अदब फ़ारूक़ी साहब के लिए जीने और मरने का सवाल था
दुनिया को देखें तो अजीब कहानी है, एक शख़्स आता है, दूसरा जाता है। हम जो तमाश-बीन हैं ये नहीं जानते कि ख़ुद भी एक तमाशा हैं और हमें कोई न कोई किसी न किसी ज़ाविये से देख रहा है, हमारे बारे में कोई राय क़ायम कर रहा है, कोई फ़ैसला कर रहा है, और दूसरों को भी ये दास्तान सुना रहा है। शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब का कल इंतक़ाल हो गया। इंतक़ाल की ख़बर आई तो जो पहला जुमला मेरे ज़हन में आया वो ये कि वो ख़ुद नहीं गए अपने साथ एक पूरी दास्तान, एक पूरी कहानी भी ले गए हैं, जो वक़्त ने उनके रहते बुनी भी और सुनी भी। कोई कह रहा है कि उर्दू अदब यतीम हो गया, किसी का मानना है कि अब दूसरा फ़ारूक़ी पैदा ही नहीं हो सकता। मैं इस तरह नहीं सोचता। मुझे लगता है वक़्त की बिसात पर कोई बादशाह नहीं, जिसके उठ जाने से खेल ही ख़त्म हो जाए। अल-क़िस्सा फ़ारूक़ी साहब के बारे में अगर ये कहा जाए कि वो अदब की बिसात के बादशाह थे तो ऐसा कुछ झूठ भी नहीं होगा। एक बात तो है जो वो हम जैसे नए, छोटी छोटी बातों पर चिराग़ पा हो जाने वाले नन्हे मुन्ने अदीबों को भी जता गए हैं कि तुम्हारी दोस्तियां, दुश्मनियां, दुनियावी कामयाबियां और घरेलू ज़िम्मेदारियाँ सब भुला दी जाएंगी, मगर वो चीज़ जो भुलाये नहीं भुलाई जा सकती, मिटाये नहीं मिटाई जा सकती वो है इल्म हासिल करने का जुनून।
कहीं से उड़ती उड़ती ही सही, सुनी है कि आख़री वक़्त में भी वो किसी लुग़त पर काम कर रहे थे। काम, और और इल्मी काम, यही उनकी पहचान थी और यही उनकी पहचान रहेगी। आप उनसे इख़्तिलाफ़ रखिये या इत्तेफ़ाक़, उनके बारे में आज आप क्या सोचते हैं, ख़ास तौर पर ज़ाती ज़िन्दगी के हवाले से। इससे अब कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। उन्होंने जो इल्मी काम किये हैं उससे उनके दुश्मनों को भी वही फ़ैज़ हासिल होगा जो उनके दोस्तों को मिल सकता है। उन्होंने ‘शेर, ग़ैर शेर और नस्र’ में एक मज़मून लिखा था ‘ग़ुबार-ए-कारवाँ‘ जिस में अपनी इब्तिदाई ज़िन्दगी और पढ़ने के शौक़ के हवाले से बड़ी छोटी छोटी मगर दिलचस्प बातें बताई हैं। उसे पढ़िए, लगेगा कि जब फ़ारूक़ी तैयार हो रहे थे, जब अदब उनके नाम से वाक़िफ़ नहीं था। तब भी वो अंग्रेज़ी, रूसी और दूसरे आलमी अदब के शाहकारों को किस तरह पढ़ते थे। फ़ारूक़ी साहब को मैं तख़लीक़ की हद तक बहुत ईमानदार आदमी समझता हूँ। वो काग़ज़ पर कभी झूठ नहीं लिखते थे, न बात को बढ़ाते-चढ़ाते थे। इस बात को वही लोग समझ सकते हैं जो अपने तख़्लीक़ी अमल में, कुछ लिखते वक़्त दुनियादारी के हुनर को ताक़ पर रखने के उसूल से वाक़िफ़ हों। मैं जिस हुनर की बात कर रहा हूँ वो जोश और साक़ी के यहाँ नहीं है, मगर मंटो और फ़ारूक़ी दोनों के यहाँ था। ये दरअसल अपना हिसाब करने का अमल है, ख़ुद को जानने और समझने का। बात हो रही थी ग़ुबार-ए-कारवाँ की, उस मज़मून में फ़ारूक़ी