उर्दू शायरी में शहरों की कहानी
वैसे तो हर शख़्स को अपनी जा-ए-पैदाइश या वतन से मुहब्ब्बत होती ही है और वक़्तन फ़-वक़तन वो उसकी ज़ुबान से ज़ाहिर हो ही जाती है, लेकिन जब मुहब्बत करने वाला शख़्स शेरो अदब से ताल्लुक़ रखता हो तब क्या ही कहने। अलग़रज़ जहाँ जहाँ उर्दू पनपी और परवान चढ़ी उन अक्सर जगहों का नाम शायरी में हमें देखने को मिल जाता है, चाहे वो पीलीभीत जैसा छोटा शहर हो या मीर-ओ-ग़ालिब की दिल्ली, अब आप कहेंगे कि साहब मीर-ओ-ग़ालिब की ही दिल्ली क्यों? मोमिन-ओ-ज़ौक़ की दिल्ली क्यों नहीं? जी बिलकुल दिल्ली तो सभी की है लेकिन ये आम तौर पे एक जुमला है जो इसी तरह मशहूर हो गया और हो भी क्यों ना? ये मैं नहीं हमारे बुज़ुर्ग कैफ़ भोपाली साहब लिखते हैं:
जनाब-ए-‘कैफ़’ ये दिल्ली है ‘मीर’ ओ ‘ग़ालिब’ की
यहाँ किसी की तरफ़-दारियाँ नहीं चलतीं
उर्दू अदब में जितना दिल्ली के बारे में लिखा गया, उतना किसी और शहर के बारे में शायद नहीं लिखा गया जबकि ऐसा नहीं है कि उर्दू की क़द्र दिल्ली में ही ज़्यादा थी। जैसा कि मलकुश्शोअरा शेख़ इब्राहीम ज़ौक़, जो कि ज़हीर देहलवी और बहादुर शाह ज़फ़र के उस्ताद हैं अपने शेर में दक्कन का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं:
इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाए ‘ज़ौक़’ पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर
जब ज़िक्र शहरों का आये और जौन एलिया के शहर अमरोहे का ज़िक्र न हो ये कैसे मुमकिन है, जौन असग़र का हिंदुस्तान क्या छूटा उनकी ज़िन्दगी का एक हिस्सा उनसे अलग हो गया और उस हिस्से में ग़ालिब शय अमरोहा शहर है जिसको और वहां की ‘बान’ नदी को वो हमेशा याद करते रहे और कहा,
इस समन्दर पे तश्ना-काम हूँ मैं
बान! तुम अब भी बह रही हो क्या?
शहर वहाँ के बाशिंदे के लिए वतन की तरह ही होता है, दिल्ली का कोई शख़्स अगर लखनऊ भी जाता है तो उसे वहाँ भी चैन नहीं आएगा क्योंकि उसका वतन दिल्ली है, ऐसे ही जोश मलीहाबादी जब मलीहाबाद छोड़ कर दकन गए तो उनका कर्ब उनकी नज़्म “अलविदा” में झलकता है जिसके कुछ मिसरे यूँ हैं,
ऐ मलीहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा
अलविदा ऐ सरज़मीन-ए-सुब्ह-ए-खंदाँ अलविदा
तेरे दर से एक ज़िन्दा लाश उठ जाने को है
आ गले मिल लें कि आवाज़-ए-जरस आने को है
आ गले मिल लें ख़ुदा हाफ़िज़ गुलिस्तान-ए-वतन
ऐ अमानी गंज के मैदान ऐ जान-ए-वतन
हश्र तक रहने न देना तुम दकन की ख़ाक में
दफ़्न करना अपने शायर को वतन की ख़ाक में
