बंदूक़ों की नाल से निकलता संगीत
शाम ढली। पहली प्रस्तुति मैहर बैंड। दुनिया में इकलौता… भारतीय शास्त्रीय संगीत का आर्केस्ट्रा। बाबा की अनूठी रचना। इस बार पेश किया राग कोसी कांगड़ा। नरेंद्र का फ्लैश चमका। हर वाद्य से उठती एक अलग धुन- सागर की लहरों की तरह कभी अकेली उठान लिए तो कभी आपस में घुलती-मिलती, कभी तेज प्रवाह के साथ चट्टानों से टकराती तो कभी पल-भर को शांत… ।
प्रस्तुति खत्म होते ही मैं मैहर बैंड के संगीतकारों से बात करने लपककर मंच के पीछे पहुँचा। वे बोलते रहे और मैं नोटबुक में शब्द टीपता रहा।
धीरे-धीरे कुछ देर पहले सुने संगीत के भीतर छिपा अवसाद भी हवाओं में तैरने लगा। ये लोग दुनिया में अपने किस्म के अनूठे संगीतकार हैं, मगर उनके भीतर छोटे कस्बे में मामूली-सी जिंदगी गुजारने का असंतोष भी कहीं गहरे तक था। बातचीत में उनका अतीत किसी किताब की तरह मेरे सामने खुलता गया। सन् 1918 में मैहर वाद्यवृंद की शुरुआत हुई थी। इसका नाम था ‘मैहर स्ट्रिंग आर्केस्ट्रा’। उस्ताद अलाउद्दीन ख़ाँ ने मैहर में फैले प्लेग के दौरान अनाथ बच्चों को प्रशिक्षण देना शुरू किया था। पाँच से नौ साल के लड़के थे। उन्हें काफी मुश्किल ट्रेनिंग दी जाती थी। मार भी पड़ती थी।
इस आर्केस्ट्रा में कई वाद्यों को शामिल किया गया था- क्लारनेट, सारंगा और मिनी प्यानो तक। जब जलतरंग का इस्तेमाल करने में असुविधा हुई तो बाबा को एक नया आविष्कार सूझा। उन्होंने राजा के दरबार में बेकार पड़ी तमाम बंदूकों की नाल कटवाकर उनमें से संगीत के स्वर टटोले और नया वाद्य बनाया नलतरंग। सन् 1926 में भातखंडे संगीत समारोह में बैंड की पहली प्रस्तुति हुई। ये सभी संगीतकार अपनी देहाती वेशभूषा में अकबकाए-से मंच पर पहुँचे। वहाँ बड़े-बड़े संगीतकार थे, लिहाजा बड़ी मुश्किल से इंटरवल के वक्त इन्हें थोड़ी देर के लिए मौका मिला था। इस आर्केस्ट्रा के साथ बाबा वायलिन लेकर खुद भी खड़े होते थे। पहली प्रस्तुति के साथ ही वहाँ सन्नाटा छा गया।
बताते हैं, उसके बाद पूरी रात वहाँ मौजूद लोगों ने सिर्फ मैहर बैंड ही सुना। इसके बाद तो बैंड के संगीतकारों का बड़ा सम्मान हुआ। उनके लिए खास ड्रेस सिलवाई गई। मेरे सामने यह सब कुछ बता रहे बैंड के सदस्य ने वैसी ही खास तरह की ड्रेस पहन रखी थी। उसने हँसते हुए अपने पास बैठे सूरदास और झुर्रेलाल की ओर इशारा किया, “इन्होंने बाबा के हाथों बहुत मार खाई थी।” वे बताने लगे, “धीरे-धीरे बाबा के सिखाए हुए लोगों की मृत्यु होती गई। अब नए और समर्पित शिष्य नहीं मिल रहे हैं।”
मैंने महसूस किया कि उन लोगों की बातों में एक किस्म की उदासी थी। कुछ हासिल न हो पाने की कसक। प्रस्तुति के बाद साज के तारों को टटोलते और उन्हें माड़-पोंछकर सहेजते ये साजिंदे मुझे कोई तमाशा खत्म होने के बाद पेट्रोमेक्स की रोशनी में डोलती परछाइयों से दिखे। अवसाद में डूबी बेमतलब-सी परछाइयाँ। क्या संगीत ने सचमुच उन्हें कुछ नहीं दिया?
