Baat Se Baat Chale Abhishek Shukla Ke Saath

बात से बात चले: अभिषेक शुक्ला के साथ एक अदबी गुफ़्तगू

विकास शर्मा राज़ : शुरुआत एक रिवायती लेकिन बुनियादी सवाल से करते हैं ।आपकी शा’इरी की शुरुआत कैसे हुई ?

अभिषेक शुक्ला: यह सन् 2004 की बात है विकास भाई.. यहाँ लखनऊ में एक डिबेट कंपटीशन हुआ करता था,मैंने भी उसमें हिस्सा लिया और मुझे उसमें पहला ईनाम भी मिला मगर मुश्किल यह थी कि ईनाम से ठीक पहले एक मुशायरा रखा गया था और हमारी मजबूरी ये थी कि अगर हमें ईनाम लेना है तो पहले वह मुशायरा अटेंड करना होगा.. उस मुशायरे में मैंने लखनऊ के तमाम अच्छे शोअरा को सुना। मुशाइरे में नीरज जी भी थे। मेरे बेहद क़रीबी और बेहद अज़ीज़ डॉक्टर निर्मल दर्शन जो अब हमारे बीच नहीं हैं,उनसे भी पहली मुलाक़ात वहीं हुई थी,बेकराँ आलमी साहब से भी,जो डॉक्टर निर्मल दर्शन के वालिद और बेहद ख़ूबसूरत लब ओ लहजे के शा’इर थे,उनसे भी पहली बार वहीं मिलना हुआ था। वहीं पहली बार मुझे एहसास हुआ कि यही वो सिन्फ़ है जिसमें मैं अपनी बात कहना चाहता हूँ..या’नी ग़ज़ल। उसके बाद लफ़्ज़ों पे लफ़्ज़ रखने का एक सिलसिला शुरू हुआ जो सन 2008 के आख़िर तक यूँही चलता रहा। फिर मुझे एहसास हुआ कि बग़ैर अरूज़ या’नी छंदशास्त्र की जानकारी के ग़ज़ल कहना वैसा ही है जैसे आप अँधेरे में तीर चला रहे हों। मैंने डॉक्टर निर्मल दर्शन से गुज़ारिश की कि मुझे किसी ऐसे शख़्स से मिलवाएँ जो मेरी ग़ज़लें दुरुस्त कर सके। उन्होंने उस वक़्त मे’राज फ़ैज़ाबादी साहब का ज़िक्र किया और साथ ही एक और शख़्स का भी, जिनका नाम लेना मैं फ़िलहाल मुनासिब नहीं समझता। यह और बात है कि उन्होंने मुझे कुछ चार या पाँच मिसरे दिए जिन पर मैंने ग़ज़लें कहीं लेकिन उनसे मेरा मिज़ाज बिल्कुल मुख़्तलिफ़ था सो कुछ वक़्त बा’द मैंने उनसे किनारा कर लिया और उसके बाद किताबें मेरी दोस्त हुईं, कई अच्छे साथी जो मेरे आस-पास भी थे और दिल्ली में भी,उनको देख कर,पढ़ कर, मैंने अपना सफ़र शुरू किया। 2008 से 2011 के बीच मैंने शायद कुल पाँच या छह ग़ज़लें ही कही हैं मगर 2011 की शुरुआत से एक सिलसिला है जो फ़िल्हाल अब तक है और आप सबके सामने है।

