क्या रहा है मुशायरे में अब
शायरी और अदब के चाहने वाले कभी भी एक ही शायर या अदीब को लेकर नहीं बैठते, ये तो मुमकिन है कि कोई एक अदीब उन्हें ज़ियादा पसंद हो, मगर ऐसा नहीं होता कि वो किसी और को न पढ़ें, मीर के आशिक़ ग़ालिब के भी दीवाने हो सकते हैं, जौन को चाहने वाले फ़ैज़ की नज़्में भी गुनगुनाते हुए मिल जाते हैं, बात मुहब्बत की है, और अदबी मुहब्बत में बेवफ़ाई जैसी कोई चीज़ नहीं होती, कभी इस नज़्म पर आह निकले तो कभी उस शे’र पर वाह!
इन दीवानों की ये ख़ासियत भी होती है कि ये अक्सर सदियों दूर खड़े शोअरा को साथ ले आते हैं, जैसे, मीर और ग़ालिब का नाम एक साथ आपने कितनी बार सुना होगा जबकि उनमें कई दशकों का फ़ासला है लेकिन कई जगह ज़िक्र ऐसे आता है जैसे वो एक ही वक़्त के हों।
अपने पसंदीदा शायरों को साथ खड़ा कर देने की क़ारी की आदत रही है मगर जब क़ारी इतना सोच रहे हैं, तो क्या शायर अपने से पहले वाले शायर, अपने बराबर वाले शायर, अपने से छोटे (उम्र और तज्रबे में) शायरों के बारे में सोचते नहीं होंगे? और सोचते होंगे तो क्या लिखते नहीं होंगे? बिल्कुल! शायर सोचते भी थे और लिखते भी थे, आइए, आज जानते हैं कि मशहूर शायरों ने दूसरे मशहूर शायरों के बारे में शायरी में ही क्या लिखा है, सबसे पहले ख़ुदा-ए-सुख़न मीर तक़ी मीर की बात की जाए तो उन्होंने मिर्ज़ा रफ़ी “सौदा”, ख़्वाजा मीर “दर्द” और अपने बारे में कहा है,
क्या रहा है मुशायरे में अब
लोग कुछ जमअ आन होते हैं
‘मीर’-ओ-‘मिर्ज़ा-रफ़ी’ ओ ‘ख़्वाजा-मीर’
कितने इक ये जवान होते हैं
अब मीर के समकालीन मुसहफ़ी भी थे, वो मीर और सौदा की बात करते हुए किसी बात पर ख़फ़ा लग रहे हैं,
‘मीर’ क्या चीज़ है ‘सौदा’ क्या है
मुझ को इन लोगों की परवा क्या है
बीसवीं सदी के इंक़लाबी शायर हबीब जालिब, मुसहफ़ी की कैफ़ियत महसूस करते हुए एक पूरी ग़ज़ल उन्हीं के लिए कहते हैं जिसका मतला है,
इक शख़्स बा-ज़मीर मिरा यार ‘मुसहफ़ी’
मेरी तरह वफ़ा का परस्तार ‘मुसहफ़ी’
वहीं मुसहफ़ी के बाद आने वाले शोअरा में यूँ तो उनके अपने शागिर्दों जैसे हैदर अली “आतिश” और पंडित दयाशंकर “नसीम” ने ऐसा कुछ लिखा है जिसका पासंग नहीं मिलता, पंडित दयाशंकर “नसीम” की मसनवी “गुलज़ार-ए-नसीम” अपने आप में एक क्लासिक है। लेकिन इनके बाद आने वाले शायर को जितनी शोहरत मिली, शायद ही ज़माने में किसी को मिली हो और वो हैं मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग़ ख़ाँ “ग़ालिब”!