धीरे-धीरे कहानी के और भी पन्ने खुलते गए। उस छोटे-से कस्बे में पनप रही स्थानीय राजनीति, ईर्ष्या, महत्वाकांक्षा और लालच भी सामने आने लगा। मेरे सामने उस संगीत संसार का एक दूसरा पहलू भी था, छुद्रता और स्वार्थों से भरा हुआ।
उस रात हमने 14 साल के आरकंद मित्रा के तबले की थपक सुनी, कथक नर्तकी सुष्मिता बनर्जी के पानी के सोते से बहते कदमों और उस्ताद सुजात हुसैन ख़ाँ की सितार पर विलंबित और मध्य लय की प्रस्तुतियों को देखा और सुना। साठ के दशक से दुनिया में नाम कमाने वाली भारतीय शास्त्रीय संगीत की हस्तियों यहाँ आती रही। उन कंठों से फूटे राग और वाद्यों की झनकार साल-दर-साल शायद मैहर के आसमान तले अमर होती गई। जरूर ये राग सो से बच्चों की नींद में सपने बनकर भी उतरते होंगे। संगीत यहाँ के बाशिंदों की यादों में बसा हुआ है। ऐसा लगता है जैसे हम भीतर से खाली और हल्के हो चुके हैं।
हमारे मेजबान रिपोर्टर के पास तमाम किस्से थे। हम हर बार एक जगह से दूसरी जगह जाते वक्त उन किस्सों के पुल से होकर गुजरते थे, क्योंकि वो अक्सर हमारे साथ होते थे। सरौते से सुपारियों के महीन छिलके तैयार करते- जैसे शार्पनर से पेंसिल की लकड़ी की छाल बनती है। अगले दिन मैंने और नरेंद्र ने उनसे छुटकारा पा ही लिया। हम उन्हें बिना कुछ बताए मैहर देवी के मंदिर निकल पड़े। ऊँची, बिल्कुल सीधी-पथरीली सीढ़ियां, मानो आसमान की तरफ जाती हुई। इन सीढ़ियों पर सभी ऊपर की तरफ लपकते बड़े अजीब से दिखते थे। जब हम अपनी थकान मिटाने को क्षण-भर ठहरते, गहरी साँस लेते और पीछे पलटते तो कस्बे के मकान थोड़े और छोटे नजर आने लगते। करीब 18 साल पहले मैं उन्हीं सीढ़ियों पर दौड़ता, अपनी फूलती साँसों को सहेजता ऊपर पहुँचा था। शाम ढल चुकी थी। सूरज की सिंदूरी रोशनी हमारे ऊपर पड़ रही थी। मेरे और पापा के कपड़े तेज हवा से फड़फड़ा रहे थे।
18 साल बाद मैं फिर ऊपर उसी जगह पहुंचा था। संध्या की गहराती कालिमा में मैहर ऑयल कलर से बने किसी लैंडस्केप की तरह नजर आ रहा था। तस्वीर की तरह दूर फ़ैक्टरी की चिमनियों से उठता धुआं… मगर गौर करो तो हल्के-हल्के कांपता हुआ। संगीत के पहले की खामोशी और उसके बाद की… मैहर की चट्टानों में हर कहीं मौजूद है। शायद यह खामोशी ही थी जो बाबा अलाउद्दीन ख़ाँ को बरसों पहले इस कदर भायी कि उन्होंने वहाँ बस जाने का फैसला कर लिया। यहाँ हर कोई बाबा की इतनी चर्चा करता था कि जाने क्यों मुझे शाम होते-होते यह भ्रम होने लगा कि बाबा इसी कस्बे में कहीं हैं। और इन दिनों वे बहुत उदास हैं। किसी पहाड़ी से टकटकी लगाए मुझ जैसे रिपोर्टर की दुविधा को ताकते होंगे।
उस शाम को हम मैहर पहुँची शुभा मुदगल से मिले। शुभा एक सुंदर और सुलझी हुई महिला हैं। गेस्ट हाउस की बाहरी लॉबी में उनसे बातचीत हुई। उन्हीं दिनों उनका क्लासिकल पॉप ‘अली मोरे अंगना’ बाजार में आया था तो मैने उनसे इस बारे में जानना चाहा। “मेरा निर्गुण भजन और सूफियाना कलाम को शास्त्रीय रागों पर रिकार्ड करने का विचार था।” वे कहने लगीं, “मेरे म्यूजिक डायरेक्टर चाहते थे कि इन गीतों के बैकग्राउंड में वेस्टर्न आर्केस्ट्रा लगाया जाए। शुरू में मुझे यह आइडिया पसंद नहीं आया, लेकिन बाद में उनके समझाने और करके दिखाने पर मुझे ठीक लगा। मुझे दिल्ली में बहुत से नौजवान सुननेवाले मिले जो ‘अली मोरे अंगना’ से मेरे फैन बने हैं।”
