ग़ज़ल की मक़बूलियत का सफ़र
हिंदुस्तान की मौसीक़ी ने पूरी दुनिया को मुतासिर किया है | यहाँ हर पहर, हर मिज़ाज के लिए अलग राग और उस राग पर मुनहसिर ख़याल, सरगम, बंदिशों ने हर उस शख्श का मन मोह लिया, जिसमें मौसीक़ी के लिए ज़रा भी दिलचस्पी हुई | वक़्त के साथ यहाँ कई हुकूमतें बदलीं, कई राजा और शहंशाह आए, गए लेकिन मौसीक़ी हमेशा ज़िंदा रही | इसी ख़याल, सरगम, बंदिशों के साथ-साथ ठुमरी भी लोगों के बीच काफ़ी मशहूर हुई| नवाब वाजिद अली शाह की ठुमरी ‘बाबुल मोरा नैहर छुटो ही जाए’ को कौन भुला सकता है, जिसे उन्होंने लखनऊ छोड़ते हुए रचा था |
इस मौसीक़ी को पसंद करने वाले की तादाद तब ज़ियादा बढ़नी शुरू हुई, जब इसमें ग़ज़लों को दौर शुरू हुआ | ग़ज़ल की सबसे बड़ी ख़ासियत आहंग और अरूज़ ने गुलूकारों को वो आसानी बख्शी कि कोई भी उस्ताद गुलूकार ग़ज़ल गाए बग़ैर नहीं रह सका | शायर के दर्द भरे अशआर के हुरूफ़ उन्होंने कभी भैरवी तो कभी पहाड़ी में, कभी खमाज तो कभी ऐमन (यमन) के स्वरों में इस क़दर सजाया कि अवाम दीवानी हो गई | एक तो शायरों की अज़ीम दुनिया, उनकी सोच की गहराई, उनका तैयार किया आहंग, ज़िन्दगी के तजरुबात और दूसरी तरफ़ उस्ताद गुलूकारों के रचे सुर और बंधे ताल, दोनों मिल कर ऐसी फ़ज़ा बनाते हैं कि सुनने वाला अपने सारे ग़म अपनी सारी परेशानियाँ भूल जाता है |
ग़ज़लों की अरूज़ और आहंग की ख़ूबी की वजह से इसे मुख्तलिफ़ तरीक़े से मौसीक़ी में बाँधने में आसानी हुई | कभी क़व्वाली की शक्ल में तो कभी ठुमरी के रूप में, ग़ज़लों के शौक़ीन ने इसे ख़ूब सराहा | यहाँ देखें कि ग़ज़ल किन-किन रूपों में अवाम के रूबरू हुई :
पारसी थिएटर तर्ज़ पर
जदीद हिन्दुस्तानी थिएटर में पारसी थिएटर यूरोपीय तकनीक और हिन्दुस्तानी लोक के मिलने से शुरू हुआ | इसके किरदार मुतासिर तो अंग्रेज़ी रहन-सहन से ज़ियादा होते थे, लेकिन कहानियाँ हिन्दुस्तानी लोक की होती थीं | गिरीश कर्नाड अपनी किताब ‘थिएटर इन इंडिया’ में फरमाते हैं, “पारसी ड्रामे मिडिल ईस्ट के रूमान से लेकर हिन्दू मिथकों तक को अपना रास्ता बनाते थे, शेक्सपियर भी करते थे, लेकिन ड्रामे के ‘ट्रीटमेंट’ ज़रा भी मज़हबी नहीं होता था| सेकुलरिज्म का अच्छा चलन था|” इसी थिएटर में जब कभी भी इश्क़-ओ-मुहब्बत की बात आई, तो उर्दू ग़ज़लों का सहारा लिया गया | इसमें ग़ज़लों के लिए वेस्टर्न और हिन्दुस्तानी दोनों तरह के साज़ का इस्तेमाल हुआ | ताहिरा सय्यद की गायी ग़ज़ल ‘अब वो ये कह रहे है मेरी मान जाइए’, इसकी अच्छी मिसाल है, जिसे राग भीमपलासी और ताल कहरवा में बाँधा गया |
रागों के ज़रिए
