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जब शराब पीते हुए एक मैख़ाने में उनकी मौत हो गई

उर्दू की ग़ज़लिया शाइरी का मरकज़ भले ही इश्क़ रहा हो, उर्दू अदब में चंद ग़ज़ल-गो शो’रा हैं, जिन्हें ‘रोमैंटिक’ या रूमानी शाइर के दर्जे में रखा जा सकता है। मजाज़ का नाम यक़ीनन इस फ़ेहरिस्त के सबसे मोतबर शायरों में से एक है। चंद लोगों ने मजाज़ को ‘उर्दू का कीट्स’ भी कहा है। असर लखनवी ने मजाज़ के मुतअल्लिक़ एक बात कही थी, “उर्दू शाइरी में एक कीट्स पैदा हुआ था जिसे तरक़्क़ी-पसंद भेड़िये उठा ले गए।” यक़ीनन इससे बेश्तर लोग मुत्तफ़िक़ नहीं होंगे, बल्कि ख़ुद मजाज़ इस से मुत्तफ़िक़ नहीं थे, लेकिन इस बात से हर सुख़न-शनास मुत्तफ़िक़ है कि मजाज़ एक बेहद नफ़ीस और ख़ूबसूरत शाइर था, जिसका मुतबादिल ढूँढ पाना ना-मुमकिन है।

Asrarul Haq Majaz

मजाज़ की शाइरी किसी वाहिद मौजू के इर्द गिर्द चक्कर नहीं लगाती, बल्कि एक नौजवान की ज़िंदगी के बेश्तर पहलुओं पर बिखरी हुई है। मजाज़ की शाइरी में रूमान भी है, एक कश्मकश भी है, आह-ओ-ग़म भी है, कहीं उम्मीद है तो कहीं ना-उम्मीदी की इंतिहा नज़र आती है। उन की शाइरी में रूमान का पहलू बहुत नुमायाँ है। नज़्मों में रूमान के वो पहलू भी कहीं कहीं उभर के आ गए हैं जिनसे उर्दू शाइरी का दामन कुछ कुछ ख़ाली ही रहा था। इस रूमानियत के साथ बेहतरीन तरन्नुम और ख़ूबसूरत आवाज़ की वज्ह से ये कलाम और ज़ियादा असर-अंदाज़ होता था।

मजाज़ की नज़्म ‘एक ग़मगीन याद’ से कुछ मिसरे यूँ हैं:

मिरे पहलू-ब-पहलू जब वो चलती थी गुलिस्ताँ में
फ़राज़-ए-आसमाँ पर कहकशाँ हसरत से तकती थी

‘मिरे बाज़ू पे जब वो ज़ुल्फ़-ए-शब-गूँ खोल देती थी
ज़माना निकहत-ए-ख़ुल्द-ए-बरीं में डूब जाता था

मिरे शाने पे जब सर रख के ठंडी साँस लेती थी
मिरी दुनिया में सोज़-ओ-साज़ का तूफ़ान आता था’

या फिर उन की नज़्म ‘नज़्र-ए-दिल’ से:

अपने दिल को दोनों आलम से उठा सकता हूँ मैं
क्या समझती हो कि तुम को भी भुला सकता हूँ मैं

दफ़्न कर सकता हूँ सीने में तुम्हारे राज़ को,
और तुम चाहो तो अफ़साना बना सकता हूँ मैं

आओ मिल कर इंक़लाब-ए-ताज़ा-तर-पैदा करें
दहर पर इस तरह छा जाएँ कि सब देखा करें

मजाज़ की शाइरी का सिर्फ़ एक मजमूआ’ शाया हुआ – शब-ताब। यही मजमूआ’ चंद ग़ज़लों/नज़्मों के इज़ाफ़े के साथ मुख़्तलिफ़ नामों से शाया होता रहा, मसलन ‘आहंग’ और ‘साज़-ए-नौ’। ‘आहंग’ के पहले सफ़्हे पर ये ग़ज़ल दर्ज है:

हुस्न को बे-हिजाब होना था
शौक़ को कामयाब होना था

कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी
कुछ मुझे भी ख़राब होना था

