जब फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को इंग्लिश के पर्चे में 150 में से 165 नंबर मिले
थर्ड ईयर के इम्तिहान के बाद जब तालिब-ए-इल्म अपनी अपनी कापियाँ देख रहे थे तो फ़ैज़ की कॉपी पर 165 नंबर दर्ज थे। कोई हैरान हुए बग़ैर नहीं रह सका क्योंकि इम्तिहान सिर्फ़ 150 नंबरों का था।
थर्ड ईयर के इम्तिहान के बाद जब तालिब-ए-इल्म अपनी अपनी कापियाँ देख रहे थे तो फ़ैज़ की कॉपी पर 165 नंबर दर्ज थे। कोई हैरान हुए बग़ैर नहीं रह सका क्योंकि इम्तिहान सिर्फ़ 150 नंबरों का था।
Poetry has forever been a language of the heart and as Milan Kundera reminded us, ‘when the heart speaks, the mind finds it indecent to object’. A moving medium of expression that explores the deep recesses of our being, poetry awakens us to suppressed emotions. It rouses sensitivities to a point where grief becomes the music of the soul and moments of happiness, a cherished interlude in an ordinary life’s long story of substantive nothingness.
आलमे-इंसानियत की कोई भी जंग उठाकर देख लीजिए और उसके असबाब तलाशिए तो आख़िर में वाहिद सबब ताक़त का जुनून ही नज़र आएगा और इसमें अगर अना की दीवानगी भी शामिल कर ली जाए तो मुआमला और ख़तरनाक हो जाता है।
ڈاکٹر ایوب مرزا اپنی کتاب ’ہم کہ ٹھہرے اجنبی‘ میں لکھتے ہیں کہ ’پنڈی کلب کے لان میں ایک خاموش شام میں ہم اور فیض بیٹھے تھے۔ میں نے پوچھا فیض صاحب آپ نے کبھی محبت کی ہے؟ بولے ’ہاں کی ہے اور کئی بار کی ہے۔‘
एक दिन मजरूह साहब अपने रिकॉर्ड प्लेयर में मल्लिका-ए-तरन्नुम ‘नूरजहाँ’ की गायी और फ़ैज़ साहब की लिखी नज़्म “मुझसे पहली सी मुहब्बत…” सुन रहे थे। इस नज़्म में एक मिसरा आया ‘तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है’। मजरूह साहब इस मिसरे के दीवाने हो गए और उन्होंने फ़ैज़ साहब से बात की कि वो इस मिसरे को ले कर एक मुखड़ा रचना चाहते हैं। फ़ैज़ साहब ने इजाज़त भी दे दी।
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