Jigar Moradabadi

जब जिगर कहते, “मेरा ख़ुदा मुझे शराब पिलाता है, आप कौन होते हैं रोकने वाले”

1890 को एक इल्मी और मज़हबी घराने में पैदा होने वाले जिगर मुरादाबादी कब शराब के आदी हो गए थे उन्हें भी इस बारे में कुछ पता नहीं था। जब उनसे कुछ पूछा जाता तो वह बस इतना कहते, “शुरू जवानी का कोई दिन था कि आँखें एक बेपनाह हुस्न की ज़द में आ गईं और मैं मदहोशी के असीमित सफ़र पर निकल पड़ा।”

जिगर के साथ वक़्त गुज़ारने वाले बताते हैं कि शराब की बोतल सिर्फ़ उस वक़्त जिगर के हाथ से छूटती जब वह बेहोशी के आलम में होते। नशा उतरता और फिर पीना शुरू कर देते। जिगर ने शराब की क्वालिटी, हद और पीने के वक़्त के बारे में कभी कुछ नहीं सोचा। वह हर वक़्त, हर तरह की शराब ज़्यादा से ज़्यादा पीना चाहते थे।

उनके नज़दीक शराब में पानी या और किसी चीज़ की मिलावट एक गुनाह के बराबर थी। वह बोतल मुँह से लगाते और चाहते कि एक ही बार में आख़िरी क़तरा तक निचोड़ कर पेट में उंडेल लें। कई-कई दिन तक शराब पीने का यह सिलसिला यूँही चलता रहता। उनके लिए फ़िक्रमंद अहबाब जब उनसे इस मामूल में कमी करने के लिए कुछ कहते तो जिगर का सीधा सा जवाब होता,

“मेरा ख़ुदा मुझे शराब पिलाता है तो आप कौन होते हैं रोकने वाले।”

जिगर कश्मीर में अपने अहबाब के साथ

जिगर की आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं थी। चश्मे का एक छोटा सा कारोबार रहा और वह भी चला ना चला। उनकी शराब का सारा बार उनके दोस्तों और चाहने वालों की जेब पर होता था। अगर कोई पैसे देने से इनकार करता तो जिगर कहते, “तुम्हें पता है तुमसे ‘जिगर’ पैसे मांग रहा है।”

जिगर तबियत के बहुत शरीफ़ आदमी थे। उनके दोस्त फ़िराक़ गोरखपुरी बताते हैं कि जिगर ने शराब पी कर कभी कोई गिरी हुई बात नहीं कही। नशे में भी वह सिर्फ़ अपनी तबियत की शराफ़त का सबूत दे रहे होते थे।

जिगर जब बहुत पी लेते थे तो इतना फ़र्क़ आता कि उनकी बातें बे-तरतीब हो जातीं। अभी ग़ज़ल और उर्दू शायरी पर बात कर रहे होते कि अचानक विषय बदलता और चश्मों के कारोबार पर बात करने लगते।

जोश के लिहाफ़ में जिगर

एक शाम जिगर ने दिन ढलते ही पीना शुरू कर दिया था। वह करोल बाग में अपने दोस्त मालिक राम के घर ठहरे हुए थे। आधी रात को अचानक मालिक राम से बोले, “चलो जोश के घर चलते हैं।” जोश उस ज़माने में करोल बाग में ही एक मकान में रह रहे थे।

मालिक राम बताते हैं, “हमने बहुत कहा कि जोश इस वक़्त सो चुके होंगे। इतनी रात गए उन्हें दिक़ करना ठीक नहीं होगा। लेकिन जिगर ने किसी की ना मानी। आख़िर सबने आफ़ियत इसी में महसूस की कि जैसा वो कहते हैं वैसा ही किया जाए।”

जाड़ों की सर्द रात में मालिक राम जिगर को लेकर निकल पड़े। महमूद उनको सहारा देते हुए चल रहे थे। जिगर चंद क़दम चलते और अचानक सड़क के बीचो-बीच रुक कर तक़रीर शुरू कर देते। बहुत मुश्किल से तीन चार-सौ गज़ का फ़ासला कोई घंटा भर में तय हुआ।

