जब रिटायर्ड जनरल बोले ‘फ़राज़ तुम बाज़ नहीं आते, मैं तुम्हें देख लूँगा’
25 अगस्त 2008 को फ़राज़ के निधन से कुछ ही दिन पहले जब वह इस्लामाबाद के एक निजी अस्पताल में बेहोशी की अवस्था में लेटे हुए थे किश्वर नाहीद ने एक खुला ख़त लिखा था। फ़राज़ के नाम लिखे गए इस ख़त में किश्वर के शब्द थे,
“फ़राज़ तुम्हें अपनी उम्र का कितना एहसास रहता था। तुमने यह बात कभी पसंद न की के कोई लड़की तुम्हें ‘अंकल’ कह कर मुख़ातब करे। तुम किसके महबूब नहीं। और हर शाम गिलास हाथ में थाम कर तुम्हें कौन याद नहीं करेगा।”
किश्वर की ये बात ज़िंदगी के आख़िरी दिन गुज़ार रहे दोस्त की मुहब्बत में लिखी गई कोई मुबालग़ा-आमेज़ बात नहीं थी। ये उस समय की वास्तविकता थी कि उर्दू और हिंदी भाषी हर मुहब्बत करने वाला फ़राज़ के लिए अपने दिल में जगह रखता था। फ़राज़ के समय में परवान चढ़ने वाली शायद ही कोई ऐसी मुहब्बत रही हो जिसके रूमानी पलों ने उनके शेरों से ख़ुराक हासिल न की हो।
अहमद फ़राज़ को चाहने वाले किस जज़्बे और किस शिद्दत से उन्हें चाहते थे इसका अंदाज़ा मशहूर पाकिस्तानी लेखक अहमद फ़ारूक़ मशहदी की यादों में महफ़ूज़ रह गए इस वाक़िए से लगाया जा सकता है,
“यादों के झुरमुट में एक उजली याद पी टीवी पर नश्र होने वाले एक मुशायरे की है जिसमें अहमद फ़राज़ ने भी अपना कलाम पेश किया था। इस दौरान जब फ़राज़ अपनी ग़ज़ल पढ़ रहे थे, टीवी के किसी शोख़ कैमरामैन ने अचानक कुछ लड़कियों को फ़ोकस किया जिनकी आँखों से टप-टप आँसू गिर रहे थे। शायरी पर ऐसा ख़िराज-ए-तहसीन शायद ही किसी और शायर को नसीब हुआ हो।”
टीनएजर्स का शायर
नौजवानों में अपनी लोकप्रियता के चलते फ़राज़ जीवन-भर टीनएजर्स या सिर्फ़ लड़कियों के शायर होने का इल्ज़ाम भी झेलते रहे। फ़राज़ ने कभी इस इल्ज़ाम की सफ़ाई देने की कोशिश नहीं की। वह अपनी रविश पर शेर कहते रहे।
लेकिन एक बूढ़े व्यक्ति ने एक बार ऐसी मज़ेदार सूरत पैदा की कि फ़राज़ के दोस्त उससे लुत्फ़ लिए बग़ैर न रह सके। उर्दू के विख्यात साहित्यकार अहमद नदीम क़ासमी याद करते हैं,
“अहमद फ़राज़, अमजद इस्लाम अमजद और मैं उमरा करने के लिए एहराम बाँधे मक्का पहुंचे थे। काबे का तवाफ़ पूरा करके खड़े ही थे कि एक ख़ातून लपक कर आई और अहमद फ़राज़ से बोली, ‘आप अहमद फ़राज़ हैं ना?’ फ़राज़ ने सर हिला कर जवाब दिया ‘जी’। ख़ातून ने कहा, ‘ज़रा सा रुकिए मेरे बाबा जान आपसे मिलने के बहुत ख़ाहिशमंद हैं। वह आपसे बरसों से मिलना चाहते हैं।’ ख़ातून वापस मुड़ी और एक निहायत बूढ़े और कमज़ोर शख़्स का बाज़ू थामे लेकर आगई। बुज़ुर्ग के लिए चलना मुश्किल था, लेकिन उनका चेहरा अक़ीदत के मारे सुर्ख़ हो रहा था। बुज़ुर्ग बोले, ‘सुब्हान-अल्लाह! यह कितना बड़ा करम हुआ अल्लाह का कि उसने अपने घर में ही मुझे अहमद फ़राज़ से मिलवा दिया।”
जब बुज़ुर्ग चले गए तो क़ासमी ने फ़राज़ से कहा, ‘आज आपकी शायरी पर सबसे बड़े इल्ज़ाम का सबूत मिल गया है। यह टीनएजर आपसे कितनी मुहब्बत करता है। आप उन्हीं के शायर हैं। ये बात अलग है कि इस टीनएजर की उम्र अस्सी-पिच्चासी साल से भी ज़्यादा है।”
फ़राज़ को शायर बनाने वाली ख़ातून