विकास शर्मा राज़ : अपने विद्यार्थी-जीवन के बारे में कुछ बताइए ।

अभिषेक शुक्ला: विकास भाई एक स्टूडेंट की हैसियत से भरपूर और बेहद मज़ेदार ज़िन्दगी गुज़ारी है मैंने।शुरुआती तालीम तो सरस्वती शिशु मंदिर ग़ाज़ीपुर ही में हुई थी, जहाँ मैं पैदा हुआ था फिर पापा का ट्रांसफ़र लखनऊ हो गया और आगे की या’नी छठी क्लास से पोस्ट ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई यहीं लखनऊ में हुई। इन सालों में एक साल ऐसा भी रहा जिसे नफ़ा नुक़सान के पैमानों पर देखें तो यूँ कह सकते हैं कि मैं फ़ेल हुआ, मगर उस साल मेरा फ़ेल होना ज़रूरी था..उस एक साल की बड़ी क़द्र है मुझे.. उस एक साल ने मुझे बदल कर रख दिया और जब अगले स्कूल में मेरा दाख़िला हुआ तो मैंने क़सम खा ली कि कुछ हो जाये अब झूट नहीं बोलूँगा.. इस क़सम के चलते पहली बार स्कूल से ग़ैर हाज़िर रहने पर जो ऍप्लिकेशन मैंने लिखी और जिसे मेरा एक जिगरी दोस्त प्रिंसिपल को देने ले गया था,ख़ासी दिलचस्प थी,उसका एक एक लफ़्ज़ हक़ीक़त की आँच में पगा हुआ था “मैम..मुझे कुछ नहीं हुआ..स्कूल आने का बिल्कुल मन नहीं करता,जैसे आत्मा पर कोई भारी बोझ हो..इसके उतरते ही आना शुरू कर दूँगा.. आपका..” विकास भाई.. वोल शोयिन्का जो नाइजीरिया के महान लेखक हुए हैं,उनकी एक किताब है “एके: द इयर्स ऑफ़ माई चाइल्डहुड” वोल की तरह उनकी किताब भी कमाल है जिसमें उन्होंने अपने बचपन को याद किया है,मुझे भी लगता है कि मेरे पास अपने बचपन और स्टूडेंट लाइफ़ की ऐसी तमाम बातें और तमाम यादें हैं जिन्हें लिखना बेहद दिलचस्प होगा। देखिये कब मुम्किन हो पाता है।

विकास शर्मा राज़ : आप लखनऊ से हैं और लखनऊ एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का शहर है । इस शहर पर बहुत कुछ लिखा गया है । आप लखनऊ को किस तरह देखते हैं और लखनऊ का आपके अदबी सफ़र पर क्या प्रभाव रहा ?

अभिषेक शुक्ला: विकास भाई ये तो सच है कि लखनऊ वो शह्र है जिस पर बहुत कुछ लिखा गया है और आगे भी लिखा जाता रहेगा कि ये शह्र इसका मुस्तहक़ है। मेरा मानना है कि अगर आप किसी ऐसे शह्र से हैं जिसकी अपनी एक शानदार तारीख़ हो,जहाँ ऐसे बहुत से लोग रहे हों जिनकी अदबी ख़िदमात और समाज के लिए किये गए काम अपनी मिसाल आप हों तो आपके शऊर के बेदार होने में ये सब बातें असरअंदाज़ होती ही हैं और अगर नहीं होतीं तो आप गुलदान में सजा हुआ फूल तो हो सकते हैं, मिट्टी से ज़िन्दगी कशीद करने वाला तनावर दरख़्त नहीं। शाइरी से भी पहले शाइरी के लिए ज़ेहन तैयार होता है और ज़ेहन की तैयारी में लखनऊ जैसा शह्र जिसे न सिर्फ़ उर्दू बल्कि हिंदी और अवधी की भी शानदार रवायत का गहवारा कहा जा सकता है,आप समझ सकते हैं कि क्या किरदार अदा कर सकता है। मुझे जितने अज़ीज़ यगाना और आरज़ू हैं, उतने ही अज़ीज़ अमृतलाल नागर और यशपाल भी,पढ़ीस और वंशीधर शुक्ल भी..ज़मीन के किसी भी टुकड़े की एक अहम शिनाख़्त उसके लोग भी होते हैं,ये लोग मेरे शह्र की शिनाख़्त हैं।इनके ज़िक्र और तसव्वुर के बग़ैर मैं क्या और मेरी शाइरी क्या।

विकास शर्मा राज़ : शा’इरी में क्राफ़्ट और कैफ़ियत की भूमिका पर आपकी क्या राय है ?

अभिषेक शुक्ला: विकास भाई शाइरी में क्राफ़्ट और कैफ़ियत दोनों का अपना अपना किरदार है। मैं उनमें से हूँ जो दोनों को बराबर तवज्जो देता है। हालाँकि कुछ लोग यह मानते हैं कि ग़ज़ल की शाइरी में क्या कहा जा रहा है से कहीं ज़ियादः इंपोर्टेंट ये है कि कैसे कहा जा रहा है? उनकी ये बात एक हद तक ठीक भी मालूम देती है मगर क्राफ़्ट हमेशा शाइरी में तासीर पैदा नहीं कर सकता (हालाँकि ऐसा भी मुमकिन है।)और जब तक शायरी में तासीर नहीं है वह इंसानी ज़िन्दगी पर असरअंदाज नहीं हो सकती। कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि उसका इंसानी ज़िन्दगी पर असरअंदाज होना भी क्योंकर ज़रूरी है भला? तो मेरा यह मानना है कि वह कोई भी चीज़ जो आपके इज़हार से वाबस्ता है अगर इंसानी ज़ेहन ओ दिल पर असरअंदाज नहीं होती तो अपना मतलब खो देती है। शायरी मेरे ना नज़दीक एक तरह का इज़हार ही है, इज़हार कैसे किया जाए कि वह प्यारा लगे ख़ूबसूरत लगे, इस पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है मगर बहुत ख़ुश्क इज़हार, तासीर से आरी इज़हार किसी काम का नहीं होता सो होना तो यही चाहिए कि शाइर अपनी ज़बान और अपने बयान दोनों पर बराबर मेहनत करता रहे और क्राफ़्ट के साथ कैफ़ियत का दामन भी बराबर थामे रहे।