फ्यूजन पर चर्चा चली तो कहा, “आजकल के कलाकारों को सहूलियत है कि वे हर तरह के संगीतकारों को सुन सकते हैं। यदि कोई रशियन संगीत सुनता है और उससे प्रभावित होकर अपने यहाँ काम करे तो वह भी फ्यूजन है। यह तय है कि अगर कोई सम्मानित कलाकार फ्यूजन तैयार करते हैं तो उनका बेसिक कांसेप्ट अच्छा होता है। फ्यूजन सिर्फ चमत्कार पैदा करने के लिए नहीं होना चाहिए।” शुभा शास्त्रीयता पर बढ़ते बाजार के दबावों को समझ रही थी और कहीं उससे परेशान भी दिखीं, “दिल्ली में अब मैहर जैसी शास्त्रीय संगीत के लायक महफिलें नहीं होती, रात नौ बजे तक हॉल खाली हो जाते हैं। हमें कई बार छोटी प्रस्तुतियों पर निर्भर रहना पड़ता है। कम से कम मुझे उनसे संतुष्टि नहीं मिलती।” उन्होंने कहा।
उसी शाम का अगला पड़ाव था पंडित भजन सोपोरी के पास। कॉलेज में पढ़ने के दौरान मैंने अपने जेब खर्च के पैसों से शास्त्रीय संगीत के कैसेट इकट्ठे करने शुरू किए थे। उन दिनों मेरे पास भजन सोपोरी का एक कैसेट था, जिसे में अक्सर रात को अकेले सुना करता था। पहाड़ी झरने की तरह कलकल बहते स्वर। यह एक लोक-शास्त्रीय वाद्य है, तभी इसमें शायद मिट्टी की महक है।
सोपोरी हमें संतूर के बारे में बताने लगे, “यह वाद्य पहले शैव परंपरा से जुड़ा हुआ था। बाद में इसे सूफियों ने अपना लिया। यह लोक संगीत की परंपरा में नहीं है। यह तंत्र वीणा का ही एक फार्म है। मैंने इसमें तारों के हिसाब, मींड और तरब में परिवर्तन किए हैं। उनसे भी फ्यूजन की चर्चा चलो तो बोले, “हमारे यहाँ खुद ही बहुत फ्यूजन है। हमारे कई राग ही आपसी फ्यूजन से जन्मे हैं। मैंने खुद कुछ प्रयोग किए हैं। मेरी एक सीडी है, ‘कश्मीर-ए रेनबो ऑफ मेलोडीज’ । इसमें संतूर डॉमिनेट करता है और 10-12 वाद्यों का कोरस है। इसी तरह से एक रचना ‘इल लेक’ है। उसमें शिकारे पर चलने-सा एहसास जुड़ा है। यदि हम ऐसी कोई चीज लेंगे तो उसमें एक प्रॉपर पैटर्न बनेगा। हर बात की एक वजह होगी कि में क्यों तबला इस्तेमाल कर रहा हूँ, ड्रम क्यों नहीं।”
उन्होंने कहा, “मेरा यहाँ आना एक श्रद्धांजलि है बाबा सिर्फ संगीतज्ञ नहीं थे। वे पीर, साधू, उपासक थे। मैं खजुराहो से यहाँ आते वक्त सोच रहा था कि बाबा को न तो मुंबई की जरूरत पड़ी और न ही अमेरिका की… “
मगर भारतीय शास्त्रीय संगीत अब अपनी दुनिया कहाँ तैयार कर रहा है मैहर में या दिल्ली, कोलकाता और अमेरिका में? उस दिन बातचीत का यह सिलसिला जारी रहा। कोलकाता से आई सुष्मिता बैनर्जी, सितार वादक सुजात हुसैन ख़ाँ और तबला वादक अभिजीत बनर्जी से चर्चा होती रही, सीडी, फ्यूजन, खत्म होते घराने और लोगों से दूरी बनाते शास्त्रीय संगीत पर।
नरेंद्र के फ्लैश चमकते रहे। देखते-देखते दिन लुढ़क गया। यह मैहर में हमारी अंतिम रात थी।
रात में जाती हुई ठंडक की मौजूदगी का एहसास अभी भी था। बनारस घराने के राजेंद्र प्रसन्ना की बाँसुरी से निकले स्वर भटक रहे थे। उस रात हम लोगों से थोड़ी ही दूरी पर बैठी एक लड़की की दिलचस्पी नरेंद्र के कैमरे से होते हुए हमारी वहाँ मौजूदगी पर जा टिकी। उससे हमारी एक दिन पहले भी मुलाकात हुई थी। सर्दियों की उस अंतिम रात में वह सिर्फ एक शाल में दुबकी सारी रात जागती रहती थी। वह इस समारोह को देखने अपनी बुआ के साथ आई थी। वह थोड़ी ही देर में नरेंद्र और मुझसे घुल-मिल गई।
