35 साल का जीवन मिला मगर बड़ा काम कर गए
तौसन-ए-उम्र-ए-रवाँ दम भर नहीं रुकता ‘रसा’
हर नफ़स गोया इसे इक ताज़ियाना हो गया
भारतेन्दु हरिश्चंद्र को हिंदी अदब की दुनिया में एक हमा-दाँ अदीब के तौर पर बेपनाह शोहरत और मक़बूलियत हासिल है। आपके रुतबे का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि हिंदी अदब के एक अहद को आप ही के नाम पर “भारतेन्दु युग” कहा जाता है। 35 साल की मुख़्तसर ज़िन्दगी में आपने अदब के कई असनाफ़ में अपनी क़लम चलाई और उन पर महारत हासिल की। आपके नाटकों, गीतों, कविताओं और लेखों के मुताले के बग़ैर हिंदी अदब का जायज़ा लेना नामुमकिन है। बेशक भारतेन्दु ने हिंदी अदब में एक लासानी मक़ाम हासिल किया, लेकिन आपका क़लम सिर्फ़ एक मख़सूस ज़बान तक महदूद नहीं रहा। आपने कई दीगर ज़बानों में अपना क़लम चलाया, लेकिन आपकी उर्दू तसानीफ़ वाक़ई क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं।
बाग़बाँ कुंज-ए-क़फ़स में मुद्दतों से हूँ असीर
अब खुले पर भी तो मैं वाक़िफ़ नहीं परवाज़ से
‘रसा’ तख़ल्लुस फ़रमाने वाले हरिश्चंद्र की पैदाइश सन 1850 में बनारस के एक रईस अग्रवाल ख़ानदान में हुई। आपके वालिद गोपालदास, बनारस के मुतमव्विल महाजन होने के साथ एक अदीब भी थे, और “गिरधरदास” के क़लमी नाम से तसानीफ़ करते थे। माना जाता है कि उन्होंने 40 किताबें लिखी थीं। हरिश्चंद्र ने सिग़र-सनी ही में अपनी अदबी लियाक़त से अपने वालिद को मुतासिर कर दिया था। 5 साल की उम्र में वालिदा और 10 साल की उम्र में वालिद का साया सर से उठ जाने के बाद आपने घर पर ही मुख़्तलिफ़ ज़बानों की तालीम ली। आपको हिंदी जनाब ईश्वर दत्त, उर्दू और फ़ारसी मौलवी ताज अली और अंग्रेज़ी पंडित नंदकिशोर और राजा शिव प्रसाद ने पढ़ाई। 15 साल की उम्र में की गयी जगन्नाथ-पुरी की यात्रा का आपकी शख़्सियत और आपके कलाम पर गहरा असर हुआ। माना जाता है की भारतेन्दु सर सैयद अहमद ख़ान के अंदाज़-ए-बयान से ख़ासे मुतासिर थे। आप “इंस्टिट्यूट गज़ट, अलीगढ़” के अहम क़लमकारों में से थे, और आपका एक मज़मून, “हिन्दुओं का क़ानून-ए-विरासत” के उनवान से इसमें शाया हुआ था।
उड़ा दूँगा ‘रसा’ मैं धज्जियाँ दामान-ए-सहरा की
अबस ख़ार-ए-बयाबाँ मेरे दामन से अटकते हैं
भारतेन्दु की उर्दू शायरी में कई रंग शामिल हैं। आपके अशआर एक तरफ़ जहाँ हुस्न की तारीफ़ और बयान से लबरेज़ हैं, वहीं इफ़्तिराक़ के ग़म और माशूक़ के इंतज़ार में आशिक़ की कैफ़ियत को भी ख़ूबसूरती से ज़ाहिर करते हैं। भक्ति और तसव्वुफ़ के अहसास से भी आपकी उर्दू शायरी अछूती नहीं है। इनके अलावा कई अवामी और मुल्की वाक़यों पर आपने हस्ब-ए-ज़रूरत मुबारकबाद, मातम, ख़ैर-मक़दम, अलविदा वग़ैरह नज़्में तसनीफ़ की हैं।
बात करने में जो लब उसके हुए ज़ेर-ओ-ज़बर
एक साअत में तह-ओ-बाला ज़माना हो गया