और ग़ालिब ने बात की है अपने से 75 साल बड़े मीर तक़ी मीर पर,
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ‘ग़ालिब’
कहते हैं अगले ज़माने में कोई ‘मीर’ भी था
बस इतना ही नहीं, बल्कि ग़ालिब ने तो एक जगह मीर के दीवान को कश्मीर की ख़ूबसूरती से जा मिलाया है। ग़ालिब कहते हैं,
मीर के शेर का अहवाल कहूँ क्या ग़ालिब
जिसका दीवान कम अज़ गुलशन-ए-कश्मीर नहीं
वहीं ग़ालिब के शागिर्द अल्ताफ़ हुसैन “हाली” न सिर्फ़ अपने उस्ताद यानी ग़ालिब की बात करते हैं बल्कि शेफ़्ता से वो इस्तिफ़ादा करने की बात करते हैं और मीर को भी उस्तादाना दर्जा ही देते हैं।
‘हाली’ सुख़न में ‘शेफ़्ता’ से मुस्तफ़ीद है
‘ग़ालिब’ का मो’तक़िद है मुक़ल्लिद है ‘मीर’ का
वहीं नून मीम राशिद, मीर और मिर्ज़ा ग़ालिब की बात तो करते ही हैं साथ ही अपने ही हम-अस्र मीरा जी के ग़म में ग़ालिब और मीर के ग़म की सी कैफ़ियत पाते हैं,
मीर हो मिर्ज़ा हो मीरा जी हो
ना-रसा हाथ की नम-नाकी है
एक ही चीख़ है फ़ुर्क़त के बयाबानों में
एक ही तूल-ए-अलम-नाकी है
एक ही रूह जो बेहाल है ज़िंदानों में
एक ही क़ैद तमन्ना की है
जहाँ हबीब जालिब ख़ुद से सदियों पुराने शायर के ग़म को महसूस कर रहे हैं, उनकी शान में ग़ज़ल कह रहे हैं तो वहीं वो अपने हमअस्रों से भी पूरी मुहब्बत रखते हैं, फ़ैज़ की मौत पर मौत ही से शिकायत करते हुए वो कहते हैं,
फ़ैज़ और “फ़ैज़” का ग़म भूलने वाला है कहीं
मौत ये तेरा सितम भूलने वाला है कहीं
कई बार ऐसा भी होता है कि किसी नए पुराने शायर का अंदाज़, उसकी कोई ख़ास बात इतनी मशहूर हो जाती है कि वो आदत उसी शायर के नाम से मंसूब हो जाती है, जैसे मीर की वहशत माहताब यानी चाँद को तकते रहने के साथ बेहद मशहूर है, उसी की तरफ़ इशारा करते हुए फ़राज़ कहते हैं कि,
आशिक़ी में मीर जैसे ख़्वाब मत देखा करो
बावले हो जाओगे माहताब मत देखा करो
एक और बात जो ख़ूब देखने सुनने में आती है कि लोग अक्सर शायरों को किसी पुराने मशहूर शायर के बराबर या ख़िलाफ़ खड़ा करने की कोशिश करते हैं, जैसे शायरी न हो कोई दौड़ हो कि एक ही अव्वल आ सकता है बस, ऐसे में ज़ियादा नुक़सान क़ारी का ही होता है कि वो एक अलग रंग देखने से महरूम हो जाते हैं, बेहतरीन शायर ओबैदुल्लाह “अलीम’ ने कहा है,
जो कुछ भी हूँ मैं अपनी ही सूरत में हूँ “अलीम”
ग़ालिब नहीं हूँ मीर ओ यगाना नहीं हूँ मैं
वहीं कुछ शायर इतने अलग मिज़ाज के होते हैं कि इसी बात को ऐसा रंग दे देते हैं कि सब झूम जाते हैं, इस काम में जौन एलिया को महारत हासिल थी, देखिए अपनी महबूबा, शायरी, इश्क़ और इश्क़ में रश्क को किस तरह लाये हैं,
वो नज़्म की शुरुआत करते हैं कि,
फ़ारिहा, क्या बहुत ज़रूरी है
हर किसी शेर-साज़ को पढ़ना
और नज़्म ख़त्म ऐसे होती है,
क्यूँ तुम्हारी अना क़ुबूल करे
मुझ से इक बेनियाज़ को पढ़ना
मेरे ग़ुस्से के बाद भी तुमने
नहीं छोड़ा मजाज़ को पढ़ना
इसी मिज़ाज का एक मुख़्तलिफ़ अंदाज़ फ़राज़ पेश करते हैं, हममें से अक्सर लोग बचपन में सुपर-मैन या ऐसा ही कोई हीरो बनना चाहते हैं, धीरे धीरे हमें दारा सिंह या गामा पहलवान पसंद आने लगते हैं फिर किसी फ़िल्म के किसी हीरो जैसा लड़ना चाहते हैं मगर बड़े होने पर एहसास होता है कि न तो ऐसा कर पाना आसान है और न ही किसी का सुपरमैन हो पाना मुमकिन है, शायरी में भी ऐसे ऐसे शायर हुए हैं कि उनका दर्जा शायरी के सुपरमैन से कम का नहीं, ऐसे में देखिए कि फ़राज़ किस तरह शायरी में फ़ारसी के बलन्द-तरीन शायरों से ले कर उर्दू शायरी के पैग़म्बरों से होते हुए अपने हम अस्रों तक आ कर अपनी बात कहते हैं,
‘मीर’ओ ‘ग़ालिब’ क्या कि बन पाए नहीं ‘फ़ैज़-ओ-फ़िराक़’
ज़ौम ये था ‘रूमी’ ओ ‘अत्तार’ बन जाएंगे हम
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