Majaz with Syed Muhammad Jafri

इसी ग़ज़ल से उनकी शाइरी और शख़्सियत, दोनों की सिफ़ात ज़ाहिर होने लगती हैं। फ़ैज़ ने मजाज़ के मजमूआ-ए-कलाम ‘आहंग’ के दीबाचे में लिक्खा है कि, ”मजाज़ इंक़लाब का मुतरिब है”। मजाज़ की इंक़लाबी शाइरी भी नग़्मगी से भरी हुई है, और इसके बावजूद असर से ख़ाली नहीं है। उसकी शाइरी में जोश की नज़्म ”शिकस्त-ए-ज़िंदाँ के ख़्वाब” की तरह की सरगर्मी नहीं है, न ही मख़्दूम की नज़्म ‘जाने वाले सिपाही से पूछो’ की तरह ‘लाश जलने की बू आ रही है’ जैसे हौलनाक मनाज़िर ही मौजूद हैं। मजाज़ की शाइरी में जो इंक़लाब नज़र आता है, वो हज़ारों लाखों का मजमा जमा करने की आरज़ू नहीं करता। उसका इंक़लाब दूसरों को पढ़ कर नहीं आता, बल्कि उन हालात से आता है जो वो रोज़ अपने चारों ओर देखता है, और ख़ुद को लाचार पाता है। उस का इंक़लाब एक फ़र्द के ख़याल पर ही नश्वो-नुमा पाता है। मसलन, उस की बेहतरीन नज़्म आवारा से ये बन्द:

मुफ़्लिसी और ये मज़ाहिर हैं नज़र के सामने
सैकड़ों सुल्तान-ए-जाबिर हैं नज़र के सामने
सैकड़ों चंगेज़ ओ नादिर हैं नज़र के सामने
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

ले के इक चंगेज़ के हाथों से ख़ंजर तोड़ दूँ
ताज पर उस के दमकता है जो पत्थर तोड़ दूँ
कोई तोड़े या न तोड़े मैं ही बढ़ कर तोड़ दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

फ़िराक़ साहब से एक इंटरव्यू में सवाल पूछा गया कि वो तरक़्क़ी पसंद तहरीक के मुख़ालिफ़ क्यों हैं तो फ़िराक़ साहब ने जवाब दिया था कि तरक़्क़ी पसंद तहरीक के तहत जो अदब पैदा हुआ, उसमें हर शय को लेकर मनफ़ी नज़रिया इख़्तियार किया गया था। मौजूदा निज़ाम को गालियाँ तो दी गईं लेकिन उस मआशरे के बारे में कुछ नहीं लिखा गया जो इस तहरीक से वाबस्ता अदीब बनाना चाहते हैं, बल्कि इस पर सबसे ज़्यादा लिखा जाना चाहिए था। मजाज़ की नज़्म ‘ख़्वाब-ए-सहर’ उन चंद नज़्मों में से है जिसमें उम्मीद नज़र आती है। एक बेहतर मुस्तक़बिल का ख़्वाब मुकम्मल होते देखने की बात नज़र आती है।

ज़ेहन-ए-इंसानी ने अब औहाम के ज़ुल्मात में
ज़िंदगी की सख़्त तूफ़ानी अँधेरी रात में
कुछ नहीं तो कम से कम ख़्वाब-ए-सहर देखा तो है
जिस तरफ़ देखा न था अब तक उधर देखा तो है

Majaz

अगर इश्क़िया शाइरी की बात करें, तो मजाज़ ने उर्दू शाइरी को माशूक़ का तस्व्वुर बिना बदले आशिक़ का एक नया तस्व्वुर देने की एक कारगर कोशिश दिखलाई है। मसलन ये अशआर,

ये मेरे इश्क़ की मजबूरियाँ मआज़-अल्लाह
तुम्हारा राज़ तुम्हीं से छुपा रहा हूँ मैं

देखेंगे हम भी कौन है सज्दा-तराज़-ए-शौक़
ले सर उठा रहे हैं तिरे आस्ताँ से हम

ये आना कोई आना है कि बस रस्मन चले आए
ये मिलना ख़ाक मिलना है कि दिल से दिल नहीं मिलता

ये रंग-ए-बहार-ए-आलम है क्यूँ फ़िक्र है तुझ को ऐ साक़ी
महफ़िल तो तिरी सूनी न हुई कुछ उठ भी गए कुछ आ भी गए

उर्दू शाइरी फ़ारसी की रवायत पर चलती हुई कभी भी मुज़क़्क़र मोअन्नस ज़ाहिर नहीं करती, लेकिन मजाज़ बार बार इस पर्दे से आगे निकल आते हैं, और साफ़ तौर पे गोश्त पोष्ट वाली औरत से बात करते हैं। मजाज़ की मशहूर-ए-ज़माना नज़्म ”नौजवान ख़ातून” से इसकी एक मिसाल है।

