Waqt Par Shayari

आइये वक़्त के साथ चलते हैं कुछ शेरों के सहारे

कहते हैं वक़्त बड़ा बलवान है। वक़्त करवट ले तो कोई राजा रंक हो सकता है और कोई रंक राजा बन जाता है। तो यहाँ हम इस बलवान वक़्त, जो किसी के लिए ठहरता नहीं, के सफ़र का मुख़्तसर जाएज़ा लेंगे। साथ ही इस सफ़र के दौरान इसके बदलते रूप और मानी को भी समझेंगे।

अव्वल तो ये कि वक़्त फ़ारसी का लफ़्ज़ है। लेकिन फ़ारसी में इसका तलफ़्फ़ुज़ कुछ इस तरह से है कि ये ‘बख़्त’ बन जाता है मगर लिखा वक़्त ही जाता है। फ़ारसी में वक़्त का मतलब समय का हिस्सा, ज़माना या मौसम होता है। हिंदी-उर्दू में इस्तेमाल होने वाला बख़्श भी इसी ‘वक़्त’ का रूप है। जिस तरह से हिंदी में ‘व’ – ‘ब’ में बदलता है, ठीक उसी तरह से फ़ारसी में भी। वक़्त जब रूप बदलकर बख़्त बना तो उसका मतलब भी समय से बदलकर क़िस्मत या भाग्य हो गया। इसी लफ्ज़ से बना है – कम-बख़्त, और हिंदी में इसका इस्तेमाल अक्सर ग़लत जगहों पर देखा जाता है। हिंदी में लोग इसका मतलब बेवकूफ़ से ज़ियादः लगाते पाए जाते हैं, जबकि इसका अस्ल मानी बद-क़िस्मत है। इसी तरह से ‘बदबख़्त’ भी है।

इस लफ़्ज़ की आख़िरी कड़ी में हम बात करेंगे ‘बख़्श’ की। ‘बख़्श’ के माने भी हिस्सा या अंश हैं, तभी तो ‘बख़्शिश’ का मतलब दान या ख़ैरात निकल आता है। टाइटल बख़्श या बख़्शी भी काफ़ी सुना होगा आपने। बख़्शी बादशाही ज़माने में सरहद पर एक ऐसा ओ’हदा था, जिसकी ख़ासी इज़्ज़त होती थी। ये सैनिकों में तनख़्वाह बाँटने और टैक्स वसूलने का काम करते थे। रही बात बख़्श की तो आप नाम-राम बख़्श, नूर बख़्श, शिव बख़्श, अल्लाहबख़्श से समझ सकते हैं कि ये लफ़्ज़ हिन्दुओं और मुसलमानों में साथ-साथ कितने अच्छे ढंग से इस्तेमाल किया जाता था।

अब हम देखते हैं चंद ऐसे अशआर जिनमें इन लफ़्ज़ों का इस्तेमाल हुआ है।

वक़्त अच्छा भी आएगा ‘नासिर’,
ग़म न कर ज़िन्दगी पड़ी है अभी

नासिर काज़मी

टूटी कमंद बख़्त का वो ज़ोर रह गया
जब बाम-ए-दोस्त हाथ से कुछ दूर रह गया

नामालूम

अब एक ऐसा शेर देखिए, जिसमें ‘बख़्त’ और ‘वक़्त’ दोनों का इस्तेमाल है। इस शेर से ‘वक़्त’ का मानी समय और ‘बख़्त’ का मानी क़िस्मत बहुत अच्छी तरह समझ में आता है।

हादिसा भी होने में वक़्त कुछ तो लेता है
बख़्त के बिगड़ने में देर कुछ तो लगती है

अमजद इस्लाम अमजद

शायर नज़ीर अकबराबादी ने लफ़्ज़ ‘कम-बख़्त ’ को रदीफ़ बना कर ग़ज़ल कही। इसमें कम-बख़्त का मानी ‘बद-क़िस्मत’ ही मिलता है न कि बेवकूफ़,

ऐ चश्म जो ये अश्क तू भर लाई है कम-बख़्त
इस में तो सरासर मिरी रुस्वाई है कम-बख़्त

नज़ीर अकबराबादी

इसी ग़ज़ल में शायर ने मक़ता कहा है,

तोड़े हैं बहुत शीशा-ए-दिल जिस ने ‘नज़ीर’ आह
फिर चर्ख़ वही गुम्बद-ए-मीनाई है कम-बख़्त

नज़ीर अकबराबादी

गले मिला न कभी चाँद बख़्त ऐसा था
हरा-भरा बदन अपना दरख़्त ऐसा था

शकेब जलाली

अब लफ़्ज़ ‘बख़्श’ के हवाले से चंद शेर मुलाहिज़ा फ़रमाएँ,

लज़्ज़त-ए-ग़म तो बख़्श दी उस ने
हौसले भी ‘अदम’ दिए होते

अब्दुल हमीद अदम

क्या हमारी नमाज़ क्या रोज़ा
बख़्श देने के सौ बहाने हैं

मीर मेहदी मजरूह

फूँक कर मैंने आशियाने को
रौशनी बख़्श दी ज़माने को

आरिफ़ अब्बासी बलियावी

इस तरह हम देखते हैं कि वक़्त, बख़्त औ बख़्श जैसे लफ़्ज़ गाहे-ब-गाहे अशआर में मिलते रहते हैं। अशआर ही क्यों आम ज़बान में भी इन लफ़्ज़ों का इस्तेमाल ख़ूब होता है। तो ऐसे ही लफ़्ज़ों का सफ़रनामा जानते रहिए और इस्तेमाल करते रहिए।

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