जब शायरों के शेर ज़रा सी तब्दीली के साथ फ़िल्मों में पेश किये गए
हिन्दुस्तान में टॉकीज़ यानी बोलती फ़िल्मों की शुरूआत से ही बॉलीवुड से उर्दू का रिश्ता जुड़ गया था जो आज तक बाक़ी है। इसकी बहुत रंगा-रंग और दिलचस्प तारीख़ है जिसकी बहुत बातें होती रहती हैं। 1940 की आख़िरी दहाई से लेकर 1970 तक का दौर बॉलीवुड का सुनहरा ज़माना कहलाता है। उस बीच उर्दू के मशहूर शायर और अदीब वहाँ जमा हो गए थे और एक से एक यादगार फ़िल्में बनीं, डायलॉग और गाने लिखे गए। साहिर, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुलतानपुरी, हसरत जयपुरी, राजिंदर कृष्ण, शकील बदायूनी वग़ैरा ने यादगार नग़्मे लिखे। और ये भी सच है कि उर्दू के पुराने और क्लासिकी शायर भी किसी न किसी तरह हमारी फ़िल्मों में मौजूद रहे।
‘ग़ालिब’ की बात अलग है उन पर तो एक यादगार फ़िल्म ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ बनी जो एक लीजेंड बन गई। लेकिन और भी बहुत से पुराने, मशहूर, क्लासिकी शायर हैं जो हमारे उर्दू के फ़िल्मी गीतकारों के शायराना मिज़ाज में रचे बसे हुए थे। सो इन लोगों ने गुज़रे हुए फ़नकारों की मीरास से कभी कोई पूरा शे’र, कभी सिर्फ़ एक मिस्रा, या कोई शे’र ज़रा सी तब्दीली (तसर्रुफ़) के साथ बिला-तकल्लुफ़ अपने गानों में शामिल कर लिया। और अब भी ये सिलसिला जारी है। वैसे देखें तो फ़िल्मों के कितने ही मशहूर गाने लोक-गीतों के बोल और धुनों पर आधारित हैं। शायरी और संगीत तो सबकी साँझी विरासत है। अब इसे सरक़ा या चोरी कहें या अपने गुज़रे हुए फ़नकारों के लिए श्रद्धांजलि के तौर पर देखें?
उर्दू शायरी में किसी दूसरे शायर के कलाम, शे’र या किसी मिस्रा से मुतअस्सिर हो कर, इसमें कुछ इज़ाफ़ा करके उसको अपना लेने की रिवायत हमेशा रही है जिसे तज़मीन कहते हैं। इसके अलावा तरही मुशायरों में किसी उस्ताद की ग़ज़ल से कोई मिस्रा दिया जाता था यानी ‘मिस्रा-ए-तरह’ और सब शायर इसी ज़मीन में इसी क़ाफ़िए और रदीफ़ के साथ ग़ज़लें कहते थे और इस ‘मिस्रा-ए-तरह’ पर अपने मिस्रे से ‘गिरह’ लगाते थे। हमारे शायरों ने फ़िल्मों में इस रिवायत को जारी रक्खा। किस ने किस तरह ये रिवायत निभाई ये अलग बात है। चलिए बॉलीवुड में इसकी झलक देखते हैं।
मशहूर गीतकार हसरत जयपुरी ने इस रिवायत का अपने फ़िल्मी गानों में ख़ूब ख़ूब फ़ायदा उठाया है। मोमिन का मशहूर शे’र है जिस पर ग़ालिब ने अपना पूरा दीवान देने की बात की थी।
तुम मिरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता
हसरत जयपुरी ने फ़िल्म ‘लव इन टोक्यो’ (1966) में अपने गाने का मुखड़ा इस तरह लिखा:
ओ मिरे शाह-ए-ख़ूबाँ, ओ मिरी जान-ए-जानानाँ
तुम मेरे पास होते हो कोई दूसरा नहीं होता
मोमिन की इसी ग़ज़ल का एक शे’र है:
हाल-ए-दिल यार को लिखूँ कैसे
हाथ दिल से जुदा नहीं होता