विकास शर्मा राज़ : वे कौन-से शा’इर हैं जिन्हें पढ़कर आप बहुत प्रभावित हुए ?

अभिषेक शुक्ला: मेरे साथ होता तो ये था विकास भाई कि शुरुआत में मैं तक़रीबन हर अच्छे शा’इर से मुतास्सिर होता था,फिर किसी किसी से..फिर यूँ हुआ कि जिनसे हुआ भी..कुछ रोज़ बाद उनका असर जाता रहा। अब मैं ये देख पाता हूँ कि ये एक बेहद नार्मल प्रोसेस है।बात है तो सिर्फ़ इसकी कि ज़ेहन में बाक़ी कौन रहा और कितना रहा तो मीर ओ ग़ालिब जैसे असातेज़ा तो ख़ैर हैं ही, इनका कलाम किसे न अपनी गिरफ़्त में ले ले, पिछले वक़्तों में अगर देखें तो मुझे अख़्तर उल ईमान,राशिद,और अमजद,नासिर काज़मी,जोश की रुबाइयात,फ़िराक़,ग़ुलाम मुहम्मद क़ासिर,बानी,ज़ेब ग़ौरी, इरफ़ान सिद्दीक़ी और रईस फ़रोग़ बहुत पसंद हैं। नाम और भी हैं,बल्कि इतने हैं कि उनका हक़ अदा करना मुश्किल है कि मुझे किसी के यहाँ कुछ तो किसी के यहाँ कुछ मिलता है, फ़िल्हाल हिंदुस्तान में फ़रहत एहसास साहब और शारिक़ साहब,पाकिस्तान में इफ़्तिख़ार आरिफ़ साहब,ज़फ़र इक़बाल साहब,अहमद मुश्ताक़ साहब, अफ़ज़ाल अहमद सय्यद साहब ,अख़्तर उस्मान साहब और सरमद सहबाई साहब पसंदीदा हैं।साक़ी फ़ारूक़ी भी बहुत पसंद रहे हैं।आपने चूँकि प्रभावित होने की बात की है तो पंडित आजिज़ मातवी और फ़रहत एहसास साहब का नाम लेने दीजिए मुझे।आजिज़ साहब ज़बान और इल्म ए अरूज़ का बेबहा ख़ज़ाना थे तो फ़रहत साहब मेरी नज़र में उर्दू के सबसे बड़े ग़ज़ल गो हैं इस वक़्त,उनसे मैं ही क्या शे’र कहने वालों की एक पूरी नस्ल है जो मुतास्सिर है।

विकास शर्मा राज़ : अभी जनवरी में आपका पहला शे’री मजमूआ ‘हर्फ़-ए-आवारा’ आया है जिसे ख़ासी मक़बूलियत हासिल हुई है । किताब का यह उन्वान आपके ज़ेहन में कैसे आया ?

अभिषेक शुक्ला: विकास भाई मैंने अपनी किताब का नाम ख़ुद रखा ही नहीं है।यह नाम तो बिरादर ए अज़ीज़ हिमाँशु बाजपेयी का रखा हुआ है और मुझसे ये हक़ छीनते हुए बड़ी अजीब ओ ग़रीब बात उन्होंने कही कि अभिषेक भाई यह पहला बच्चा है आपका.. इसका नाम मैं रक्खूँगा, दूसरा हो तो आप रख लीजिएगा। अब जब आपका सबसे क़रीबी दोस्त ही ऐसी बहकी बहकी बात करे तो आपको सरेंडर करना पड़ता है,फिर दोस्त भी हिमाँशु जैसा..सो किताब का नाम रखने के इस वाक़ये को यूँ समझ लें कि किताब तो मेरी है लेकिन किताब का नाम किताब के चचा का रखा हुआ है।