और ऐसा नहीं हुआ कि हमेशा किसी शहर की जुदाई या मुहब्बत में ही लिखा गया हो, कभी ऐसा भी हुआ कि किसी ख़ास वाक़िये को रक़म करने की शक्ल में ज़िक्र हुआ या किसी शहर से जुड़ी किसी ख़ास बात को बयान करने की सूरत भी शेर की शक्ल में उभर कर आयी। मिसाल के तौर पर, एक मर्तबा अकबर इलाहाबादी साहब, जो कि दो टूक बात मज़ाहिया तौर पे कहने के लिए मशहूर हैं उन्होंने आम की एक टोकरी इलाहाबाद (मौजूदा प्रयागराज) से लाहौर पार्सल की जब आमों के सही सलामत पहुंचने की ख़बर अल्लामा से उन्हें मिली तो उन्हें हैरत हुई उसके बाद जो हुआ वो आप इन दो मिसरों में पढ़ सकते हैं:
असर ये तेरे अन्फ़ास-ए-मसीहाई का है ‘अकबर’
इलाहाबाद से लंगड़ा चला लाहौर तक पहुँचा
यहाँ कितनी ख़ूबसूरती से आमों की एक क़िस्म ‘लंगड़ा’ का ज़िक्र किया गया है और आम की नाज़ुकी की वजह से उसके पहुंचने में आने वाली दुश्वारी को किसी माज़ूर के चलने में आने वाली परेशानी के तौर पे बताया गया है। ख़ैर हमारी तवज्जो शहरों की तरफ़ है। एक और शहर है, शहर-ए-बरेली जिस का सुरमा बिकना और झुमका गिरना दोनों ही मशहूर हैं और इसी बात को आज के नौजवान शायर आशु मिश्रा साहब बड़े ख़ूबसूरत अंदाज़ में बयान करते हुए नज़र आते हैं:
तुम्हारा दिल यहाँ पर खो गया तो कैसी हैरत है
बरेली में तो झुमके तक निकल जाते हैं कानों से
ऐसे ही कई शहर हैं जिनके बारे में लिखने वालों ने लिखा और पढ़ने वालों ने पढ़ा। उन में से कुछ जो मेरी नज़र से गुज़रे, मैं नीचे लिख रहा हूँ,
दिल्ली में आज भीक भी मिलती नहीं उन्हें
मीर तक़ी मीर
था कल तलक दिमाग़ जिन्हें ताज-ओ-तख़्त का
ऐ ‘मुसहफ़ी’ तू इनसे मोहब्बत न कीजियो
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ज़ालिम ग़ज़ब ही होती हैं ये दिल्ली वालियाँ
अर्ज़-ए-दकन में जान तो दिल्ली में दिल बनी
गणेश बिहारी तर्ज़
और शहर-ए-लखनऊ में हिना बन गई ग़ज़ल
लोग भोपाल की तारीफ़ किया करते हैं
कामिल बहज़ादी
इस नगर में तो तिरे घर के सिवा कुछ भी नहीं
रामपुर ऐ मिरे तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के दयार
होश नोमानी रामपुरी
हो मुबारक तुझे उर्दू का दबिस्ताँ होना
हम दिल्ली भी हो आए हैं लाहौर भी घूमे
बशीर बद्र
ऐ यार मगर तेरी गली तेरी गली है
उससे मिलने की कोई सूरत निकलती ही न थी
फ़रहत एहसास
और तभी दिल के अलीगढ़ की नुमाइश आ गई
शद्दाद ज़र लगा न बनाता बहिश्त को
गर जानता कि होवेगा आबाद आगरा
अब तो ज़रा सा गाँव है बेटी न दे इसे
नज़ीर अकबराबादी
लगता था वर्ना चीन का दामाद आगरा
शफ़क़ से हैं दर-ओ-दीवार ज़र्द शाम-ओ-सहर
मीर तक़ी मीर
हुआ है लखनऊ इस रहगुज़र में पीलीभीत
मुझे नहीं लगता कि मैं सब शहरों के साथ इंसाफ़ कर पाया हूँ, क्योंकि हमारे यहाँ शहरों के नामों की एक लम्बी सी फ़ेहरिस्त है, उन सबके ताल्लुक़ से अश’आर लिख पाना ग़ैर मुमकिन सी बात है! आप थक जाएंगे हम थक जायेंगे लेकिन अगर कोई शय नहीं थकेगी तो हमारे लिखने वालों का क़लम! जिस को ता-अबद लिखते रहना है।
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