पृथ्वी राज कपूर और सुरय्या की फ़िल्म ‘रुस्तम-ओ-सोहराब’ की एक क़व्वाली ‘हम न भूलेंगे तुम्हें अल्लाह कसम’ में क़मर जलाल आबादी ने इस शे’र को बख़ूबी शामिल किया था। वैसे भी क़व्वालियों के बीच बीच में मुख़्तलिफ़ शायरों के शे’र शामिल किए जाते हैं।
अब ज़रा देखें हसरत जयपुरी ही ने साधना और राजिंदर कुमार की मशहूर फ़िल्म ’आरज़ू’ में मजाज़ की नज़्म ‘उनका जश्न-ए-सालगिरह’ से किस तरह इंस्पिरेशन लिया था।
मजाज़ की इस नज़्म की आख़िरी लाइनें हैं:
छलके तिरी आँखों से शराब और ज़्यादा
खिलते रहें आरिज़ के गुलाब और ज़्यादा
अल्लाह करे ज़ोर-ए-शबाब और ज़्यादा
फ़िल्म आरज़ू में हसरत जयपुरी ने उसे इस तरह पेश किया:
छलके तिरी आँखों से शराब और ज़्यादा
खिलते रहें होंटों के गुलाब और ज़्यादा
तू इश्क़ के तूफ़ान को बाहों में जकड़ ले
अल्लाह करे ज़ोर-ए-शबाब और ज़्यादा
और पुराने शायर हैदर अली आतिश की ग़ज़ल के मतला को भी हसरत ने राज कपूर की फ़िल्म ‘दीवाना’ के एक गीत में बस ज़रा सा बदल कर पेश कर दिया। आतिश का शे’र है:
ऐ सनम जिसने तुझे चाँद सी सूरत दी है
उस अल्लाह ने मुझको भी मोहब्बत दी है
और हसरत ने गीत का मुखड़ा कुछ इस तरह लिख दिया:
ऐ सनम जिसने तुझे चाँद सी सूरत दी है
उसी मालिक ने मुझे भी तो मोहब्बत दी है
मजरूह सुलतानपुरी ने मीर तक़ी मीर की मशहूर ग़ज़ल का शे’र:
पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने ना जाने गुल ही ना जाने बाग़ तो सार जाने है
अमिताभ बच्चन और जिया भादुरी की फ़िल्म ’एक नज़र’ के अपने एक गीत के मुखड़े के तौर पर ले लिया। लेकिन इस शे’र को तोड़ मरोड़ कर बदला नहीं।
आशा पारेख और सुनील दत्त की फ़िल्म ‘चिराग़’ में मजरूह ने फ़ैज़ की नज़्म ‘मुझ से पहली सी मुहब्बत मिरे महबूब ना मांग’ के एक मिस्रा को अपने एक बहुत ख़ूबसूरत गाने का मुखड़ा बनाया था। फ़ैज़ की ये नज़्म जो नूर जहाँ की आवाज़ में यादगार बन गई है उसका शे’र है।
तेरे होने से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
मजरूह सुलतानपुरी ने इस शे’र के सुरूर में पूरा गाना ही उन आँखों के नाम लिख दिया:
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
ये उठें सुब्ह चले, ये झुकें शाम ढले
मेरा जीना मेरा मरना इन्हीं पलकों के तले
गुलज़ार ने फ़िल्म ‘मौसम’ में ग़ालिब को श्रद्धांजलि कुछ अलग अंदाज़ से पेश की है। ग़ालिब का मशहूर शे’र है:
दिल ढूंढता है फिर वही फ़ुर्सत के रात दिन
बैठे रहे तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए
गुलज़ार ने सिर्फ़ ‘दिल’ को ‘जी’ से बदल दिया। अगर न बदलते तो ज़्यादा बेहतर होता। लेकिन गुलज़ार जो ग़ालिब के बहुत मद्दाह हैं, उन्होंने इस शे’र की कैफ़ियत में डूब कर ‘फ़ुर्सत के रात-दिन’ और ‘तसव्वुर-ए-जानाँ’ की सुंदर तस्वीरें फ़िल्म मौसम के इस गाने में पेश की हैं। जिस में जाड़े की नर्म धूप में आँगन में किसी के आँचल के साए को आँखों पर खींच लेने का ज़िक्र है, गर्मियों की रातों में छत पर ठंडी सफ़ेद चादरों पर देर रात जागने की, तारों को देखने की बात है। फ़िल्म ‘दिल से’ में गुलज़ार ने ‘सत-रंगी रे’ में ग़ालिब का पूरा शे’र तख़ल्लुस समेत शामिल कर लिया। ये भी उस अज़ीम शायर को श्रद्धांजलि ही थी।
