हर अच्छे शायर ने मुसलसल रियाज़त की है
क़लम का मज़्दूर’, हिन्दी में प्रेमचन्द की पहली मुस्तनद और मुकम्मल सवानेह है जिसमें प्रेमचन्द की तख़लीक़ात के जीवन्त तारीख़ी हवाले और समाजी माहौल पेश किए गए हैं। ‘प्रेमचन्द: क़लम का सिपाही’ नाम की किताब विख्यात साहित्यकार अमृत राय द्वारा रचित एक जीवनी है जिसके लिये उन्हें सन् 1963 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
मैंने बा’ज़-औक़ात लोगों को ‘क़लम का मज़्दूर’ और ‘क़लम का सिपाही’ दोनों ही जुमलों बल्कि उन्वानों का मज़ाक़ उड़ाते हुए देखा है। उनका अपना नज़रिया भी दुरुस्त है कि यहाँ हर कोई ख़ुद को क़लम का मज़्दूर या क़लम का सिपाही समझता है। मैं मज़ाक़ उड़ाने वालों से न मुत्तफ़िक़ हूँ न उनके ख़िलाफ़। मगर एक बात सोचने की है कि क़लम का मज़्दूर होना, क़लम का सिपाही होना या रचनात्मक अवरोध या’नी writer’s block क्या है? दरअस्ल ये तीनों बातें सिर्फ़ लिखने वालों से नहीं बल्कि पेशेवर लिखने वालों या’नी पेशेवर लेखकों से सम्बन्धित हैं, जो लेखन के शिल्प और कला से वाक़िफ़ होते हैं, जो जानते, समझते और मानते हैं कि उन्हें लिखने के इलावा कोई और काम नहीं आता।
शिल्प के दाएरों में महदूद रह कर अपने तसव्वुर को आफ़ाक़ी और आलमी बनाना ही वास्तविकता में लेखन है।
क़लम का मज़्दूर होना या क़लम का सिपाही होना इन दोनों जुमलों से मुराद लिखने के सिलसिले को बा-हर-तौर क़ाएम रखने से है। पेशेवर लेखक के लिए कुछ भी लिखना उसकी रियाज़त है। कुछ नहीं लिख पाने पर पढ़ना उसकी रियाज़त का दूसरा तरीक़ा है। पेशेवर लेखक हर रोज़ रियाज़त के तौर पर कुछ न कुछ इसी लिए नहीं लिखता कि उसका लिखा हुआ सब कुछ शाइअ हो। हरगिज़ नहीं।
आपने कभी सोचा है कि हर एक गवैया कोई काम करे न करे लेकिन अपना रियाज़ ज़रूर करता है। अख़बार-नवीस छापने के लिए रोज़ ख़बरें ढूँढता है। अदाकार अपनी अदाकारी की रियाज़त करता है। या’नी हर एक कलाकार अपनी कला को बेहतर और बेहतर बनाने के लिए रोज़ रियाज़ करता है।
कला: साइकिल, मोटर साइकिल, ट्रक वग़ैरा चलाने जैसी नहीं होती कि एक बार सीखने के बा’द उम्र भर के लिए बग़ैर रियाज़त के याद रह जाए।
Thomas Mann कहते हैं, “A writer is a person for whom writing is more difficult than it is for other people.” या’नी ‘लेखक’ के लिए लेखन बाक़ी लोगों के मुक़ाबले में काफ़ी मुश्किल काम होता है।
Dan Poynter कहते हैं, “If you wait for inspiration to write you’re not a writer, you’re a waiter.” या’नी अगर आप लिखने के लिए प्रेरणा की प्रतीक्षा करते हैं, तो आप लेखक नहीं हैं, आप एक वेटर हैं।
उनके इस बयान की मुराद हर रोज़ लिखने की रियाज़त से ही है।
Herman Wouk कहते हैं, “I try to write a certain amount each day, five days a week. A rule sometimes broken is better than no rule.” या’नी मैं हर रोज़ कुछ न कुछ लिखने की कोशिश करता हूँ। कम से कम हफ़्ते में पाँच दिन। मेरे लिए मेरे इस क़ाएदे का टूटना कोई भी क़ाएदा न होने से बेहतर है।
