलोनी की विधवा बीवी मुबारक बेगम की रोशनी से जगमगाती हवेली में हुआ था जिसके सजे हुए सहन में क़िले के कई शाहज़ादे और कोई चालीस के क़रीब दिल्ली के दूसरे शायरों ने शिरकत की थी जिसमें आज़ुर्दा, मोमिन, आज़ाद, दाग़, सहबाई, शेफ़्ता, मीर, (एक मशहूर पहलवान यल) और ज़ौक़ और ग़ालिब भी शामिल थे।
इस मुशायरे में जो दाग़ को शोहरत मिली वो हैरान कर देने वाली थी। दाग़ उन खुश क़िस्मत शायरों में से रहे जिनकी शायरी को ग़ालिब,ज़ौक,मोमिन,नवाब मुस्तफ़ा ख़ाॅं शेफ़्ता जैसे आ’ला दर्जे के शो’रा ने सराहा और हौसला-अफ़ज़ाई की । 1851 में मोमिन और 1854 में जब ज़ौक़ का इंतक़ाल हो गया उसके बाद का माहौल अलग हो गया। ज़फ़र ने कई रखेलें रख ली थीं तो दाग़ कैसे बच पाते । यहीं के माहौल में दाग़ की यौन इच्छाऍं जागृत हुईं, यहीं उनकी इच्छापूर्ति हुई और वो तवायफ़ों के संपर्क में आने से हुस्न-परस्त हो गए थे । उस ज़माने में तवायफ़ों से सम्बंध रखना आम बात थी, 1856 में जब मिर्ज़ा फ़ख़रू का (cholera से ) निधन हो गया उसके बा’द दाग़ और उनकी वालिदा को लाल क़िला छोड़ना पड़ा । कहते हैं कि बेगम ज़ीनत महल ने उन्हें नहीं रहने दिया। लाल क़िले में तो उनका वक़्त ख़ूब अच्छे से गुज़रा अब मुश्किल सामने आ गई । इधर उधर वक़्त गुज़ारा , 1857 का जब गदर हुआ और दिल्ली उजड़ी तो दाग़ पटना,अलीगढ़,मथुरा,लाहौर होते हुए रामपुर पहुॅंचे । रामपुर में दाग़ नवाब कल्ब अली के यहाॅं रहे जो उनकी ख़ाला उम्दा ख़ानम के ख़ाविंद थे। नवाब कल्बे अली ख़ान अरबी और फ़ारसी के विद्वान थे तथा उनके शासन-काल में रामपुर रियासत में साहित्य को भरपूर प्रोत्साहन मिला। इस दौर में असीर,अमीर,और निज़ाम जैसे अहल-ए-फ़न यहाॅं थे, दाग़ की शायरी ने भी यहीं अपना रंग बिखेरा।
दाग़ तवायफ़ों से किसी न किसी तरह जुड़े रहे। मुन्नीबाई हिजाब नाम की एक तवायफ़ और गायिका थी , जो कलकत्ता से रामपुर के मेले में नाच करने आई थी। दाग़ उसी के इश्क़ में रसिया और फ़िदा हो गए थे , लेकिन वो अच्छे ख़ानदान से थी सो दाग़ पर वह ज़्यादा फ़िदा न रह सकी और वापस कलकत्ता चली गई । बा’द में दाग़ और मुन्नीबाई एक दूसरे को ख़त भी लिखते रहे। मुन्नीबाई से अलग होने पर दाग़ की तड़प, इज़्तिराब किस तरह शे’र में दिखती है ~
आ गई हिज्र की घड़ी सर पर
ये बला झेलनी पड़ी सर पर!
