उनके लिए जो नसीर तुराबी को नहीं जानते!
उर्दू शायरी के आशिक़, नसीर तुराबी के इस दुनिया से रुख़्स्त हो जाने का ग़म मना रहे हैं। दो हज़ार बीस के दिए ज़ख़्म अभी ताज़ा ही थे कि नया साल का पहला अशरा एक और दुख-भरी ख़बर पर ख़त्म हुआ। नसीर तुराबी का जाना अच्छी शायरी के सुनने, पढ़ने और गाने वालों के लिए एक बहुत दुख-भरा वाक़िया है। लेकिन ये दुनिया है और दुनिया की रीत है कि हर आने वाले शख़्स को जाना होता है। सो नसीर तुराबी भी चले गए। बाक़ी रहे वो लफ़्ज़ जिन्हें वो ज़िंदगी-भर ख़ून-ए-दिल की स्याही में क़लम डुबो कर काग़ज़ पर बिखेरते रहे।
नसीर तुराबी की पैदाइश 1945 को रियासत हैदराबाद में हुई थी। विभाजन के बाद उनका ख़ानदान पाकिस्तान चला गया था। उनके पिता अल्लामा रशीद तुराबी अपने वक़्त के अहम शायरों और ज़ाकिरीन में गिने जाते थे। पिता के शायर होने की वजह से घर में हमेशा शेर-ओ-अदब का चर्चा रहता और शायरों की महफ़िलें आबाद रहतीं। जिसके चलते नसीर भी कम-उम्री से शायरी करने लगे थे।
यगाना चंगेज़ी और आरज़ू लखनवी से बचपन से ही उनकी मुलाक़ातें रहीं। पाकिस्तान आने के बाद जोश मलीहाबादी उनके घर पर होने वाली शेरी मजलिसों में शरीक रहते। जोश की शख़्सियत और उनकी शायरी से नसीर ने शायरी और ज़बान के गुण सीखे।
एक बार राग़िब मुरादाबादी ने जोश से एक इंटरव्यू के दौरान पूछा था , ”जोश साहिब आप आइन्दा आने वाले लोगों में किन को अच्छे शायर के तौर पर देखते हैं।”
जोश का जवाब था, ”एक बच्चा देखा है मैंने, आता है नशिश्तों में, नसीर तुराबी उसका नाम है, मुझे उससे बड़ी उम्मीदें हैं।”
जोश की ये मर्दुम-शनास नज़र थी जिसने नसीर तुराबी की सलाहियतों को शुरूआत में ही पहचान लिया था। जोश शायर तो थे ही साथ ही वो अपने समय में भाषा के सबसे बड़े ज्ञानियों में शुमार होते थे। जोश की शायरी नादिर-ओ-नायाब शब्दों और तरकीबों का एक ख़ज़ाना है। नसीर तुराबी को जोश की इस ज़बान-दानी का फ़ैज़ भी नसीब हुआ।
नसीर तुराबी ने शायरी के साथ जो अहम काम किये वो उनकी दो किताबें हैं। एक ‘शेअरियात’ और दूसरी ‘लुग़त-उल-अवाम’। इन दोनों किताबों से अंदाज़ा होता है कि नसीर सिर्फ़ शायर नहीं थे बल्कि अदब, ज़बान और अदबी तहज़ीब के मौज़ुआत से उनकी वाबस्तगी बहुत इल्मी नौईयत की थी।
‘शेअरियात’ तो उर्दू ज़बान, शायरी, शायरी की इस्तलाहात और बुनियादी मालूमात का एक ऐसा ज़ख़ीरा है जो जिसे हर उस शख़्स को पढ़ना चाहिए जो इन मौज़ुआत से किसी भी तरह की दिलचस्पी रखता है।
जौन एलिया भी नसीर तुराबी के मद्दाहों में थे। जौन को क़रीब से जानने वाले समझते हैं कि ऐसा बहुत ही कम होता था कि जौन किसी की खुल कर तारीफ़ करें। लेकिन जब नसीर तुराबी की बात आती तो जौन आहिस्ता से नीचे मुँह कर के कहते ”जानी ये नसीर तुराबी शेर कहना जानता है।”
नसीर तुराबी वाक़ई शेर कहना जानते थे। लेकिन हमारे इस ख़ुद-नुमाई वाले समाज में उनके साथ मुश्किल ये रही कि वो अपनी तशहीर से बहुत दूर रहे। उनका कलाम अपनी बुनियादों पर ख़ुद दिलों से दिलों का सफ़र करता रहा और वो कहीं बहुत पीछे छूट गए। आज भी लोग उनके शेर गुनगुनाते हैं, सुनते हैं पढ़ते हैं लेकिन वो शेर इस तरह अवामी रोज़मर्रा का हिस्सा हैं कि उनका रचयिता किसी को याद नहीं रहा।
