Shariq Kaifi

मामूली चीज़ों को ग़ैर-मामूली बना देने वाला शाइर

अगरचे ये शाइरी क्लासिकी उर्दू शाइरी के रिवायती साँचे से बहुत मेल खाती हुई नज़र नहीं आती, लेकिन ये हम-अस्र इंसानी तज्रबात और नफ़्सियात की गहरी तहों को खंगालने में रिवायत और जिद्दत के हर टूल के सहारे से अपना काम करती है। उनकी ग़ज़ल महज़ तख़लीक़ी सलाहियतों के इज़हार का अमल नहीं बल्कि किसी नादीदा-ओ-नायाब नुक्ते की तलाश, समाजी हक़ीक़तों के बयान और इंसानी वुजूद की पेचीदा तहों को बे-नक़ाब करने का ज़रीआ है।

lata-mangeshkar

Lata Mangeshkar: The Immortal Voice, Immortalized

Shakeel Badayuni, Majrooh Sultanpuri, Gulzar, Jaan Nisar Akhtar, and even Naushad Sahab – calling to mind the many poets who tried to touch upon Lata Mangeshkar voice in their poems, in the end, I strongly felt that her voice always remained untouched.

Gandhi Jayanti

गांधी जी की उर्दू और उर्दू के गांधी जी

जहाँ गांधी जी उर्दू से मुहब्बत करते थे और उर्दू में अपनी बातें करते भी थे और अक्सर लिखते भी थे, इसी तरह गांधी जी की शख़्सियत से मुतअस्सिर हो कर उस वक़्त के शायर और अदीब भी उर्दू में अदब तख़्लीक़ कर रहे थे। वो दौर उर्दू और उर्दू में लिखने वालों के लिए सुनहरी दौर इस लिए भी था कि उर्दू किसी मज़हब या क़ौम की ज़ुबान नहीं हुआ करती थी और उर्दू बोलने वालों को, लिखने वालों को इज्ज़त और मोहब्बत की नज़र से देखा जाता था।

Dilip Kumar

دلیپ کمار کی زبان ایک عہد کی زبان تھی جو ان کے ساتھ ہی رخصت ہو گئی

فلموں میں مکالمے صاحب طرز انشا پرداز اور بڑے قلمکاروں کے ہوتے ہیں۔ لہجے اور ادائیگی کا ذمہ اداکاروں پر ہوتا ہے۔ اس لیے فلم سے قطع نظر ہماری نظر دلیپ کمار کی اس اردو کی جانب از خود چلی جاتی ہے جو ان کی اپنی اردو کہی جا سکتی ہے جو ان کے قلب میں نمو پاکر دہن شیریں سے پھوٹ پڑتی ہے۔

Republic Day Urdu

टैगोर, जम्हूरियत और आख़िरी नागरिक

जम्हूरियत को अगर सिर्फ़ वोट करने के हक़ से ता’बीर किया जाए तो उसका मतलब ये होगा कि मुल्क में अक्सरिय्यती ख़याल, वो सोच जिस के मानने वाले अक्सरिय्यत में हों उस सोच को ही ग़लबा मिलेगा। लेकिन इस का दूसरा पहलू क्या ये है कि बाक़ी तमाम ख़याल, बाक़ी तमाम लोग और तमाम फ़िक्र के लोगों के लिए कोई जगह नहीं?

Faiz Ahmad Faiz

فیض احمد فیض نے ’مجھ سے پہلی سی محبت مری محبوب نہ مانگ‘ کس کی یاد میں لکھی تھی؟

ڈاکٹر ایوب مرزا اپنی کتاب ’ہم کہ ٹھہرے اجنبی‘ میں لکھتے ہیں کہ ’پنڈی کلب کے لان میں ایک خاموش شام میں ہم اور فیض بیٹھے تھے۔ میں نے پوچھا فیض صاحب آپ نے کبھی محبت کی ہے؟ بولے ’ہاں کی ہے اور کئی بار کی ہے۔‘

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