विकास शर्मा राज़ : आपने किताब में ज़िक्र किया है कि आजिज़ मातवी साहब के इल्म ने मुझे बोलना सिखाया । आजिज़ साहब से आप पहली बार कब मिले और फिर क्या मुलाक़ातें रहीं,इस पर हमें कुछ बताइए ।

अभिषेक शुक्ला: आजिज़ साहब से मेरी पहली मुलाक़ात लखनऊ महोत्सव के युवा मुशायरे में हुई थी जहाँ मैं अपना “नामौज़ून” कलाम पढ़ने के लिए पहुँचा था। ज़ाहिर है सीखने की प्रक्रिया में ये सब होता ही है।वहाँ मेरे सामने डॉक्टर निर्मल दर्शन और आजिज़ साहब बैठे हुए थे, डॉक्टर निर्मल दर्शन ने कहा कि अभिषेक ख़ुशनसीब हो तुम के पंडित जी के सामने अपने शे’र पढ़ रहे हो मैं यह तो समझ गया कि पंडित जी कोई बड़ी शख़्सियत हैं मगर वह इतनी बड़ी शख़्सियत हैं यह उनके साथ रहकर धीरे धीरे मुझ पर खुला। मैंने बहुत हिम्मत करके एक रोज़ उनका मोबाइल नंबर लिया और फ़ोन करके कहा कि आपसे मिलना चाहता हूँ। वह लखनऊ से, जहाँ मेरा घर है,वहाँ से कोई 30 किलोमीटर दूर रहा करते थे, उन्होंने मुझसे कहा कि तुम इतनी दूर कहाँ आओगे बेटा, अपना पता दो मैं तुम्हारे पास आता हूँ। मैं उनके इस बर्ताव से हैरान रह गया लेकिन यह हैरत मज़ीद बढ़नी ही थी कि उनकी शख़्सियत में इतना कुछ था कि कोई सीखने वाला हैरान होने के सिवा कर भी क्या सकता था! वो घर आये, उनसे मुलाक़ात हुई। फिर तो उनसे मुलाक़ातों का एक लंबा सिलसिला रहा। मेरी जो भी दिलचस्पी है ज़बान में,अरुज़ की मेरी जितनी भी समझ है वह सब उनकी दी हुई है, उन्होंने ही मुझे अरूज़ की किताबें पढ़ने के लिए कहा और यह हौसला पैदा किया मुझ में कि मैं उसे सीख सकता हूँ। वो अक्सर कहा करते थे कि बड़ा आदमी वही है जिसके साथ बैठकर आप छोटा महसूस न करें और वो इसकी सबसे बड़ी मिसाल आप थे।उन पर बातें करने बैठा तो इस इंटरव्यू में और कुछ हो ना पाएगा कि उनसे जो मेरी अक़ीदत है वह बयान से बाहर की शै है।ये ज़रूर है कि मैं आज जो भी हूँ, जैसा भी हूँ उसमें अगर किसी शख़्स का सबसे बड़ा हाथ है तो वह पंडित आजिज़ मातवी का है। वो न होते तो बहुत मुम्किन है कि मैं भी न होता।

विकास शर्मा राज़ : शा’इर अपनी शैली से पहचाना जाता है । लेकिन क्या यही पहचान उसके लिए मुश्किल खड़ी नहीं करती या’नी अगर वो उससे हटकर शे’र कहता है तो उस यह ख़दशा भी लगा रहता है कि कहीं उसे अस्वीकार न कर दिया जाए । आपकी इस बारे में क्या राय है ?

अभिषेक शुक्ला: विकास भाई बुनियादी सवाल यह है कि शाइर शे’र कहता किसके लिए है?अगर वह सिर्फ़ अपने लिए या अपनी शुहरत के लिए शे’र कहता है तो उसकी जो शैली बन गई है वह बेशक उससे बाहर न निकले लेकिन अगर उसका कमिटमेंट उस सिन्फ़ की तरफ़ ज़ियादः है जिसमें वह काम कर रहा है जैसे ग़ज़ल, तो उसे इसके साथ तमाम एक्सपेरिमेंट्स करने के लिए तैयार रहना चाहिए बग़ैर इसकी फ़िक्र के कि उसे क़ुबूल किया भी जाएगा या नहीं।अमर गोपाल बोस का ज़िक्र यहाँ ज़रूरी हो जाता है जो बोस कंपनी के फ़ाउंडर थे।उन्होंने यह बात कही थी अपने एक इंटरव्यू में कि “इफ़ यू वांट टू डू समथिंग बेटर यू हैव टू डू इट डिफ़रेंटली।”ये बहुत बुनियादी मगर कमाल की बात है और इसे तमाम शे’र कहने वालों को समझना पड़ेगा। अपनी शाइरी में अपना जो तर्ज़ ए इज़हार है उसमें लगातार बदलाव लाए बगैर हम अपने मीडियम को बेहतर नहीं कर सकते।पीटी हुई लकीर, पामाल रास्तों का सफ़र हमें कहीं नहीं ले जाता। यह रिस्क हर उस शाइर को उठाना पड़ेगा जिसका कमिटमेंट अपने फ़ार्म, अपनी सिन्फ़ की तरफ़ अपनी शुहरत से कहीं ज़ियादः है और मुझे ख़ुशी है कि ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो ग़ज़ल मैं एक्सपेंशन को लेकर लगातार फ़िक्रमंद हैं और लगातार कोशिशें कर रहे हैं।