परवीन शाकिर फ़राज़ को उर्दू साहित्य का ‘प्रॉब्लम चाइल्ड’ कहा करती थीं। उनका कहना था कि ”फ़राज़ के सीनियर शायर उससे इसलिए नाराज़ रहते हैं कि उसके आने के बाद नौजवानों ने बुज़ुर्गों की घिसी-पिटी शायरी सुनने से इनकार कर दिया है और समकालीन इसलिए ख़फ़ा हैं कि फ़राज़ अपने सामने उनका चराग़ नहीं जलने देता। मुशायरे और ख़ूबसूरत लड़कियों की महफ़िलों में उनका मज़ाक़ उड़ाता है।”
अपने से बुज़ुर्ग और समकालीन शायरों के लिए इतनी मुश्किल खड़ी कर देने वाले फ़राज़ के शायराना सफ़र की शुरूआत भी बहुत ड्रामाई अंदाज़ में हुई थी। अगरचे उनके पिता सय्यद मुहम्मद शाह बर्क़ भी शायर थे, लेकिन फ़राज़ के शायर बनने की बड़ी वजह उनकी क्लासमेट रही वे एक लड़की थी जो फ़राज़ के साथ गर्मियों की छुट्टी में साथ रह कर पढ़ाई किया करती थी। एक दिन उसने फ़राज़ से पूछा कि वह उसके साथ कॉलेज की बैतबाज़ी में शरीक हो। फ़राज़ ने हामी भर ली और शेर याद करने शुरू कर दिए। लेकिन यह सिलसिला बहुत देर तक जारी न रह सका। लड़की के मुक़ाबले फ़राज़ के याद किए हुए शेरों की तादाद बहुत कम थी और वह बहुत जल्द उससे शायरी के मुक़ाबले में हार जाया करते थे।
एक दिन फ़राज़ ने सोचा दूसरों के शेर याद करने के बजाय क्यों न अपने ही शेर कहे जाएं।और इस तरह फ़राज़ ने अपना पहला शेर उस वक़्त कहा जब उनके पिता एक दिन सेल से घर के लोगों के लिए कपड़े ख़रीद कर लाए। सबके लिए अच्छे सूट थे लेकिन फ़राज़ के लिए कश्मीरी चैक ले आए। फ़राज़ को अपने लिए आया कपड़ा एक कम्बल की मानिंद लगा। फ़राज़ ने इस पर एहतिजाज किया और काग़ज़ के पुर्ज़े पर एक शेर लिख कर पिता के सरहाने रख दिया। शेर था,
जब कि सबके वास्ते लाए हैं कपड़े सेल से
लाए हैं मेरे लिए क़ैदी का कम्बल जेल से
रिटायर्ड जनरल की धमकी
यह फ़राज़ का पहला शेर था। और ख़ुद फ़राज़ के शब्दों में “यह पहला शेर तबक़ाती नाहमवारी (वर्ग असमानता) के बारे में मेरे इख़्तिलाफ़ी जज़्बात (असहमति) का तर्जुमान था।”
तबक़ाती नाहमवारी, सामाजिक असमानता और हुकूमत के ज़ालिमाना रवैय्ये पर फ़राज़ की एहितजाजी लै धीमे अंदाज़ में उनके पहले ही शेर से शुरू हो गई थी। समय के साथ उसमें और काट आती चली गई। यहां तक कि एक वक़्त वह आया जब फ़राज़ ने मुशायरों के स्टेज से अपनी नज़्म ‘मुहासरा’ पढ़ी तो हुकूमत के ऐवान हिल कर रह गए और उन्हें सिंध से दर-ब-दर कर दिया गया। मकान पर क़ब्ज़ा कर लिया गया, महफ़िलों, मुशायरों और अख़बारों से किसी भी तरह के सम्बन्ध पर पाबंदी लगा दी गई।
इसके बाद फ़राज़ 1982 से 1986 तक ख़ुद-साख़्ता जिला-वतनी (स्वनिर्वासन) की ज़िंदगी गुज़ारते रहे।
फ़राज़ के निधन के बाद उनकी याद में बरपा की गई एक तक़रीब में मशहूर पाकिस्तानी उपन्यासकार प्रोफ़ेसर फ़तह मौहम्मद मलिक ने फ़राज़ के एक मुशायरे को याद करते हुए एक क़िस्सा सुनाया था। उनके शब्द थे,
“जनरल ज़िया-उल-हक़ के समय में भुट्टो की फांसी के फौरन बाद एक नाअतिया मुशायरे का आयोजन किया गया था। मुशायरे की अध्यक्षता रिटायर्ड जनरल शाहिद हामिद कर रहे थे। जब फ़राज़ की बारी आई तो उन्होंने अपनी लिखी नाअत का पहला शेर पढ़ा,
मिरे रसूल, कि निस्बत तुझे उजालों से
मैं तेरा ज़िक्र करूँ सुबह के हवालों से
दुसरा शेर था,
मिरे ज़मीर ने क़ाबील को नहीं बख़्शा
मैं कैसे सुलह करूँ क़त्ल करने वालों से
मुशायरा ख़त्म होते ही जनरल शाहिद हामिद ग़ुस्से में फ़राज़ के पास पहुंचे और तल्ख़ आवाज़ में धमकी देते हुए कहा, “फ़राज़ तुम बाज़ नहीं आते, मैं तुम्हें देख लूँगा”