वैसे तो हर गीत किसी न किसी ज़ाविये से राग पर ही होते हैं, लेकिन जब कोई ग़ज़ल इस मुराद से गायी जाए कि उसमें राग का अच्छा-ख़ासा असर नज़र आए, तो उसके लिए अच्छे उस्ताद की ज़रुरत होती है | ग़ज़ल-गायकी में कई ऐसे महारती गुज़रे हैं, जिन्होंने ग़ज़लों के ज़रिए अपने राग ‘इम्प्रोवाइज’ किए और रियाज़ किए | इस तरह के कम्पोजीशन में अक्सर मशरिक़ी (ईस्टर्न) इंस्ट्रूमेंट का ही इस्तेमाल होता रहा | राग झिंझोटी में उस्ताद मेहदी हसन साहब की गाई ग़ज़ल ‘गुलों में रंग भरे’ कौन भुला सकता है ? ठुमरी के तर्ज़ पर: ठुमरी के ज़रिए भी ग़ज़लगोई का एक लम्बा सफ़र रहा | ठुमरी के दौरान शेर गाते हुए अक्सर गुलुकार मुखतलिफ़ रागों के ज़रिए मिश्र राग बनाते हैं | इसके लिए भी मशरिक़ी (ईस्टर्न) इंस्ट्रूमेंट का अच्छा-ख़ासा इस्तेमाल होता है | उस्ताद बरकत अली ख़ान साहब की गाई फैज़ अहमद की ग़ज़ल ‘दोनों जहान तेरी मुहब्बत में हार के’ ठुमरी स्टाइल में गाई ग़ज़ल का बेहतरीन नमूना है |
गीत के तर्ज़ पर
कई बार ग़ज़लों को गीतों की तरह गाया गया | ऐसा अक्सर तब हुआ जब फिल्मों में इसकी ज़रुरत पड़ी | फिल्मों में अक्सर ऐसा होता है कि कहानी, किरदार और मंज़रनामे की ज़रुरत के मद्दे-नज़र ग़ज़लों को रवायती मौसीक़ी में न ढाल कर नई तरह से कंपोज़ किया जाता है | इसमें ‘गान-पन’ इतना ज़ियादा रहता है कि आम लोगों के ज़बान पर बेहद आसानी से चढ़ जाती है| इस तरह की ग़ज़लों में ‘ईस्टर्न’ और ‘वेस्टर्न’ दोनों तरह के इंस्ट्रूमेंट इस्तेमाल किए जाते हैं |
मुजरे के तर्ज़ पर
मुजरे में अक्सर ये हुआ करता है कि शेर का मिसरा ठहराओ और हल्की लयकारी के साथ पढ़ा जाता है, इस दौरान हरकतें, मुर्कियाँ बेहद शानदार तरीक़े से ली जाती हैं | दूसरे मिसरे में अक्सर इंस्ट्रूमेंट का इस्तेमाल देखा जाता है| मुजरे में भी अक्सर गुलूकार मिस्र रागों का ख़ूबसूरत इस्तेमाल करते हुए पाए जाते हैं | कहरवा ताल पर रोशन आरा बेग़म की राग मधुमाद सारंग में गाई ग़ज़ल ‘होने को तो क्या हुआ नहीं है’ मुजरे के तर्ज़ पर गाई ग़ज़ल का अच्छा मिसाल है|
क़व्वाली के तर्ज़ पर
क़व्वाली में भी ग़ज़लों का बेहद ख़ूबसूरत इस्तेमाल हुआ है | हारमोनियम, ढोलक, तबला और क़व्वालों की ताल में बँधी तालियाँ इसे एकदम मुख्तलिफ़ अंदाज़ में पेश करती हैं | आमतौर पर क़व्वाली में शेर गाते हुए गायकी का तर्ज़ बहुत लगा-बँधा मिलता है | ऐसे में गायकी में बहुत ज़ियादा गुंजाइश नहीं रह पाती, लेकिन तमाम बंधनों के बाद भी उस्तादों ने कमाल किया है और एक से बढ़कर एक क़व्वाली गायी |
बतरन्नुम मुशायरे के तर्ज़ पर
लगभग हर शायरी पसंद करने वाले ने मुशायरे में किसी न किसी शायर को अपने शेर गाकर सुनाते ज़रूर देखा होगा | इस दौरान किसी म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट का इस्तेमाल नहीं होता और न ही किसी राग का इस्तेमाल होता है | शायर कभी अपने पसंदीदा फ़िल्मी धुन तो कभी ख़ुद की सोची हुई धुन पर अपने शेर सुनाता है | ख़ुमार बाराबंकवी साहब, जिगर मोरादाबादी साहब और मजाज़ लखनवी साहब ऐसे नाम हैं, जो तरन्नुम में अपने शेर पढ़ा करते थे |
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