विकास शर्मा राज़ : आप गद्य भी लिखते हैं और उसमें ग़ज़ब का चुटीलापन रहता है, तो क्या हम ये उम्मीद करें कि जल्द ही हमें आपकी नस्र की किताब भी पढ़ने को मिलेगी ? साथ ही इससे जुड़ा एक सवाल ये भी कि आपके गद्य में जो खिलंदड़ापन है वो शा’इरी में क्यों नहीं है ?

अभिषेक शुक्ला: इस सवाल को आप यूँ भी पूछ सकते थे कि आपकी शाइरी में जो संजीदगी है वह आपकी नस्र में क्यों नहीं नज़र आती। दरअस्ल ये सारा खेल कैफ़ियत का है। शे’र कहते वक़्त मेरी कैफ़ियत नस्र लिखते वक़्त की कैफ़ियत से अमूमन मुख़्तलिफ़ होती है और यह कोई बहुत सोचा समझा तरीका नहीं है बस ऐसा होता है।ये कहना बेहतर होगा कि अब मैं समझने लगा हूँ कि जो चुटीलापन और खिलंदड़पन है मेरी नस्र में है, जिसका ज़िक्र आप कर रहे हैं इसे शाइरी में भी लाया जा सकता है और शाइरी की संजीदगी को किसी हद तक नस्र में भी। दरअस्ल मेरा ये मानना है कि आपको लगातार अपने काम के साथ एक्सपेरिमेंट्स करते रहना चाहिए।अपने इम्कानात की ख़बर कई बार इन एक्सपेरिमेंट से गुज़रने के बाद ही होती है। अगर आप किसी नुक़्ते पर ठहर गए और आपने यह इत्मीनान कर लिया कि यही दायरा मेरी दुनिया है तो कोई बड़ा बदलाव या बेहतर बदलाव मुमकिन न हो पाएगा। मैं, जहाँ तक मेरा सवाल है, इन तमाम दायरों को लगातार चैलेंज करते रहना रहना चाहता हूँ.. वह चाहे मेरी शाइरी हो,नस्र हो या जिंदगी का कोई दूसरा शो’बा। मैं अपनी शाइरी से अपनी नस्र को जो भी फ़ायदा पहुँच सकता है, पहुँचाना चाहूँगा और इसका ठीक उल्टा भी।

विकास शर्मा राज़ : आप सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते हैं । सोशल मीडिया ने शा’इरी को किस प्रकार प्रभावित किया है ?