Nora Roberts कहती हैं, “[As a writer] you have to have the three D’s: drive, discipline and desire. If you’re missing any one of those three, you can have all the talent in the world, but it’s going to be really hard to get anything done.” या’नी एक लेखक के तौर पर आपके नज़्दीक तीन D होने ज़रूरी हैं। Drive (या’नी सहीह दिशा में आगे बढ़ने का हुनर), Discipline (नज़्म-ओ-ज़ब्त या अनुशासन) और Desire (मंशा, इरादा या ख़्वाहिश) अगर आप इनमें से कोई एक चीज़ भी भूलते हैं, तो आप हुनर-मन्द होने के बावजूद कुछ नहीं कर सकते हैं।
Barbara Kingsolver कहती हैं, “Beginning a novel is always hard. It feels like going nowhere. I always have to write at least 100 pages that go into the trashcan before it finally begins to work. It’s discouraging, but necessary to write those pages. I try to consider them pages -100 to zero of the novel.” या’नी उपन्यास लिखने की इब्तेदा हमेशा मुश्किल होती है। शुरुआत में ऐसा महसूस होता है जैसे सब फ़ुज़ू है। लेकिन मैं हमेशा 100 सफ़्हे लिखती हूँ जो आख़िर में अस्ल काम की शुरुआत होने से पहले कूड़े-दान में फेंके जाते हैं। मुझे ये हतोत्साहित करता है मगर मुझे ऐसा करना पड़ता है क्यों कि ये शुरूआती 100 सफ़्हे मुझे शून्य की दिशा में ले जाने का काम करते हैं।
कुल मिला कर ईश्वर (अगर आप मानते हैं तो) ने हमें काएनात में मौजूद एक ज़िन्दा शय से ज़ियादा दिमाग़ और सोचने की क़ुव्वत दी है इसके बावजूद अगर हम-ख़यालों के लिए भी किन्हीं अद्रश्य और जादुई शक्तियों के भरोसे बैठे हुए हैं, तो वाक़ई आपको अपने-आप में फ़िक्र करने की ज़रूरत है कि क्या आप वाक़ई लेखक हैं? ग़ालिब ने ख़ूब कहा हो कि:
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में
ग़ालिब सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है
लेकिन ये एक नया मज़्मून गढ़ने के इलावा कुछ नहीं है। ग़ालिब ऐसे शाइर नहीं थे जो शाइरी के लिए ग़ैब से आने वाली आवाज़ों का इन्तज़ार करते वर्ना क्या ऐसा मुमकिन था कि उन्होंने ब-तौर-ए-तंज़ जो मिसरा (बना है शह का मुसाहिब फिर है इतराता) उस्ताद ज़ौक़ के लिए कहा था, उसे बहादुर शाह ज़फ़र के आगे ये कह कर टाल जाते कि हुज़ूर ये मेरी नई ग़ज़ल का मक़्ता है।
लेकिन बात टली कब थी? उन्हें मक़्ता सुनाने को कहा गया। उन्होंने सुनाया भी:
बना है शह का मुसाहिब फिर है इतरारा
वगर्ना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है
इस पर कहा गया कि ग़ज़ल का मक़्ता जब इतना ख़ूब-सूरत है, तो ग़ज़ल कितनी ख़ूब-सूरत होगी। ज़फ़र ने कहा कि ग़ालिब पूरी ग़ज़ल सुनाइए और ग़ालिब अपने जेब से एक पर्चा निकालते हैं और उसे देख कर ग़ज़ल पढ़ने की अदाकारी करते हुए:
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अन्दाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है
जैसी क्लासिक ग़ज़ल वहीं के वहीं रच के सुना दी, जब कि उस पर्चे में, जिसे देख कर ग़ज़ल पढ़ने की अदाकारी कर रहे थे, कुछ नहीं लिखा था।
मीर भी अगर ऐसा सोच रहे होते तो क्या कभी ऐसे सैकड़ों अशआर कह पाते जिनमें से हर एक अपने-आप में जाविदाँ हो जाने का मर्तबा रखता है?
दरअस्ल हुनर एक पत्थर या कच्ची मिट्टी की मानिन्द होता है, जिसे एक संग-तराश या कूज़ागर की हैसियत से रियाज़त और कोशिशों के बल पर एक शक्ल मुहैया कराई जाती है।
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