ज़िंदादिली आपकी शख़्सियत की सबसे नुमायाँ सिन्फ़ थी। आपके कलाम में किसी नौ-उम्र लड़के सी शोख़ी और बयान में किसी बुज़ुर्ग सी पुख़्तगी है। बयान-ए-हुस्न करने में आपका इस्तेदाद ग़ैर-मामूली है।
देखूँगा महराब-ए-हरम, याद आएगी अबरू-ए-सनम
मेरे जाने से मस्जिद भी बुतख़ाना बन जायेगी
बाल बिखेरे आज परी तुर्बत पर मेरे आयेगी
मौत भी मेरी एक तमाशा आलम को दिखलायेगी
तलमीह की एक ख़ूबसूरत मिसाल देखिये, जहाँ फ़ारसी मुसव्विर कमालुद्दीन बहज़ाद का ज़िक्र है-
कमर का तेरे जिस दम नक़्श हम ईजाद करते हैं
तो जाँ क़ुर्बान आकर मानी-ओ-बहज़ाद करते हैं
जब इस क़दर इश्क़-पसंद, शौक़ीन और रसीला शाइर फ़िराक़ के रंग में सराबोर होता है, तो अंजाम क़ाबिल-ए-दीद होता है। जो शाइर हुस्न-ओ-जमाल का इस दर्जा परिस्तार हो, वो जब हिज्र में माशूक़ को पुकारता है तो उसकी सदा सारे आलम में गूँजती है।
अजब जौबन है गुल पर, आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहारी है
शिताब आ साक़िया गुल-रू कि तेरी यादगारी है
पहुँचा दे सबा कूचा-ए-जानाँ में पस-ए-मर्ग
जंगल में मेरी ख़ाक उड़ाना नहीं अच्छा
भारतेन्दु की शायरी में कृष्ण-भक्ति की एक मख़सूस जगह है। कभी आप अपने ‘प्यारे’ से वस्ल के इंतज़ार में फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ करते हैं, तो कभी हर तरफ़ अपने ‘प्यारे’ को जलवागर महसूस करते हैं। आपकी भक्ति में बेशक तुलसी और सूर जैसा असर नहीं, लेकिन उसका अपना एक रंग और हलावत है।
जहाँ देखो वहाँ मौजूद मेरा कृष्ण प्यारा है
उसी का सब है जलवा जो जहाँ में आश्कारा है
गुनह बख़्शो रसाई दो ‘रसा’ को अपने क़दमों तक
बुरा है या भला है जैसा है प्यारे तुम्हारा है
होली के दिन आपका जोश-ओ-ख़रोश देखते ही बनता था। कहते हैं होली पर आपके घर अबीर-गुलाल का दरिया बह जाता था। वो ख़ुद कमर में एक मोटा सा कंडा बाँधे, मसख़रों का एक तूफ़ान लिए आज़ादी से निकलते थे।
गले मुझ को लगा लो ऐ मिरे दिलदार होली में
बुझे दिल की लगी भी तो ऐ मेरे यार होली में
गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझ को भी जमाने दो
मनाने दो मुझे भी जान-ए-मन त्यौहार होली में
ऐसे ज़िंदादिल, ज़हीन और ज़ीअसर शख़्स का जवाँ-मर्ग होना अदबी दुनिया के लिए एक नाक़ाबिल-ए-तलाफ़ी नुक़सान था। आपने उम्र मुख़्तसर पायी, लेकिन उसे पूरी शिद्दत और सरगर्मी से गुज़ारा। जिस मसीहा का उन्हें इंतज़ार था, अफ़सोस! वो उनकी चारागरी को आ न सका।
ये कह दो बस मौत से हो रुख़सत, क्यूँ नाहक़ आई है उस की शामत
कि दर तलक वो मसीह-ए-ख़सलत मिरी अयादत को आ चुके हैं
उर्दू का ये शाइर, हिंदी का ये ख़ादिम, अपने पीछे न सिर्फ़ अपने अदबी और इल्मी तसानीफ़ बल्कि बेपनाह तजुर्बात, तफ़क्कुर और ख़यालात का वसीह ज़ख़ीरा छोड़कर, 1885 में दुनिया को अलविदा कह गया। ख़ाना-ए-तन की क़ैद से ये परिंदा आज़ाद हो गया, मानो ये दुआ क़बूल हो गयी हो-
ऐ अजल जल्दी रिहाई दे, न बस ताख़ीर कर
ख़ाना-ए-तन भी मुझे अब क़ैद-ख़ाना हो गया
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