अभिषेक शुक्ला: इसमें कोई शक नहीं कि सोशल मीडिया ने शाइरी को बहुत प्रभावित किया है। अगर इसके नुक़्सानात देखें तो इसके नुक़्सानात में जो सबसे बड़ा नुक़्सान है वो ये है कि अमूमन यहाँ रद् ए अमल फ़ौरन मिल जाया करता है। शाइर को जो बात शायद तफ़सील से समझायी जानी चाहिए वह बहुत मुख़्तसर वाह-वाह के ज़रीये उस तक पहुंचाई जाती है,इसके बरक्स अगर उसे कोई चीज़ बताना भी हो कि इसे दुरुस्त किया जा सकता है या ऐसे बेहतर किया जा सकता है तो वह भी कई बार बहुत आधे अधूरे ढंग से उस तक पहुँचता है। आज से 12-14 साल पहले जब सोशल मीडिया का इस्तेमाल शुरू हुआ था ऑरकुट और उसके बाद फ़ेसबुक पर तो जो सबसे बड़ा फ़ायदा उसका था वो ये था कि हम बात कर पाते पाते थे भारत और पाकिस्तान के दूसरे शोअरा से,ये देख समझ पाते थे कि शाइरी उनकी तरफ़ कैसी हो रही है, अपने आपको लगातार बेहतर करने की कोशिश की जाती थी कि इतनी भीड़ नहीं थी तब,कम लोग थे और बात करने का,तवज्जो देने का वक़्त मिल जाया करता था। मगर अब सोशल मीडिया पर शे’र की इस्लाह का जो मरहला है वो या तो आता ही नहीं या आता है तो इतनी जल्दी पीछे छूट जाता है कि शाइर को ख़ुद पर या अपनी शाइरी के ऊपर जितने और जिस क्वालिटी वक़्त को ख़र्च करने की ज़रूरत होती है,वो उसे नहीं मिल पाता और अगर कभी मिल भी जाये तो एक तरह की जल्दबाज़ी के सबब कुछ बहुत बेहतर हो नहीं पाता।कुल मिलाकर बात वहीं आ जाती है किन लोगों के साथ उठते बैठते हैं आप और किन किन किताबों से फ़ैज़ उठाते हैं।मुझे लगता है कि सोशल मीडिया का बेहतर इस्तेमाल मुमकिन है लेकिन चूँकि इसी मीडियम ने हमें इंस्टेंट रिएक्शन का आदी भी बना दिया है,इसका बेहतर इस्तेमाल अब और चैलेंजिंग हो गया है हमारे लिए। हाँ ये बात भी अपनी जगह उतनी ही सही है कि इसका बेहतर इस्तेमाल करने वाले भी हैं मगर या तो उनकी तादाद कम है या दो मिसरों में लफ़्ज़ों के साथ ज़ियादती करने वालों की ज़ियादः।

विकास शर्मा राज़ : एक समय था जब हिंदी और उर्दू दोनों में कुछ ऐसी साहित्यिक पत्रिकाएँ थीं जिनमें छपना बड़ी बात मानी जाती थी । वर्तमान में
क्या स्थिति है ?

अभिषेक शुक्ला: विकास भाई इस वक़्त के रिसालों में भी कुछ बहुत अच्छे हैं। हिंदी में समास, प्रतिमान,तद्भव और ज्ञानोदय मेरे पसंदीदा रिसाले हैं जिनमें अक्सर बहुत कुछ काम का होता है,ये दरअस्ल हमारे मिज़ाज पर भी है कि कैसा कॉन्टेंट हम चाहते हैं। उर्दू में पाकिस्तान से निकलने वाले’आज’ और ‘दुनियाज़ाद’ बहुत पसंद रहे हैं,ख़ास तौर से आज के पुराने इशूज़ एक दोस्त ने दिये थे,बहुत पसंद आये थे। इस्तिफ़सार,इमरोज़ और तफ़हीम मेरी नज़रों से गुज़रे हैं,मुझे अच्छे लगे। सदानीरा और रचना समय का ज़िक्र भी ज़रूरी है कि दोनों रिसालों पर बहुत मेहनत की जाती है।बात आकर यहाँ ठहरती है कि इन्हें पढ़ने वाले कितने हैं?? उनकी तादाद कैसे बढ़ाई जाए और क्या सिर्फ़ और सिर्फ़ बेहतर कॉन्टेंट के दम पर आप मार्केट में रह सकते हैं?? इन सब सवालों को अदब के दायरों से कई बार बाहर जा कर हल करने की कोशिश की जानी चाहिए..मैंने जिन रिसालों का ज़िक्र ऊपर किया है,वो सभी मेरी नज़र में अच्छे हैं। तुलना मेरी नज़र में ठीक नहीं,हालात कैसे बेहतर हो सकते हैं?कैसे एक बेहतर समझ वाला क़ारी तैयार करना है,यहाँ के उर्दू रिसालों को इस पर थोड़ा और सोचना,थोड़ा और काम करना होगा।

विकास शर्मा राज़ : नई पीढ़ी ग़ज़ल की ओर जितना आकर्षित हुई है,उतना नज़्म की तरफ़ नहीं । आपके ख़याल से इसका क्या कारण हो सकता है ?