ख़ाना-ए-ऐश लुट गया कैसा
मुझसे मा’शूक़ छुट गया कैसा
1887 में नवाब के इंतक़ाल के बा’द दाग़ को रामपुर भी छोड़ना पड़ा। दाग़ की शोहरत इन दिनों ठीक ठाक हो गई थी, किसी तरह हैदराबाद के नवाब मीर महबूब आसिफ़ अली ख़ाॅं जिनका ये शेर बहुत मशहूर है ~
लाओ तो क़त्ल नामा मेरा मैं भी देख लूं
किस किस की है मोहर सर-ए-महज़र लगी हुई
नवाब ने बुलाया और दाग़ हैदराबाद चले गए। यहाॅं ये ठीक-ठाक वज़ीफ़े पर उस्ताद मुक़र्रर हो गए, दाग़ को इज़्ज़त ,शोहरत और तमाम पदवियाॅं मिलीं। इसी दौरान इनकी शरीक-ए-हयात का इंतक़ाल हो गया, इसके बा’द दाग़ अकेले पड़ गए और उसे दूर करने के लिए दाग़ ने कई तवायफ़ों को नौकर रख लिया था। इन तवायफ़ों में साहिब-जान, अख़्तर जान ख़ास, उम्दा जान वग़ैरह थीं और एक नौकर था जो कव्वालों को ग़ज़ल ले जाकर देता था ।
तवायफ़ें मेरठ,आगरा,सूरत जैसे शहरों से थीं। इस से ये हुआ कि दाग़ जो भी दिन में ग़ज़ल कहते शाम को तवायफ़ को याद करा देते, ख़ुद धुन बनाते ,तबीयत से सुनते और मन बहलाते थे! नौकर कव्वाल को और दूसरी तवायफ़ों को ग़ज़ल ले जा कर देता क़व्वाल और तवायफ दोनों ग़ज़ल गाते अगली सुबह वही ग़ज़ल सारे शहर में मशहूर हो जाती।
दाग़ ने आसान ज़बान में शायरी की इसलिए उनकी शायरी में इश्क़ ,शोख़ी, शरारत, ताने, रश्क़, छेड़छाड़, उर्यानी यह सब रंग बड़ी नफ़ासत से मौजूद हैं। महबूब से गुफ़्तगू और शिकायत गालिब ने भी की लेकिन दाग़ का अंदाज़ मुख़्तलिफ़ है, अब कुछ अश’आर देखें ~
उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं
बाइस-ए-तर्क-ए-मुलाक़ात बताते भी नहीं
ख़ूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं
दाग़ के यहाॅं सूफ़ी दर्शन तो है ही, इसी की एक शाख़ा रहस्यवाद,उदासी का भी असर दिखता है और जाने माने शायर फ़रहत एहसास दाग़ को ग़ालिब के बा’द ग़ज़ल का आख़िरी बड़ा शायर मानते हैं ,जबकि मशहूर नक़्क़ाद मरहूम शमीम हनफ़ी ऐसा नहीं मानते वो ग़ालिब के बा’द फ़िराक़ को ग़ज़ल का आख़िरी बड़ा शायर मानते हैं।
शेर देखें ~
भूले भटके जो तेरे घर में चले आते हैं
अपनी तक़दीर के चक्कर में चले आते हैं
दाग़ की शायरी में दिल्ली की तहज़ीब ,नए रंग ,शरारत,शराब,ज़ाहिद, शेख़,ख़ालिस उर्दू ये सब दिखते हैं दाग़ जैसा रोमांटिक शायर वज़ीर ख़ानम की ही कोख से जन्म ले सकता था ,कुछ शेर देखें ~
इश्क़ ने’मत है आदमी के लिए
इश्क़ जन्नत है आदमी के लिए
लुत्फ़ ए मय तुझ से क्या कहूॅं ज़ाहिद
हाय कमबख़्त तू ने पी ही नहीं
बीसवीं शताब्दी की इब्तिदा तक पूरे हिंदुस्तान में दाग़ के शागिर्दों की ता’दाद तकरीबन दो हज़ार बताई जाती थी, जिस जिस को दाग़ की उस्तादी नसीब हुई आगे चलकर वे भी बड़े शायर बने ! दाग़ के शागिर्दों में अल्लामा इक़बाल,सीमाब अकबराबादी,बेख़ुद दहेलवी,नूह नारवी, जोश मलसियानी और अपनी शायरी के इब्तिदाई दौर में जिगर मुरादाबादी जैसे शो’रा तक उनके शागिर्द रहे। इक़बाल ने तो यहाॅं तक कहा है ~