हिजाब-ए-फ़ित्ना-परवर अब उठा लेती तो अच्छा था
ख़ुद अपने हुस्न को पर्दा बना लेती तो अच्छा था

दिल-ए-मजरूह को मजरूह-तर करने से क्या हासिल
तू आँसू पोंछ कर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था

तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था

मजाज़ की नज़्म ‘एतिराफ़’, भी इस नुक़्ते की एक मिसाल है, और अब तक की उर्दू शाइरी में एतिराफ़ करने की एक नई मिसाल भी है।

वो गुदाज़-ए-दिल-ए-मरहूम कहाँ से लाऊँ
अब मैं वो जज़्बा-ए-मासूम कहाँ से लाऊँ

मेरे साये से डरो तुम मिरी क़ुर्बत से डरो
अपनी जुरअत की क़सम अब मेरी जुरअत से डरो
तुम लताफ़त हो अगर मेरी लताफ़त से डरो
मेरे वादों से डरो मेरी मोहब्बत से डरो
अब मैं अल्ताफ़ ओ इनायत का सज़ा-वार नहीं
मैं वफ़ादार नहीं हाँ मैं वफ़ादार नहीं
अब मिरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो

उस की नज़्म ”नूरा” और चंद दूसरी मिसालों में ये बात सामने आती है।

बेहद ख़ुश-मिज़ाज होने के बावजूद मजाज़ एक बेहद हस्सास शख़्सियत था, जो उसकी शाइरी से भी ज़ाहिर होता है। सरदार जाफ़री अपनी किताब, ”लखनऊ की पाँच रातें” में ज़िक्र करते हैं कि मजाज़ जितना ख़ुश-मिजाज़ था उतना ही हस्सास भी। एक तरफ़ मजाज़ की हाज़िर-जवाबी के क़िस्से मशहूर हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ अगर कोई अपना उससे कुछ कह देता था तो मजाज़ की हालत ये न रहती थी कि वो जवाब भी दे सके। उसने अपनी ज़िन्दगी के वाक़िआत से बहुत गहरा असर क़ुबूल किया, दिल्ली से वापसी और एक नाक़ाम मुहब्बत का ज़ख़्म जो उम्र भर रिसता रहा। हर वाक़िए का उसकी शाइरी पे एक गहरा असर दिखाई देता है। इसी के बाइस उस को 44 बरस की मुख़्तसर उम्र में दो बार नरवस ब्रेकडाउन से गुज़रना पड़ा। मजाज़ का मौत और बर्बादियों के साथ भी अजीब रिश्ता था जो चंद अशआर में साफ़ नज़र आता है:

ज़िंदगी साज़ दे रही है मुझे
सेहर-ओ-एजाज़ दे रही है मुझे
और बहुत दूर आसमानों से
मौत आवाज़ दे रही है मुझे

मिरी बर्बादियों का हमनशीनों
तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है

टपकेगा लहू और मिरे दीदा-ए-तर से
धड़केगा दिल-ए-ख़ाना-ख़राब और ज़ियादा

Majaz Grave

मजाज़ अपनी आख़िरी रात लखनऊ के दोस्तों के साथ मैख़ाने गए थे। एस.एम. मेहदी ने ज़िक्र किया था कि वो जलाल मलीहाबादी के साथ गए थे, जो ग़ालिबन जोश मलीहाबादी के भाँजे थे। भीड़ होने के वज्ह से दोनों एक बस की छत पर चढ़ कर शराब पीने लगे। जलाल मलीहाबादी तो उतर आए, लेकिन मजाज़ की हालत ये न थी कि वो नीचे आते। वो दिसंबर की सर्दी में रात भर छत पर पड़े रहे। सुब्ह ख़बर आई कि मजाज़ को स्ट्रोक हुआ है, और उन्हें हस्पताल में दाख़िल किया गया और वहीं उनका इंतिक़ाल हुआ। उनकी क़ब्र उनकी बहन सफ़िया अख़्तर के साथ बनाई गई, जिस पर मजाज़ ही की नज़्म से एक शेर लिखा हुआ है:

अब उस के बा’द सुब्ह है और सुब्ह-ए-नौ ‘मजाज़’
हम पर है ख़त्म शाम-ए-ग़रीबान-ए-लखनऊ