अभिषेक शुक्ला: मार्क्स ने कहा था कि यूनान की तारीख़ दुनिया की तारीख़ का ज़माना ए तिफ़ली है,सभी इसे पसंद करते हैं, सब को इस पर प्यार आना लाज़िम है।जाने क्यों मार्क्स का यह क़ौल मुझे तमाम अस्नाफ़ में ग़ज़ल के लिए बिल्कुल सच्चा मालूम देता है। आपकी ये बात अपनी जगह दुरुस्त है कि ग़ज़ल की ओर जिस तादाद में लोग आए,नज़्म की तरफ़ कम आये। पर्सनल चॉइस के अलावा इसकी तमाम वजहों में एक वज्ह जो मुझे समझ आती है वो ये है कि ग़ालिबन नयी नस्ल ग़ज़ल को मुशाइरे से जोड़ कर देखती है। यानी ग़ज़ल मुशाइरा पढ़ने के लिए आपको अहल बनाती है,नज़्म फ़िल्हाल (अब) मुशाइरे से बाहर की कोई शै है। नज़्म इंस्टेंट रिएक्शन के लिए ‘वैसी’ गुंजाइश नहीं रखती जैसी ग़ज़ल के पास है और फ़ौरन रद ए अमल अगर एक बार मिलने लगा,तो कई बार इस चकाचौंध से ख़ुद को बचाना मुश्किल होता है। फिर नज़्म आपके पेशेंस को टेस्ट भी करती है,उसकी मश्क़ भी है साथ ही इसकी ज़ेहनी तैयारी ग़ज़ल कहने की ज़ेहनी तैयारी फ़र्क़ होना लाज़िम है। मैंने ख़ुद अभी तक नज़्में नहीं कही हैं मगर अब मुझे लगता है कि नज़्में कहूँ। दुनिया भर की तमाम बेहतरीन नज़्मों का तर्जुमा पढ़ने के बाद मेरा ये ख़याल और पुख़्ता हो गया है कि इज़हार हमेशा साँचों का पाबंद नहीं हो सकता,नज़्म एक बेहद ज़रूरी सिन्फ़ है,बेहद ख़ूबसूरत सिन्फ़ है,ये कहना बेहतर होगा कि उसकी तरफ़ मैं अब आकर्षित हो रहा हूँ।

विकास शर्मा राज़ : आप बैंकर हैं और आपकी नौकरी आपसे बहुत अधिक व्यस्तता की माँग करती है । नौकरी के इस दबाव के दौरान कभी यह अनुभव हुआ है कि आपके अंदर के शा’इर पर ज़ुल्म हो रहा है ?

अभिषेक शुक्ला: विकास भाई पिछले तक़रीबन 4 साल मेरे लिए और मेरी शायरी के लिए बहुत मुश्किल रहे हैं। ख़ुद अपने लिए बहुत कम वक़्त मिल पाता था,परिवार और शाइरी के लिए तो और भी कम।दुश्वारियाँ रहीं लेकिन मैं समझता हूँ कि किसी भी आम शख़्स की जिंदगी में जो इतनी और ऐसी दुश्वारियाँ आती जाती रहती हैं,इन्हीं में उसे रास्ता बनाना पड़ता है। मेरी जिंदगी में भी है ऐसा ही है। फ़रहत साहब ने एक बार मुझसे एक बात कही थी जिससे मुझे बहुत हौसला मिलता है,वो बात ये थी कि जितनी मुश्किलें इस वक़्त हैं तुम्हारी जिंदगी में वह सब तुम्हारी एस्थेटिक एनर्जी में बदल जायेंगी। तो इसी उम्मीद पर मैंने अपने अंदर की आग को जलाए रखा और किसी ना किसी तरह अब तक अपनी नौकरी और शायरी के बीच तवाज़ुन बनाए रखा हुआ। मेरा सच तो यही है कि मेरा शायर और मेरा बैंकर दोनों एक दूसरे से बिल्कुल अलग दुनिया के लोग हैं बल्कि एक दूसरे से उलट कहना ज़ियादःठीक होगा और मेरी नज़र में यह किसी चैलेंज से कम नहीं कि इन दोनों दुनियाओं के बीच के फ़ासले की ख़बर होते हुए भी मैं इन्हें किसी हद तक क़रीब लाने की कोशिशों में लगा हुआ हूँ।

विकास शर्मा राज़ : आपको शे’र कहते हुए लगभग एक दशक हो गया है । वर्तमान में ग़ज़ल की स्थिति के बारे में आपकी क्या ख़याल है ?

