Rahat Indori

तमाम शह्र में मौज़ू ए गुफ़्तगू हम थे

कुछ शे’र देखिये:

उठी निगाह तो देखा कि चार सू हम थे,
ज़मीन आइनाख़ाना थी रू ब रू हम थे

ख़मोश हो गये इक शाम और उसके बाद,
तमाम शह्र में मौज़ू ए गुफ़्तगू हम थे

सिर्फ़ इतना फ़ासला है ज़िंदगी से मौत का
शाख़ से तोड़े गए गुल-दान में रक्खे रहे

शाम ने जब पलकों पे आतिश-दान लिया
कुछ यादों ने चुटकी में लोबान लिया

कितने सुख से धरती ओढ़ के सोए हैं
हम ने अपनी माँ का कहना मान लिया

सहर तक तुम जो आ जाते तो मंज़र देख सकते थे
दिए पलकों पे रक्खे थे शिकन बिस्तर पे रक्खी थी

ये मौज मौज नयी हलचलें सी कैसी हैं
ये किसने पांव उतारे उदास पानी में

शाम तक लौट आऊंगा हाथों का ख़ालीपन लिये,
आज फिर निकला हूं मैं घर से हथेली चूम कर

हाथ ख़ाली हैं तिरे शह्र से जाते जाते
जान होती तो मिरी जान लुटाते जाते

ज़ख़्म का नाम फूल कैसे पड़ा
तेरे दस्ते हुनर से पूछते हैं

ये जो दीवार है ये किसकी है
हम इधर वो उधर से पूछते हैं

नींद पिछली सदी की ज़ख़्मी है
ख़्वाब अगली सदी के देखते हैं

खुले रहते हैं सारे दरवाज़े
कोई सूरत नहीं रिहाई की

अजनबी ख़्वाहिशें सीने में दबा भी न सकूं
ऐसे ज़िद्दी हैं परिंदे कि उड़ा भी न सकूं

काम सब ग़ैर ज़रूरी हैं जो सब करते हैं
और हम कुछ नहीं करते हैं ग़ज़ब करते हैं

एक इक पल को किताबों की तरह पढने लगे
उम्र भर जो न किया हमने वो अब करते हैं

झुलस रहे हैं यहाँ छाँव बाँटने वाले
वो धूप है कि शजर इल्तिजाएँ करने लगे

बैठे बैठे कोई ख़याल आया
ज़िंदा रहने का फिर सवाल आया

कौन दरियाओं का हिसाब रखे
नेकियाँ नेकियों में डाल आया

नर्म-ओ-नाज़ुक हल्के-फुल्के रूई जैसे ख़्वाब थे
आँसुओं में भीगने के बा’द भारी हो गए

जी हां… ये राहत इंदौरी के शे’र हैं।

मुशाइरों की बेइंतहा रौशनी और शोर ओ गुल से दूर किसी सराय के नीम अंधेरे कमरे में दानिस्ता छोड़ दी गई बयाज़ में दर्ज शे’र।

झिलमिलाते हुए और चमकते हुए शे’र।

अगर ये शे’र कहने वाले शाइर की शाइराना अज़्मत पर आप सवाल खड़ा करना चाहते हैं मेरा ख़याल है आपका सवाल वाजिब नहीं है। ये बात और है कि राहत इंदौरी ने इनमें या इन के जैसे बेशतर अशआर में से न के बराबर शे’र मुशाइरों में पढे।

ज़ाहिर सी बात है कि शोहरत के परबत पर चढने के लिये मुसाफ़िर को तमाम भारी सामान छोड़ के चलना होता है। । । तो अपने सामाने सफ़र से सबसे ज़ियादा वज़्नी अशआर राहत इंदौरी ने अलग कर दिये। । जानते बूझते हुए। । दानिस्ता !

