Kaanto Ke Bhi Kitne Rang

काँटों के भी कितने रंग

इश्क़ का जो तसव्वुर है उसमें जिस सेल्फ़लेसनेस, और दुख की बर्दाश्त, बल्कि दुखों से भी लुत्फ़-अंदोज़ होने का ख़्याल, और जो हसरत है, उसके लिए बहुत सारी तश्बीहात, इस्तिआरे, रूपक, उपमाएँ, मैटाफ़र्स गढ़े गए हैं। उनमें से एक जो मुझे बे-इंतिहा पसन्द है, वो है ख़ार/ काँटा/ थोर्न।

न ऐसा तेज़ कि जान ही ले ले, न ऐसा हल्का कि सुकून का सांस लेने दे, न ऐसा ज़ाहिर कि सब पर हालत ज़ाहिर हो जाए, यानी मौत की सहूलत से भी गए, सुकून जो छिना सो अलग, और कोई पुरसान-ए-हाल भी नहीं, जो दो लफ़्ज़ हमदर्दी के ही इनायत कर सके, और उस पर सितम ये कि शरीअत-ए-इश्क़ में रुक कर काँटा निकालना, या ताज़ा-दम होना, या उस काँटे को बुरा समझना तक कुफ़्र है।

इससे ख़ूबसूरत मैटाफ़र उस ख़लिश के लिए क्या हो सकता था, उस टीस को इससे बेहतर कोई शय कैसे बयान कर सकती थी! तीर-ए-नीमकश में भी एक ख़तरा तो था ही कि ज़रा सी ताक़त ज़ियादा लगा के अगर मारा गया तो वहीं क़िस्सा ख़त्म, फिर तीर नज़र भी आता है, तो हमदर्दी भी बटोरी जा सकती है, कोई मदद भी कर देगा, राह में बिना रुके भी निकाला जा सकता है, मगर काँटा? न कोई पुरसान-ए-हाल, न ही बिना रुके उससे छुटकारा, और कितनी ही ज़ोर से क्यों न लगे, मौत की लक्ज़री नसीब नहीं हो सकती।

सो हर वक़्त रह रह कर उठने वाली इस टीस के लिए पाँव के काँटे से ज़्यादा ख़ूबसूरत और मुनासिब मैटाफ़र शायद मुम्किन ही नहीं। इस एक काँटे को ऐसे रंग रंग के ख़्यालात के लिए इस्तिमाल किया जा सकता है, तो मेरा ये ख़्याल है कि (हालाँकि बहुत अजीब है) काँटे में फूल से ज़ियादा रंग होते हैं। यही वजह है कि अलग अलग ज़बानों में काँटे की चुभन को शायरी में अहम मक़ाम हासिल है।

फ़ारसी में मलिक क़ुमी का शेर देखिए:

रफ़तम कि ख़ार अज़ पा कशम, महमिल निहाँ शुद अज़ नज़र
यक लहज़ा ग़ाफ़िल गशतम ओ सद साला रा हम दूर शुद

यानी मैं ज़रा देर ठहरा कि पाँव से काँटा निकाल लूँ, इतनी देर में महमिल नज़रों से ओझल हो गया। एक लम्हे की ग़फ़लत ने सौ साल की दूरी पैदा कर दी, गोया राह-ए-इश्क़ में एक लम्हे की ग़फ़लत भी जाएज़ नहीं है।

राज़ यज़दानी का शेर देखिए:

ठहर के तलवों से काँटे निकालने वाले!
ये होश है तो जुनूँ कामयाब क्या होगा

और पाँव के काँटे को निकालना तो वैसे ही आशिक़ को ज़ेब नहीं देता। आशिक़ तो वो जो न आबलों से घबराए, जो न काँटों से पाँव खींचे, न पाँव से काँटे, बल्कि उसकी तो हसरत ही काँटों भरी राहें हैं, जिनसे वो कभी अपने पाँव के छाले फोड़े कभी पूरी वादी को अपने पाँव के ख़ून से रंगीन कर दे। ग़ालिब ने काँटों को नश्तर बनाया और अपने आबलों का इलाज किया।

इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं
जी ख़ुश हुआ है राह को पुर-ख़ार देख कर

इक़बाल सुहेल का शेर है:

हर रश्क-ए-इरम वादी-ए-पुर-ख़ार-ए-मोहब्बत
शायद इसे सींचा है किसी आबला-पा ने

मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी ‘हवस’ का शेर है:

तेज़ रखना सर-ए-हर ख़ार को ऐ दश्त-ए-जुनूँ
शायद आ जाए कोई आब्ला-पा मेरे बाद

यानी मैंने और मेरे पाँव के आबलों ने तो हस्ब-ए-ताक़त और हस्ब-ए-तौफ़ीक़ इस ख़ार-ज़ार को ख़ूब रंगीन कर दिया, लेकिन अब जो मैं विदा’ हो रहा हूँ तो ये मत सोचना कि मेरे बाद कोई और मज़हब-ए-इश्क़ का मानने वाला, कोई और वह्शी यहाँ नहीं आएगा, तेरा काम अपने ख़ारों की नोक को तेज़ रखना है सो वो तू रख, कोई न कोई शायद आ ही जाए अपने पाँव के आबलों को ले कर।

शेक्सपियर ने इश्क़ को ही काँटा कहा है। इन्हीं सिफ़ात की वजह से, यानी एक मुसलसल ख़लिश…….

Is love a tender thing?
It is too rough, too rude, too boisterous and pricks like a thorn

इक़बाल ने इसी काँटे को उक़्दा-कुशा कहा है, यानी वो चीज़ जो किसी गिरह को खोल दे, जो उलझी हुई गुत्थियों सुलझा दे।

हैं उक़्दा-कुशा ये ख़ार-ए-सेहरा
कम कर गिल-ए-बरहना-पाई

आख़िर में मीर का शेर देखिए, काँटों से फफोलों का फूटना, और उन काँटों पर ख़ून की बूंदों को किस ख़ूबसूरती से बयान किया है:

दीदनी दश्त-ए-जुनूँ है कि फफोले पा के
मैंने मोती से पिरो रक्खे हैं हर ख़ार के बीच