अभिषेक शुक्ला: विकास भाई हिंदुस्तान में ग़ज़ल के लिए ये वक़्त बहुत अच्छा है।मैं मुतमइन हूँ कि धीरे धीरे ही सही मगर पिछले 10 सालों में हमारे पास संजीदगी से ग़ज़ल कहने वाले अच्छे शोअरा की एक फ़ेहरिस्त तैयार हो चुकी है जिसमें लगातार नए नाम जुड़ते जा रहे हैं। ज़ियादः ख़ुशी की बात ये है कि ये तमाम आशिक़ाने ग़ज़ल,ग़ज़ल की अंधी मुहब्बत में गिरफ़्तार नहीं हैं। इन्हें बराबर ये फ़िक्र है कि ग़ज़ल में और क्या नए तज्रबे किये जायें?? उन्हें पता है कि ज़बान की बेहतर समझ इसमें उनकी बड़ी मदद कर सकती है,उन्हें ये भी पता है कि पुराने असातेज़ा से कैसे इस्तेफ़ादा किया जाना अभी बाक़ी है और किसी भी नए तज्रबे से डरना नहीं है कि यही तज्रबे ग़ज़ल को मज़ीद वुसअत अता करेंगे। उन्हें ख़ूब मालूम है कि अच्छी ग़ज़ल कहने के लिए सिर्फ़ अच्छी ग़ज़लें पढ़ना ही ज़रूरी नहीं बल्कि दुनिया भर का तमाम अच्छा अदब,वो चाहे नस्र हो या नज़्म,उनके काम आएगा। ग़ज़ल की ख़ातिर सिर्फ़ ग़ज़ल पढ़ने लिखने पर ठहर जाना ग़ज़ल की फ़ज़ा में फ़िल्हाल जो हब्स है उसे किसी तरह कम नहीं करेगा बल्कि बढ़ायेगा ही। एक बार ये बात समझ आ जाये तो ये अच्छी ग़ज़ल कह लेने से भी आगे का मरहला है और मैं ख़ुश हूँ कि अपने तमाम साथी इसी मरहले पर दिखाई पड़ रहे हैं मुझे

विकास शर्मा राज़ : नए लिखने वाले आपको अपना आदर्श मानते हैं । आप उनसे क्या कहना चाहेंगे ?

अभिषेक शुक्ला: विकास भाई नये लिखने वालों को मैं खुद अपना आइडियल मानता हूँ और यह भी कि उनमें से जाने कितने ऐसे हैं जिनकी ग़ज़लें-नज़्में देखकर लगता है कि काश ये मैंने कही होती। हमारी आने वाली नस्ल हमसे कहीं ज़ियादः तैयार है और यह बात मुझे बहुत इत्मीनान बख़्शती है।हाँ एक बात ज़रूर अपने तज्रबे से कह सकता हूँ कि कई बार ख़ुद को एक्सप्लोर किए बग़ैर हमें पता ही नहीं होता कि हम में कितने इम्कानात पोशीदा हैं। इसलिए अनदेखी राहों का सफ़र करने से कभी नहीं डरना चाहिए यानी अपने तमाम इम्कानात को पहचानने की कोशिश करनी चाहिए,हम जो कर रहे हैं,उससे अलग,उसके सिवा और क्या क्या कर सकते हैं?? इस पर सोचना चाहिए।यानी जो सिर्फ़ ग़ज़लें पढ़ लिख रहे हों,नज़्मों की तरफ़ आएँ, फ़िक्शन पढ़ें,कहानियाँ लिखें ग़रज़ कि वो सब एक्सप्लोर करें जिसके लिए आपने ज़िन्दगी में कोई आगे का वक़्त सोच रखा है। पढ़ें ख़ूब सारा बल्कि मैं तो कहता हूँ कि अगर कोई ग़ज़ल ही कहना चाहता है तो ग़ालिब से ज़ियादः उसे मंटो पर यक़ीन करना चाहिए।लफ़्ज़ “यक़ीन” का इस्तेमाल बहुत सोच समझ कर किया है मैंने। वाक़ई मंटो के यहाँ बहुत कुछ पड़ा है। इसका मतलब ये क़तई नहीं कि मैं आपको ग़ालिब को पढ़ने से मना कर रहा हूँ। बात इतनी सी है कि दुनिया में क्या हो रहा है उस पर नज़र ज़रूरी है। नज़र के पैने पन और शे’र के पैने पन में सीधा रिश्ता है और नज़र एक दिन में पैनी नहीं होती,उस पर भी बराबर धार देना पड़ती है। सब से ज़रूरी बात ये कि हक़ीक़ी ओ मजाज़ी का फ़र्क़ भुला कर मुहब्बत करनी पड़ती है। या तो किसी एक से जिसमें सब दिखें,या सबसे जिसमें कोई एक दिखे,आप इसे कस्टमाइज़ भी कर सकते हैं।

अभिषेक शुक्ला की शायरी को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।