कोई 35 बरस पहले मध्य प्रदेश की भोज युनिवर्सिटी से पी। एच। डी।  करते वक़्त उनकी थीसिस का शीर्षक था “उर्दू में मुशाइरा”। उस वक़्त भला कौन सोच सकता था कि आने वाली तीन दहाइयों में मुशाइरे का मतलब ही राहत इंदौरी हो जाएगा।

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राहत इंदौरी ने मुशाइरे को एक क़िस्म के परफ़ार्मेंस में बदल दिया.. और मुशाइरे के मंच को भी राहत इंदौरी से बड़ा परफ़ार्मर अब शायद ही नसीब हो। वे ऐसा जादू जगाते थे जिसको दोहराना किसी के भी लिये मुमकिन न था।

वे मुशाइरे को इस तरह सर कर लेना चाहते थे कि फिर कोई और उसका दावेदार ही न बचे.. और कहना होगा कि वो अपने इस मिशन में सफल भी हुए।

राहत इंदौरी अपने साथ के बहुत से शाइरों से बेहतर शाइर थे इसमें कोई दो राय नहीं। । लेकिन मुशाइरों को लूट लेने की जो राह उन्होनें चुनी उस राह पर ऐसा होना भी स्वाभाविक ही था कि किसी मरहले पर जा कर शाइरी डिमांड एंड सप्लाई के कारोबार में बदल जाए।

ऐसे हालात में शे’र कहते वक़्त ये ख़याल हर वक़्त दिमाग़ में घूमता रहता है कि इसे सुनाते वक़्त हज़ारों का मजमा सामने बैठा होगा। । और इस वजह से शाइर उस काल्पनिक प्रतिक्रिया की क्रिया स्वरूप शे’र कहने लगता है। तो शाइरी की ज़बान,बयान,कहन यहां तक कि ख़याल का निर्धारण भी एक काल्पनिक भीड़ करने लगती है।

ऐसी स्थिति में शाइर उन बातों को भी शे’र में ढालने लगता है जो स्तरीय भले ही न हों लेकिन भीड़ को आंदोलित कर सकती हों। सृजन के एकांत क्षणों में श्रोताओं की काल्पनिक भीड़ और तालियों की गूंज कला को धीरे धीरे अवसान की ओर धकेल देती है।

तालियों की इस गूंज के प्रभाव में जिस तरह अमिताभ अपनी फ़िल्म के हर तीसरे दृश्य में दांया हाथ कमर पर रख कर और बांया हाथ उठा कर “हांय” बोल देते हैं उसी तरह राहत इंदौरी भी “किसी के बाप का हिंदोस्तान थोड़ी है” सुनाने लगते थे।

श्रोताओं के हुजूम और तालियों के शोर की कल्पना के भार से दब कर ख़याल का शीशा टूट जाता है और कांच के टूटे हुए टुकड़ों की शक़्ल में शे’र बरामद होता है।

नुकीले और धारदार टुकड़े। जिन्हें छू लें तो ख़ून निकल आए।

सामने बैठी भीड़ के अहसासात को हवा देने के लिये विरोधी विचारधाराओं और विरोधी लोगों को अपनी शाइरी से लहूलुहान करने का उनका ये शग़्ल जिंदगी भर चलता रहा।

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राहत इंदौरी पर ये इल्ज़ाम भले ही रहा हो कि उन्होंने ज़िंदगी भर मुशाइरे की शाइरी की। ।  लेकिन कहना होगा कि मुशाइरे की शाइरी करते वक़्त भी उन्होंने अपने क्राफ़्ट से कभी समझौता नहीं किया। । उनके तमाम मशहूर अशआर में एक अलग क़िस्म की कशिश हमेशा सुनने वालों को महसूस होती रही। । वो शे’र में कही गई बात से भले ही नाइत्तफ़ाक़ी रखते हों लेकिन सुन कर दाद देने से ख़ुद को नहीं रोक पाते थे।

यहां मुझे किसी फ़िल्म (संभवत: उत्सव) का एक दृश्य याद आ रहा है। एक चोर चोरी का सामान बांध कर खिड़की तोड़ कर घर से बाहर निकलता है। लेकिन भाग नहीं जाता। वह सामान नीचे रखता है और टूटे हुए झरोखे को काफ़ी समय लगा कर एक कलाकृति में बदल देता है। जब अपनी कलाकृति से संतुष्ट हो जाता है तो चोरी का सामान ले कर चला जाता है।

कहने का मतलब यह कि चोरी बेशक उसका मजबूरी में अपनाया गया पेशा हो लेकिन है वो कलाकार। वो भी छोटा मोटा नहीं। उत्कृष्ट कलाकार.. और पकड़े जाने के भय से अधिक उसक ध्यान अपनी कला के प्रदर्शन पर है।

वो ये बात संसार को बताना चाहता है कि किसी ऐसे वैसे आदमी ने चोरी नहीं की है। । कि कोई ऊंचे पाये का कलाकार सामान चुरा कर ले गया है।

विडंबना यह है कि सुबह जब घर के लोग उठते हैं तो चोरी का शोक मनाते हैं.. आहत होते हैं, लेकिन वह कलाकृति देख कर मुग्ध हो जाते हैं।

राहत इंदौरी अपनी शाइरी से आहत भी करते थे तो इसी तरह करते थे। आहत होने वाले भी उनके क्राफ़्ट पर मुग्ध हो जाते थे!