फ़राज़ ने जवाब में क्या कहा, ये बताने से पहले ही मलिक साहब रुक गए और अफ़सोस के साथ कहा कि “वहां एक से एक बड़ा शायर मौजूद था। मगर सब चुप थे। फ़राज़ इसलिए भी बड़ा है कि जब सब चुप हो जाते थे तो तब भी फ़राज़ कलमा-ए-हक़ कहने से न चूकता था और न डरता था।”
ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की फ़ोन कॉल
फ़राज़ के इसी बाग़ी रवैय्ये की एक मिसाल तब सामने आई जब उन्होंने एक मुशायरे के स्टेज से अपनी विवादास्पद नज़्म ‘पेशा-वर क़ातिलो’ पढ़ दी थी। फ़राज़ उस समय भुट्टो की बनाई हुई ‘एकेडमी ऑफ़ लेटर्स’ के डायरेक्टर जनरल हुआ करते थे। इस नज़्म ने पाकिस्तानी फ़ौज के तन-बदन में आग लगा दी थी। अगले रोज़ ही फ़राज़ को फ़ौज के लोगों ने उनके ऑफ़िस से गिरफ़्तार कर लिया और आँखों पर पट्टी बांध कर मांसहरा कैंप ले गए।
ये वो समय था जब पाकिस्तान में फ़ौजी ताक़त मज़बूत हो रही थी और एक तरह से प्रधानमन्त्री के तौर पर भुट्टो साहब के आख़िरी दिन थे। उन्हीं की मुदाख़लत के बाद फ़राज़ को रिहा कर दिया गया था।
रिहाई के वक़्त जनरल ज़िया-उल-हक़ ने फ़राज़ से अंग्रेज़ी में कहा था ”आपको भुट्टो साहब का शुक्र-गुज़ार होना चाहिए, उनके कहने पर आप बच सकें हैं”
फ़राज़ रिहाई के बाद ऑफ़िस में बैठे थे कि फ़ोन की घंटी बजने लगी। उधर से आवाज़ आई, “वज़ीर-ए-आज़म आपसे बात करना चाहते हैं। भुट्टो फ़ोन पर आते ही बोले, ”फ़राज़ दिस इज़ मी, दिस टाइम आई सेवड योर लाईफ़। दे वांट टू ट्राई यू।”
फ़राज़ ने भुट्टो साहब का शुक्रिया अदा किया और फ़ोन रख दिया। ये 30 जून की बात है। और 4 जुलाई को जनरल ज़िया ने भुट्टो सरकार का तख़्ता पलट दिया।
फ़ैज़ के लिए भी नंबर वन शायर
कलमा-ए-हक़ कहने का यह गुर फ़राज़ को फ़ैज़ से मिला था। वह उनकी शख़्सियत, शायरी और उनके प्रगतिशील विचारों से बहुत प्रभावित थे। जिस वक़्त फ़राज़ शायरी शुरू कर रहे थे उस वक़्त तक फ़ैज़, अहमद नदीम क़ासमी, नून मीम राशिद और साहिर लुधियानवी बड़े शायर तस्लीम किए जा चुके थे। लेकिन उनमें से फ़ैज़ ने फ़राज़ की शख़्सियत और शायरी पर सबसे ज़्यादा असर डाला। फ़राज़ कहते थे कि वह फ़ैज़ का कलाम ढूंढ-ढूंढ कर पढ़ा करते थे, बल्कि जब उनकी किताब ‘जलाल-ओ-जमाल’ छप कर आई तो फ़राज़ के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह किताब ख़रीद सकें। साढे़ सात रुपय की किताब फ़राज़ और उनके एक दोस्त ने मिलकर ख़रीदी थी।
फ़राज़, फ़ैज़ के साथ अपनी मुश्तरक यादों में से एक वाक़िए का और ज़िक्र किया करते थे। यह वह समय था जब फ़राज़ भी फ़ैज़ ही की तरह अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थे। इस दौरान लाहौर से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘धनक’ ने ‘मेरा पसंदीदा शायर’ के उनवान से एक सर्वे किया था। शुरू में तो बहुत से लोग सूची में मौजूद थे, लेकिन रफ़्ता-रफ़्ता तादाद कम होती गई। आख़िर में फ़ैज़ और फ़राज़ बाक़ी रहे। लेकिन फ़ाइनल रिज़ल्ट फ़राज़ के हक़ में आया और पाठकों के लिए फ़राज़ ‘नंबर वन शायर’ क़रार पाए।
फ़ैज़, फ़राज़ की इस मक़बूलियत को बहुत सहजता से क़बूल करते थे और जहां होते बड़ी महरबानी और शफ़क़त के साथ कहते,
“भाई आजकल फ़राज़ है पाकिस्तान का नंबर वन शायर।”
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