अपनी मशहूर ग़ज़ल,
वो हम-सफ़र था मगर उस से हम-नवाई न थी
कि धूप छाँव का आलम रहा जुदाई न थी
के बारे में वो ख़ुद एक मज़ेदार वाक़िया सुनाते हैं। जब ये ग़ज़ल पाकिस्तानी टीवी ड्रामा सीरियल ‘हमसफ़र’ के टाइटल सौंग के तौर पर इस्तिमाल की गई तो एक म्यूज़िक ग्रुप ने ड्रामे की निर्माता मोमिना दरीद पर पाँच करोड़ का मुक़द्दमा दायर कर दिया। क्योंकि इस से पहले आबिदा परवीन इस ग़ज़ल को अपनी आवाज़ दे चुकी थीं। जब मोमिना दरीद को मुक़द्दमा की ख़बर हुई तो उन्होंने ड्रामा लिखने वाली ख़ातून से शायर की परमीशन के बारे में पूछा तो उसका जवाब था, अरे ये तो कोई बहुत पुराने शायर का कलाम है, वो तो सालों पहले मर चुके हैं।
इस से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अपने कलाम की रफ़्तार के आगे नसीर तुराबी कितने पीछे रह गए थे। हर अच्छा फ़न-पारा ऐसे ही अपना सफ़र अपने तौर पर तैय करता है।
नसीर तुराबी ने ये ग़ज़ल 16 दिसंबर को उस वक़्त लिखी थी जब उन्हें एक फ़ोन कॉल पर ये बताया गया था कि सर आज आप काम पर ना आएँ, ‘फ़ॉल ऑफ़ ढ़ाका’ का ऐलान होने वाला है। नसीर तुराबी बताते हैं कि बस ये सुनकर उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। उन्होंने ग़मज़दा दिल और कापते हुए हाथों से काग़ज़ का एक टुकड़ा उठाया और ग़ज़ल लिखना शुरू कर दी।
शाम को तरक़्क़ी-पसंद दानिश्वर सिब्ते हसन ने उन्हें घर पर बुलाया, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ भी वहाँ मौजूद थे। सब ग़मज़दा थे। जाम का दौर शुरू हुआ। इसी दरमियान सिब्ते हसन ने कहा, नसीर फ़ैज़ साहब को भी ग़ज़ल सुनाओ। जैसे ही नसीर ने ग़ज़ल सुनाई फ़ैज़ बे-ख़ुद हो गए और बार-बार नसीर से ये ग़ज़ल सुनते रहे।
बाद में फ़ैज़ ने ख़ुद ‘फ़ॉल ऑफ़ ढ़ाका’ के वाक़िये से प्रभावित हो कर एक नज़्म ‘हम कि ठहरे अजनबी‘ लिखी। नज़्म लिखने के बाद फ़ैज़ ने नसीर तुराबी से कहा कि ”भाई, ‘वो हमसफ़र था मगर उस से हम-नवाई ना थी’ इस ‘हम-नवाई’ का जवाब मैं ‘अजनबी’ के सिवा और किसी तरह ना दे सका, तुम्हारा ‘हम-नवाई’ ग़ैर-मामूली तौर पर स्ट्रौंग है।
नसीर तुराबी का शेरी सफ़र तक़रीबन पच्चास बरसों पर फैला है। इस अर्से में उन्होंने बेशुमार शेर कहे। लेकिन उनके निधन तक शायरी के सिर्फ़ दो संग्रह प्रकाशित हुए। इतनी कम मिक़दार में शायरी लोगों के सामने लाने के बारे में उनसे कई बार सवाल किए गये। उन सवालों को सुनकर उनका जवाब बहुत सीधा और छोटा सा होता, “मैं अपनी शायरी के साथ बहुत बे-रहम क़साई हूँ।”
शायरी के अच्छा होने और उस अच्छे का भी सबसे अच्छा लोगों तक पहुँचाने के जुनून में नसीर तुराबी अपनी मौत तक मुब्तला रहे। उन्होंने ग़ज़लों के साथ सलाम, मनक़बत और नअतें भी कहीं और ये सब आज ‘अक्स-ए-फ़रियादी’ और ‘ला-रैब’ की शक्ल में हमारे सामने है।
अब वो शायर जिसे हम जानते थे या नहीं जानते अपना जिस्मानी वुजूद लेकर इस दुनिया से चला गया। बाक़ी हैं उसके हर्फ़ और उसके शब्द। जो तब तक ज़िंदा रहेंगे जब तक हमारी ज़िंदगी को किसी मअनी की तलाश रहेगी।
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