जोश के दरवाज़े पर पहुँचते ही जिगर ने आवाज़ें लगाना शुरू कर दीं और दरवाज़ा पीटना शुरू कर दिया। जोश ने जेसे ही दरवाज़ा खोला जिगर लपक कर कमरे में दाख़िल हुए और उनके लिहाफ़ में जा घुसे।

जिगर के साथियों ने बहुत कोशिश की के वो वापस चलें और जोश को सोने दें लेकिन जिगर हर बार लिहाफ़ के अंदर से यही कहते “रात बहुत हो गई है मैं यहीं सोऊंगा तुम चले जाओ।”

जोश ख़ामोश खड़े ये तमाशा देखते रहे और जिगर की शराब पर लानत भेजते रहे।

जोश मलीहाबादी

माशूक़ पत्नी से जुदाई

शराब-नोशी की इसी कसरत के चलते जिगर का घरेलू जीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ था। उनकी शादी सूफ़ियाना मिज़ाज रखने वाले शायर असग़र गोंडवी की साली नसीम से हुई थी, जिनसे वो बेपनाह मुहब्बत करते थे।

जब जिगर शराब से बाज़ ना आए तो दोनों के बीच तलाक़ हो गई। नसीम की जुदाई ने जिगर को भावनात्मक रूप से तोड़ कर रख दिया था। पत्नी से जुदाई के बाद उनकी शराब-नोशी और ज़्यादा बढ़ गई थी। हफ़्तों-हफ़्तों मदहोश के आलम में घर से बाहर रहते।

अकेलेपन को भरने के लिए तवाइफ़ों से भी रस्म-ओ-राह पैदा की लेकिन सारी कोशिशें नाकाम रहीं। जिगर हर वक़्त यही चाहते कि नसीम दोबारा उनकी ज़िंदगी में आ जाएं। लेकिन यह इसलिए असंभव था कि जिगर से अलग होने के बाद असग़र गोंडवी ने नसीम से शादी कर ली थी। कुछ अर्से बाद असग़र का निधन हो गया। अब जिगर नसीम को पाने के लिए और ज़्यादा बेचैन हो गए। नसीम से शादी की बात चली तो जिगर के लिए सबसे बड़ी मुश्किल यह आन पड़ी कि नसीम ने उन्हें लिख भेजा,

“अगर जिगर शराब से तौबा करते हैं और कभी न पीने का वादा करते हैं तो मैं शादी के लिए तैयार हूँ।”

इश्क़ की इस मंज़िल पर जिगर के लिए यह शर्त मंज़ूर कर लेना आसान था। ग़रज़ नसीम आ गई और शराब चली गई।

इसके बाद जिगर की ज़िंदगी का एक दूसरा सफ़र शुरू हुआ। जिसकी मंज़िल मस्जिदें और ख़ानक़ाहें थीं।

बाएं से: जिगर मुरादाबादी, इस्मत चुग़ताई, अली सरदार जाफ़री

मुशायरों के ‘जिगर’

शराब ने जिगर के निजी जीवन में जितनी भी मुश्किलें पैदा की हों लेकिन इससे उनकी शायराना शख़्सियत को बहुत ख़ुराक मिली। जब वे अपनी वज़्अ-दार शख़्सियत, चौड़ी शेरवानी, लंबी टोपी, बे-तरतीब बालों, बोसीदा ब्याज़ और शराब की बोतल के साथ मुशायरे के स्टेज पर आते तो श्रोता दीवाना-वार ‘जिगर’ ‘जिगर’ पुकारने लगते। मुशायरा कुछ समय के लिए दरहम-बरहम हो जाता। और फिर जिगर के गोया होते ही लोग पूरे ध्यान के साथ उन्हें सुनने लगते। रात-भर चलने वाले मुशायरे में जिगर को कई-कई बार शेर पढ़ने के लिए बुलाया जाता।

कभी-कभी ऐसा होता कि जिगर मदहोशी के आलम में सिर्फ़ एक मिसरा पढ़ते और देर तक माईक हाथ में थामे झूमते रहते। शेर के दूसरे मिसरे की आवाज़ें श्रोताओं की तरफ़ से बुलंद होने लगतीं।