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने
ढूंडते जाएँ तो न जाने ऐसे कितने ही फ़िल्मी गाने याद आते जाऐंगे। लेकिन अल्लामा इक़बाल की मशहूर नज़्म ‘तराना-ए-हिन्दी’ यानी ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा’ का फ़िल्मों में सफ़र बहुत दिलचस्प है। 1959 में बनी फ़िल्म ‘भाई बहन’ में सारे जहाँ से अच्छा’ को नया रूप दिया था राजा मेह्दी अली ख़ान ने। उन्होने इस में कुछ नए देश-भक्ति के शे’र शामिल किए थे, गाँधी जी को श्रद्धांजलि पेश की थी। लेकिन 1958 में रिलीज़ हुई फ़िल्म ’फिर सुब्ह होगी‘ में साहिर लुधियानवी ने तो इस तराने को जिस sarcastic अंदाज़ में बदला इसका जवाब नहीं। उनके इस फ़िल्मी गीत की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं। क़िस्सा यूँ है कि अल्लामा इक़बाल ने सन 1905 में नज़्म ‘तराना-ए-हिन्दी’ लिखी जो पूरी देश प्रेम में डूबी हुई थी और आज भी हिन्दुस्तान की महबूब नज़्म है। इस के कुछ बरसों बाद उन्हों ने नज़्म ’तराना-ए-मिल्ली’ लिखी जिसका आधार सारी दुनिया के मुस्लमान थे।
चीन-ओ-अरब हमारा हिन्दोस्तान हमारा
मुस्लिम हैं हम-वतन हैं सारा जहाँ हमारा
उनके इस शे’र पर उस वक़्त के मशहूर पत्रकार और शायर मजीद लाहौरी ने पैरोडी लिखी थी:
चीन-ओ-अरब हमारा हिन्दोस्ताँ हमारा
रहने को घर नहीं है सारा जहाँ हमारा
साहिर ने फ़िल्म ’फिर सुब्ह होगी’ के लिए इक़बाल के तराना-ए-हिन्दी, तराना-ए-मिल्ली और मजीद लाहौरी की पैरोडी की बहर और ज़मीन में ऐसा गाना लिखा जिसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है। साहिर के इस गीत को जिस तरह राज कपूर पर फ़िल्माया गया था वो भी यादगार सीन है। साहिर ने लिखा था:
चीन-ओ-अरब हमारा, हिन्दोस्ताँ हमारा
रहने को घर नहीं है सारा जहाँ हमारा
हिन्दोस्ताँ हमारा
खोली भी छिन गई है बेंचें भी छिन गई हैं
सड़कों पे घूमता है अब कारवाँ हमारा
जेबें हैं अपनी ख़ाली क्यों देता हमको गाली
‘वो संतरी हमारा वो पासबाँ हमारा’
ता’लीम है अधूरी मिलती नहीं मजूरी
’मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहाँ हमारा‘
इक़बाल के ‘तराना-ए-हिन्दी’ के दो शे’र देखें कि साहिर ने किस तरह उन पर गिरह लगाई है।
पर्बत वो सब से ऊँचा हम-साया आसमाँ का
ये संतरी हमारा ये पासबाँ हमारा
‘इक़बाल’ कोई महरम अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहाँ हमारा
साहिर का ये गीत पैरोडी नहीं है, कोई हँसने हंसाने वाली कविता नहीं है, एक कड़वी सच्चाई है जो आज भी उतनी ही relevant है जितनी 1958 में थी।
लेकिन अब जबकि साहित्य और कला के दाम लगते हैं, कॉपीराइट की बात होती है तो अदब और शायरी की ये रिवायत मुश्किल में पड़ जाती है।
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