राहत साहब अब हमारे बीच नहीं हैं। । मुशाइरों को भी अपने सबसे बड़े परफ़ार्मर की कमी अरसे तक महसूस होती रहेगी।

ये और बह्स है कि बदली हुई शक़्ल पहले से बेहतर है या ख़राब। लेकिन हिंदुस्तान में मुशाइरों की शक़्ल को पूरी तरह बदल देने का जो काम राहत इंदौरी ने लगभग अकेले के दम पर किया। वो आसान काम नहीं था।

मेरी अपनी राय ये है कि अगर किसी अदीब की युनिवर्सल एक्सेप्टेंस और शोहरत आसमान छूने लगे तो समाज/मआशरे के प्रति उसकी ज़िम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है, और ज़ाती नुक़सान की संभावनाओं के बाद भी उसे कोशिश ये करनी चाहिए कि अदब के प्रति समाज/मआशरे का जो टेस्ट है वो उसे रिफ़ानमेंट की ओर ले जाए। उन्हें सत्ही और जुनून पैदा करने वाली शाइरी से धीरे धीरे संजीदा अदब की ओर ले कर जाए। हालांकि इस कसौटी पर खरा उतरना बेहद मुश्किल काम है, और सच यही है कि तमाम कोशिशों के बावजूद राहत साहब के लिये भी ये मुमकिन नहीं हुआ।

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अदीब होने के नाते उसे तुरंत होने वाले फ़ायदे से ज़ियादा दूरगामी नुक़सान को तवज्जोह देनी चाहिए। ऐसा मेरा मानना है।

खुले मैदानों में हज़ारों की भीड़ के सामने रात भर चलने वाले मुशाइरों के माहौल और उससे पैदा होने वाले असरात की अक्कासी करना वैसे तो मुश्किल काम है लेकिन एक मिसाल से

इसे समझने की कोशिश करते हैं।

मैं तीन बार कश्मीर गया हूं। वहां के स्थानीय बेरोज़गार युवा बर्फ़बारी के बाद पर्यटकों से कुछ पैसा कमाने की गरज़ से एक खेल शुरू कर देते हैं।

वे किसी ऊंची जगह जा कर ट्रक के टायर की हवा भरी ट्यूब में धंस कर बैठते हैं और अपने आगे किसी पर्यटक को बिठा लेते हैं। उनका साथी अब इस ट्यूब को हल्का सा धक्का देता है और ट्यूब में फंस कर बैठे दोनों लोग तेज़ी से बर्फ़ पर फिसल कर नीचे आते हैं।

यह अनुभव बेशक रोमांचकारी होता है लेकिन नीचे आने के बाद वापस ऊपर चढना बेहद थका देने वाला और दुष्कर काम होता है।

गुजश्ता पचास बरसों में श्रोताओं की कई पीढियां बेशतर मुशाइरों में सुनाई जाने वाली शाइरी की ट्यूब पर फिसल कर नीचे आने का रोमांच ले चुकी हैं। । सवाल यह है कि मुशाइरे/श्रोता वापस उस जगह पहुंच पाएंगे कि नहीं। । और सवाल यह भी है कि किसी आलमी तौर पर मशहूर अदीब/शाइर को हमें इस ज़ाविये से भी देखना चाहिए या नहीं।

आख़िर में सिर्फ़ यह कहना ठीक होगा कि राहत इंदौरी की शोहरत का रथ पूरी धरती की परिक्रमा बेशक लगा आया हो लेकिन इस रथ की पताका उस चद्दर से बनी है जिस चद्दर को चालीस बरस पहले उन्होनें और उनके हमअस्रों ने बलपूर्वक खींच कर मुशाइरे के मंच पर आसीन गरिमा को एक झटके में गिरा दिया था।

उनकी अकल्पनीय शोहरत की रिदा में तुहमत का ये पैवंद हमेशा लगा रहेगा।