कैसी फ़ारूक़ी जो जिगर के दोस्तों में से थे एक मुशायरे को याद करते हुए लिखते हैं,

“मैंने यह आलम भी देखा है कि जिगर ने ‘ए मुहतसिब ना फेंक’ तरन्नुम से पढ़ा और ग़ाफ़िल हो गए। मिसरे का बाक़ी हिस्सा मुशायरा-गाह में बैठे लोगों ने दोहराया, ‘मेरे मुहतसिब ना फेंक’ इसके बाद जिगर ज़रा चौंके और वालेहाना अंदाज़ में दूसरा मिसरा पढ़ा,

‘ज़ालिम शराब है अरे ज़ालिम शराब है’

और सारे मुशायरे पर शराब की मदहोशी छा गई। कई मिनट तक मुशायरे में यही शेर गूँजता रहा।”

जिगर मुरादाबादी एक अदबी महफ़िल में कलाम पेश करते हुए

जिगर को शायरी विरासत में मिली थी। उनके ख़ानदान में कई पुश्तों से लोग शेर कहते आए थे। लेकिन जिगर ने अपने रिंदाना और आशिक़ाना मिज़ाज के इस्तिमाल से उर्दू ग़ज़ल को जितना सर्वतमंद किया उतना उनके समकालीन शायरों में कम ही लोग कर सके। ग़ज़ल की विधा में इसी रचनात्मक सहयोग के लिए उन्हें ‘रईस-अल-मतग़ज़्ज़लीन’ के लक़ब से नवाज़ा गया।

“मैं मरना वहीं चाहता हूँ जहां पैदा हुआ”

जिगर का व्यक्तित्व बहुत मुतज़ाद सूरतों से गुथ कर बना था। इश्क़-ओ-आशिक़ी और रिन्दी के साथ-साथ मुल्क़ी सियासत में भी वह बहुत सक्रिय ज़हन और फ़िक्र के साथ शामिल थे। इंडियन नेशनल कांग्रेस और इसके लीडरान से उनके क़रीबी सम्बन्ध रहे। वह मुशायरों में शिरकत के लिए कई बार पाकिस्तान भी गए। उनके चाहने वाले बड़ी तादाद में वहां भी मौजूद थे।

1949 में पाकिस्तान की कई अहम सियासी शख़्सियात ने जिगर से पाकिस्तान में रह जाने और वहां की नागरिकता इख़्तियार करने के लिए इसरार किया लेकिन जिगर का जवाब हमेशा यही होता था,

“मैं मरना वहीं चाहता हूँ जहां पैदा हुआ हूँ।”

जिगर की जीवनी लिखने वाले मशहूर आलोचक शारिब रदौलवी जिगर की वतन-परस्ती के एक दिलचस्प वाक़िये का ज़िक्र करते हैं,

“जिगर साहब 1949 में मुशायरे में शिरकत करने के लिए कराची गए हुए थे। वहां बहुत से लोग उनसे मिलने आए। आए हुए लोगों में एक साहब ऐसे भी थे जो मुरादाबाद के रहने वाले थे और जिगर से पाकिस्तान जाने से पहले ख़ूब मिला करते थे। वह जितनी देर जिगर के पास बैठे रहे हिन्दुस्तान की बुराई करते रहे। जिगर साहब को उनकी बातें सुनकर ग़ुस्सा आ गया और तल्ख़ लहजे में बोले, ‘नमक-हराम तो बहुत देखे हैं, लेकिन वतन-हराम पहली बार देख रहा हूँ।”

जिगर मुरादाबादी की किताबें

आख़िरी बरसों में जिगर मुरादाबाद से गोंडा चले गए थे और वहीं 1960 में उनका निधन हुआ। जिगर के निधन पर फ़िराक़ गोरखपुरी ने लिखा था, “जब तक जिगर ज़िंदा थे हम सब ज़िंदा थे। मेरी ज़िंदगी का सबसे बड़ा ग़म जिगर की मौत है और सबसे बड़ा सुकून जिगर की याद।”