जनाब-ए-दाग़ की इक़बाल ये सारी करामत है
तेरे जैसे को कर डाला सुख़नदां भी सुख़नवर भी
जलवा-ए-दाग़ के नाम से जो जीवनी प्रसिद्ध है ,वो दाग़ के एक शागिर्द अहसन मारहरवी ने लिखी है और इन्हीं के कहने पर दाग़ ने आने वाले शायरों के लिए पंदनामा नाम से एक क़ितआ’ लिखा जिसके कुछ शे’र मुलाहिज़ा हों ~
अपने शागिर्दों को ये आम हिदायत है मिरी
कि समझ लें तह-ए-दिल से वो बजा-ओ-बेजा
शेर-गोई में रहें मद्द-ए-नज़र ये बातें
कि बग़ैर इन के फ़साहत नहीं होती पैदा
चुस्त बंदिश हो न हो सुस्त यही ख़ूबी है
वो फ़साहत से गिरा शेर में जो हर्फ़ दबा
अरबी फ़ारसी अल्फ़ाज़ जो उर्दू में कहें
हर्फ़-ए-इल्लत का बुरा इन में है गिरना दबना
दाग़ के समकालीन शायर जो एक अलग युग में विभाजित थे जिनमें मौलाना हाली, अल्लामा शिबली, सर सैय्यद,आज़ाद और इमदाद इमाम असर जो उस समय उर्दू नस्र और तनक़ीद की बुनियाद रख रहे थे, और क़ौम के सुधार का ज़रिया बनना चाहते थे। दाग़ की ढलती उम्र बुढ़ापे की सीमा में दाख़िल हो गई थी। शोहरत अपने ज़ोर पर थी ,इसी दौरान एक वाक़या हुआ मुन्नीबाई हिजाब के दिल में दाग़ फिर बस गए और वो दाग़ से मिलने हैदराबाद आ गई लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। दाग़ अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए अपनी ग़ज़ल में कहते हैं ~
फिरे राह से वो यहाँ आते आते
अजल मर रही तू कहाँ आते आते
न जाना कि दुनिया से जाता है कोई
बहुत देर की मेहरबाँ आते आते
सुनाने के क़ाबिल जो थी बात उन को
वही रह गई दरमियाँ आते आते
मुझे याद करने से ये मुद्दआ था
निकल जाए दम हिचकियाँ आते आते
ढलती उम्र के साथ दाग़ को बीमारियों ने घेर लिया था,
72 वर्ष की उम्र में यहीं उनका इंतक़ाल हो गया।
इसी के साथ उर्दू अदब में शोक की लहर दौड़ गई थी अल्लामा इक़बाल अपने मर्सिये में उन्हें याद करते हुए लिखते भी हैं ~
अज़मत-ए ग़ालिब है ,एक मुद्दत से पैबंद-ए-ज़मीन
मेहदी-ए-मजरूह है ,शहर-ए-ख़मोशाॅं का मकीन
तोड़ डाली मौत ने ग़ुरबत में मीना-ए-अमीर
चश्म-ए-महफ़िल में है, अब तक कैफ़-ए-सहबाए अमीर
नवाब मीर महबूब अली ने दाग़ को बुलबुल-ए-हिंद,फ़सीह उल मुल्क समेत कई उपाधियाॅं दीं। दाग़ अपनी मृत्यु के समय पाॅंच दीवान छोड़ कर गए, जिनमें गुलज़ार ए दाग़ (1878),मेहताब ए दाग़(1893) ,यादगार ए दाग़ (1905), आफताब-ए-दाग़(1885) और एक मसनवी संग्रह फ़रियाद-ए-दाग़। 1857 का जब गदर हुआ तो दाग़ का एक दीवान लूटमार की भेंट चढ़ गया और एक कहीं गुम हो गया कहते हैं जब बादशाह की सल्तनत नहीं बची तो दीवान कैसे बचता।
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