साहब ने एक जगह लिखा है कि वो अपने बारे में कभी किसी क़िस्म की पैग़म्बराना शान की ग़लत-फ़हमी में मुब्तिला नहीं हुए। यही वो बात है जिससे अदब में आदमी बड़ा बनता है। ऐसा अदीब समाज में कैसे ही रंगीन कपड़े पहन कर घूमता हो मगर अपनी तख़लीक़ में बिलकुल उरयाँ नज़र आता है। आप उसके दिल तक सीधे पहुँच सकते हैं, उस इंसानी कश्मकश को जान सकते हैं, जिससे आगाही की बिना पर ही कोई शख़्स तख़लीक़-कार बनता है। मुझे मिलान कुंदेरा की एक कहानी ‘कोई नहीं हंसेगा’ ऐसे मौक़े पर याद आती है जिसमें एक किरदार से जब पूछा जाता है कि ”आख़िर तुम इतना सारा बे-मतलब झूठ क्यों बोलते हो, तो वो कहता है क्यूंकि यही मेरा सच है”।
फ़ारूक़ी साहब की ज़िन्दगी एक मज़मून में नहीं समा सकती, उनका काम भी एक मज़मून में नहीं समा सकता। उन्होंने तनक़ीद लिखी और हर बार अपनी तनक़ीद से लोगों को चौंकाया। कुछ लोगों का मानना है कि वो तस्दीक़ के नहीं बल्कि तरदीद के नक़्क़ाद थे। बिलकुल उसी तरह जिस तरह मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी के अफ़साने ‘हवेली’ का एक किरदार, जिसकी हर बात ‘नहीं’ से शुरू होती थी। फ़ारूक़ी साहब तनक़ीद के मैदान में इतने कामयाब इस लिए थे क्यूंकि उनको अपनी इस ‘नहीं’ को साबित करना भी आता था। सलीम अहमद ने अपने एक मज़मून में उन पर चिड़ कर इलज़ाम लगाया कि उनका मुतालिआ किसी बकरी के अलग अलग घांसों पर मुंह मारने जैसा है। मगर फ़ारूक़ी साहब तनक़ीद के मैदान में खरे आदमी थे, उन्होंने ‘शेर, ग़ैर शेर और नस्र‘ जैसा कामयाब मज़मून लिखा जिसने शायरी को देखने और समझने के नए रास्ते हम पर खोल दिए। लेकिन अगर कोई मुझसे पूछे कि वो कौन से मज़ामीन हैं जो मुझे सबसे ज़्यादा पसंद हैं तो मैं दो मज़ामीन की बात करूँगा जो कि उनकी मशहूर किताब ‘शेर-ए-शोर-अंगेज़‘ की पहली जिल्द में शामिल हैं। एक ‘इंसानी तअल्लुक़ात की शायरी‘ और दूसरे ‘चूं ख़मीर आमद ब दस्त ए नानबा‘, इन मज़ामीन में मैंने फ़ारुक़ी साहब के जिस तन्क़ीदी फ़न को देखा है, वो दूसरी किसी जगह नज़र न आया। यहाँ तक कि मुहम्मद हसन अस्करी के यहाँ भी नहीं, जो मेरी नज़र में उर्दू तनक़ीद का सबसे बड़ा नाम हैं, और शायद फ़ारूक़ी साहब की नज़र में भी होंगे।
फ़ारूक़ी साहब के बारे में कहा जाता रहा है कि वो ‘शोशे’ छोड़ने में माहिर थे। कभी फ़िराक़ जैसे शायर के मुक़ाबले में अहमद मुश्ताक़ और ज़फ़र इक़बाल को खड़ा कर दिया। कभी राजेंद्र सिंह बेदी जैसे अहम अफ़साना निगार को मामूली कह दिया। कभी अफ़साने की हैसियत को इतना कम करके आँका कि लोग हैरान रह गए। कभी मजाज़ पर होने वाले दो या तीन रोज़ा सेमीनार में अपने कालीदी ख़ुत्बे में ही इस बात पर हैरानी ज़ाहिर कर दी कि मजाज़ जैसे शायर पर इतनी देर क्या बात हो सकेगी। मुझे याद है कुछ साल पहले इस बात पर बहुत शोर मचा था कि पकिस्तान में फ़ैज़ पर होने वाली किसी बड़ी कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कह दिया कि फ़ैज़ के यहाँ बस कुछ रूमानी ग़ज़लें नज़्में छोड़ कर ज़्यादा कुछ नहीं। एक दफ़ा नई शायरी को ही सिरे से रद्द कर दिया। अल-ग़रज़ इतनी बातें हैं कि जब फ़ारूक़ी साहब बोलें या लिखें तो कोई निज़ाई (Controversial) बात ज़रूर पैदा हो जाती थी और लोग दिनों, महीनों उसी पर गुफ़्तगू करते रहते थे। इनमें से कई बातों पर हो सकता है आपके भी ऐतराज़ात हों मगर ये बातें हमें फ़ारूक़ी साहब की शख़्सियत के इस पहलू को समझने में बड़ी मदद देती हैं कि अदबी मुआमलों में उनके सोचने और जानने का अमल जामिद यानी जमा हुआ नहीं था। वो अदब में जमे हुए नज़रियात को आख़री दम तक अपनी इल्मी और फ़िक्री कुदाल से तोड़ते फोड़ते रहे। और यही बात उन्हें दूसरों से मुमताज़ बनाती है।
वो हमा-जहत अदीब थे, अब ऐसे लोग पैदा नहीं होते। अब लोग प्रोफ़ेसर होते हैं, शायर होते हैं या नौकर होते हैं, अब लोग हर वक़्त किसी तालिब-ए-इल्म की तरह सोचने और जानने और पूछने की जुरअत से डरते हैं। क्यूंकि ये बातें फ़ेसबुक के अहद में जिस इल्म का मुतालबा करती हैं, वो हम लोगों के लिए मुमकिन नहीं। अब कौन ऐसा होगा जो एक तरफ़ तनक़ीद भी लिख रहा हो, मीर की, ग़ालिब की शरह भी लिखता जा रहा हो, फ़िक्शन भी लिखे, शायरी भी करे, अरूज़ पर भी किताब लिखे, लुग़त को भी तरतीब दे, एक कामयाब अदबी रिसाला भी निकाले और अदब को एक जदीद फ़िक्री, शेरी और तख़्लीक़ी निज़ाम से आगाह भी कराए। अब लोग मेहनत नहीं करते, उनके अंदर ऐसा तजस्सुस, ऐसी बे-चैनी और जुनून तो अब ख़्वाब-ओ-ख़याल की बात है जो फ़ारूक़ी साहब के यहाँ था।
तनक़ीद पर अपनी बात पूरी करते हुए बस एक बात और अर्ज़ करूँगा जो मुझे उनके किसी इंटरव्यू में बेहद पसंद आई थी। उन्होंने कहा था कि तख़लीक़, तनक़ीद की मोहताज नहीं हो सकती। उर्दू का अदीब इश्तिहार-बाज़ी से बाज़ आ जाए तो कुछ कर सकता है। ये बात वो है जो शायद मेरी ज़िन्दगी के आख़री दिनों तक मेरे साथ रहेगी, मैंने उनसे ये सीखा है कि अदीब का ध्यान पढ़ने पर होना चाहिए ख़ुद को प्रोमोट करने पर नहीं। और जिसका ध्यान ख़ुद को प्रोमोट करने पर होगा वो अदीब नहीं होगा, चापलूस होगा, ख़ुशामदी होगा और सबसे बढ़कर ये कि नक़ली होगा।
आख़िर में बस इतना कहना चाहूंगा कि अगर आपने फ़ारूक़ी साहब का लिखा फ़िक्शन नहीं पढ़ा है तो पहली फ़ुर्सत में पढ़िए। उन्होंने फ़िक्शन कम लिखा, क्यों कम लिखा इसकी एक ही वजह समझ में आती है कि उन्होंने अपने फ़िक्शन के लिए जो Era मुंतख़िब किया था। उस पर लिखने में बहुत मेहनत लगती है। उर्दू में इस मुआमले में उनसे अच्छा फ़िक्शन सिर्फ़ क़ाज़ी अब्दुस सत्तार ने लिखा है। मुझसे एक बार शायद किसी उर्दू के ही अदीब ने कहा था कि तनक़ीद का ज़माना नक़्क़ाद की ज़िन्दगी तक ही होता है जबकि फ़िक्शन का ज़माना फ़िक्शन-निगार के मरने के बाद और फैलता और बढ़ता है। अगर सच में ऐसा है तो ‘फ़ारूक़ी साहब की कहानी अभी बहुत लम्बी है।
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