हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे…
विकास गुप्ता
सय्यद अ’ब्दुल वली ‘उ’ज़लत’ सूरती का शुमार उर्दू के क़दीम मुम्ताज़ शोअ’रा में होता है। तमाम तज़्किरा-नवीसों और शा’इरों ने ‘उ’ज़लत’ के इ’ल्म-ओ-दानिश को तस्लीम किया है। निहायत नेक-सीरत आ’लिम-ओ-दरवेश थे। हिन्दी, उर्दू और फ़ारसी तीनों ज़बानों में शे’र कहते थे। हिन्दी में ‘निर्गुन’ तख़ल्लुस करते थे।
1692 में सूरत में पैदा हुए। आप के वालिद सय्यद सा’दउल्लाह सूरती (वफ़ात 22 दिसम्बर 1725, सूरत) दरवेश-ए-कामिल और ज़ी-इ’ल्म बुज़ुर्ग थे जिनसे औरंगज़ेब आ’लमगीर को ख़ास अ’क़ीदत थी। ‘उ’ज़लत’ की नश्व-ओ-नुमा और ता’लीम-ओ-तर्बियत वालिद के ही ज़ेर-ए-साया हुई । अ’हद-ए-‘उ’ज़लत’ का सूरत आ’लिमों, सूफ़ियों, ख़ानक़ाहों, मदरसों के नूर से मा’मूर था। ‘उ’ज़लत’ भी इसी तसव्वुफ़ी, इ’ल्मी और अदबी माहौल के तर्बियत याफ़्ता थे।
1725 में वालिद का इंतिक़ाल हो गया। इस से ‘उ’ज़लत’ को बड़ा सदमा हुआ। वालिद के इंतिक़ाल के बा’द वो एक अ’रसे तक सूरत ही में रहे। 1744 के आस पास औरंगाबाद दकन का रुख़ किया और नवाब आसिफ़ जाह निज़ाम-उल-मुल्क (वफ़ात 21 मई 1748, बुरहानपुर) के मुसाहिबत में रहे । औरंगाबाद उस वक़्त इ’ल्म-ओ-अदब का अ’ज़ीम मरकज़ था । ‘आज़ाद’ बिलग्रामी, ‘सिराज’ औरंगाबादी, ख़्वाजा ख़ाँ ‘हमीद’ औरंगाबादी, असद अ’ली ख़ाँ ‘तमन्ना’ औरंगाबादी जैसे लोग मौजूद थे, जिन से ‘उ’ज़लत’ के मुख़्लिसाना मरासिम थे।
‘उ’ज़लत’ 1750 में दिल्ली चले गए और कुछ साल वहाँ रहे। वहाँ सिराजुद्दीन अ’ली ख़ान ‘आरज़ू’, मीर तक़ी ‘मीर’, मोहम्मद क़यामुद्दीन ‘क़ाएम’ चाँदपुरी और दूसरे शोअ’रा ने भी उन की शाइ’राना अ’ज़्मत का ए’तिराफ़ किया । ख़ुदा-ए-सुख़न मीर तक़ी ‘मीर’ जो बड़े बड़ों को ख़ातिर में नहीं लाते थे, उनकी सुख़न-गोई के मद्दाह थे, अपने तज़्किरा ‘निकात-उश-शो’अरा’ में ‘उ’ज़लत’ को ‘ख़ूबियों और कमालात का मजमूआ’ कहा है।
हर सुख़न को फ़ख़्र है ‘उ’ज़लत’ तवज्जोह से मिरी
हूँ इमाम-ए-वक़्त दिल्ली के सुख़न-दानों के बीच
‘मीर’ का ये भी बयान है कि ‘निकात-उश-शो’अरा’ लिखते वक़्त दकन के शो’अरा के हालात के लिए उन्होंने ‘उ’ज़लत’ ही की बयाज़ से फ़ाइदा उठाया था।
सियासी अफ़रा-तफ़री की वजह से ‘उ’ज़लत’ दिल्ली से मुर्शिदाबाद चले गए । ये नवाब अ’ली वर्दी ख़ाँ का ज़माना था। उन्होंने उनकी क़द्र की और लुत्फ़-ओ-करम से पेश आए। ‘उ’ज़लत’ एक मुद्दत तक उन के दामन से वाबस्ता रहे । 1755 में नवाब का इंतिक़ाल हो गया तो ‘उ’ज़लत’ मुर्शिदाबाद से हैदराबाद चले गए। हैदराबाद में नवाब अमीर-उल-मुमालिक सय्यद मुहम्मद ख़ाँ बिन आसिफ़ जाह ने भी उनके ए’ज़ाज़ व क़द्र-दानी में सब्क़त की और गुज़र बसर के लिए एक गाँव इ’नायत किया।
उ’म्र के आख़िरी 20 साल हैदराबाद दकन में गुज़ारे, 4 अगस्त 1775 को यहीं वफ़ात पाई और यहीं की ख़ाक का पैवन्द हुए ।
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