कटनी से आई इस लड़की ने एक बार बातें शुरू कीं तो बोलती ही चली गई। उसने हमें बताया कि उसके माता-पिता भी संगीत के शौकीन हैं, कि वह इस समय एलएलबी कर रही है, कि जबलपुर के लोग अच्छे नहीं हैं, कि अभी-अभी पुणे के संजीव अभ्यंकर राग बागेश्वरी में बंदिश पेश कर रहे हैं, कि उसका नाम तृप्ति है….।
पडित भजन सोपोरी ने संतूर पर राग कोसी कांगड़ा प्रस्तुत किया। लंबा आलाप और विलंबित लय… तार से झंकृत होते स्वर रात के गिरते तापमान में इस तरह विलीन हो जाते, जैसे बरसात की रात में भटकते पतंगे। अभिजीत बैनर्जी के तबले की थाप ने संतूर के साथ अपनी गति का मिलान शुरू किया। थोड़ी देर में इस प्रस्तुति ने अविस्मरणीय रूप ले लिया। लगा संगीत एक हरी ढलान है। जिस पर हम फिसलते चले जा रहे हैं। रात बीतती चली गई। हम दिन के न सोए कछ अलसाने-से लगे। भास्वती मिश्रा धर्मवीर भारती की रचना ‘कनुप्रिया’ पर आधारित एक नृत्य नाटिका प्रस्तुत कर रही थीं। मैं और नरेंद्र बाहर की तरफ आ गए। आसमान में टिमटिमाते सितारों की रोशनी में अभिजीत हाथों में चाय का प्याला थामे चुस्की लेते नजर आए। मैं, नरेंद्र, अभिजीत, तृप्ति बस उस रात के साथी बन गए थे। हम साथ-साथ चाय पीते हुए बातें कर रहे थे। सुबह होने वाली थी। पूरब सिंदूरी हो चुका था। शाल में दुबकी रात-भर जगी तृप्ति की अलसाई आँखों में रात की परछाइयाँ बाकी रह गई थीं।
अब उस्ताद आशीष ख़ाँ का सरोद वादन होना था, मैहर समारोह की आखिरी प्रस्तुति । उस्ताद ने जिस वक्त तक अपना सरोद सँभाला, हवा अचानक चलने लगी थी। उन्होंने राग जोगिया छेड़ा। इस राग को बजाने का समय सुबह का माना गया है। सूरज की मुलायम रोशनी का एक धब्बा उस्ताद के संतूर पर जा टिका।
और तभी मुझे याद आया कि मैहर से विदा लेने का वक्त आ गया था।
“मुझे नहीं लगता कि इस सबसे आपके कॅरियर में कोई फायदा होगा। संगीत के बारे में आखिर कितने लोग पढ़ते ही होंगे?” सरौते से छिली हुई सुपारियों के छिलके थमाते हुए वहाँ के संवाददाता ने मुझसे कहा। अभी मैं कोई जवाब सोचता कि प्लेटफार्म पर ट्रेन धड़धड़ाती हुई खड़ी हो गई हम जल्दी से भीतर लपके, हाथ हिले और प्लेटफार्म रेंगने लगा। एक-एक कर छूटने लगे- मैहर बैंड के उदास साजिंदे, शाम का धुंधलका, मंच पर थिरकते पाँव, तबले की थाप, कटनी रवाना होते वक्त हमसे पलटकर विदा लेती तृप्ति, बाबा की मजार, शुभा की मधुर आवाज-स ब पीछे छूटता चला गया।
हम इलाहाबाद वापस जा रहे थे। नरेंद्र मेरे बराबर में बैठा खिड़की से बाहर देख रहा था। मैहर पीछे छूट चुका था। तब मैं नौ बरस का था। उस ऊँचाई पर तेज हवा से मेरे कपड़े फड़फड़ा रहे थे। बचपन की स्मृतियों में बसा यह मैहर वास्तविक दुनिया से परे कहीं सपने में देखा हुआ सा लगता था।
“क्या तुम फिर यहाँ वापस लौटोगे?” किसी ने जैसे धीरे से मेरे कानों में कहा। मैंने खिड़की के बाहर झाँका। पीली-पथरीली जमीन भागती जा रही थी। मैंने सीट से सिरे टिकाकर आँखें बंद कर लीं। आँखों के पीछे अँधेरा था। बचपन का आसमान और सरसराती हवा थी। भीतर कहीं बहुत गहरे कोई भूला हुआ राग था। अंधेरे में भूरी-सलेटी पथरीली चट्टाने उभरने लगी। जैसे राग कोई ठोस शक्ल लेने लगे हो…।
मैहर एक बार फिर मेरे लिए अतीत था।
इस ब्लॉग की पहली कड़ी यहाँ पढ़ें : मैहर पार्ट -1
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