जब शकील बदायुनी सरकारी नौकरी छोड़ कर मुंबई में क़िस्मत आज़माने लगे
अच्छी मौसीक़ी सुनने और पसंद करने वालों से बात की जाए तो उनका आम तअ’स्सुर ये होता है कि अब जो गाने लिखे जा रहे हैं, उनका मेयार एक सत्ह के भी बहुत नीचे गिर चुका है। सवाल करने पर इतना ही आम तअ’स्सुर ये भी है कि पुराने गीत और उनके बोल आज भी उसी तरह से हमारे दिल में अपनी जगह बनाए हुए हैं, जिस तरह वो आज से पचास बरस पहले बराह-ए-रास्त दिल में उतर जाते थे।
बैजू बावरा का गीत ”मन तड़पत हरि दर्शन को” किसे याद नहीं?
मधुबन में ”राधिका नाचे रे” जैसे ख़ूबसूरत गीत आज भी किस शख़्स को अपने सेहर में तारी नहीं कर सकता?
”चौदहवीं का चाँद हो” जैसे गीत के बारे में क्या ही कहा जा सकता है?
”रहा गर्दिशों में हर-दम” क्या हमारी और आइंदा आने वाली नस्लों के रंज-ओ-ग़म का तर्जुमान नहीं है?
अब मैं आपसे सवाल करता हूँ कि आप इन सब गीतों में मुमासिलत तलाश करें। पहली नज़र में तो इनमें से हर एक गीत की नौइयत मुख़्तलिफ़ मालूम होती है लेकिन नज़र-ए-सानी करने पे आप में से बेश्तर लोग ये बता सकते हैं कि इन सारे गीतों को रफ़ी साहब ने आवाज़ दी है। आप में से कुछ लोग ये भी बता सकते हैं कि पहले दो गीतों का संगीत नौशाद ने और बाद के दो गीतों का संगीत रवी ने दिया है। अगर मैं कहूँ कि इन सारे गीतों को जोड़ने वाली एक और डोर है तो शायद आप जवाब न दे सकें।
जवाब ये है कि ये सब गीत, और इसी तरह के सैंकड़ों गीत जो बॉलीवुड की तारीख़ में संग-ए-मील की हैसियत रखते हैं, शकील बदायुनी के क़लम से निकले हैं।
शकील का मर्तबा ब-तौर गीतकार जिस दर्जा बुलंद है, ब-तौर एक शाइर भी उनका मर्तबा कुछ कम नहीं है। पहले उनके शाइराना पहलू के हवाले से बात करते हैं। शकील की पैदाइश 3 अगस्त 1916 को बदायूँ में हुई थी। उनके वालिद जमील अहमद क़ादरी बम्बई की एक मस्जिद में इमामत करते थे, लिहाज़ा उनका ज़ियादा-तर वक़्त बदायूँ से बाहर गुज़रता था। शकील की तरबियत ज़िया-उल-क़ादरी साहब की निगरानी में हुई और उनकी अरबी, फ़ारसी और उर्दू की तालीम घर में हुई। ज़िया-उल-क़ादरी साहब शकील के वालिद जमील अहमद क़ादरी के पड़ोसी और बेहद अज़ीज़ दोस्त थे। वो नात और मन्क़बत के माने हुए शाइर और क़लंदर-सिफ़त शख़्स थे। उन्हीं के ज़ेर-ए-साया शकील में शाइरी का ज़ौक़ पैदा हुआ और वो ग़ज़ल-गोई की तरफ़ मुतवज्जेह हुए। ये भी कहा जाता है कि शकील ने अपनी ग़ज़ल महज़ 13 साल की उम्र में कही थी।
जब उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया तो रशीद अहमद सिद्दीक़ी, आल-ए-अहमद सुरूर जैसे क़ाबिल असातेज़ा उन्हें मिले जिन्होंने शकील के हुनर को मज़ीद निखारा। इस ज़माने में उन्होंने कई शाहकार ग़ज़लें कहीं और बे-शुमार मुशायरों में सुनने वालों को अपनी शाइरी से लुत्फ़-अंदोज़ किया। उनके चंद शेर देखें:
अब तो ख़ुशी का ग़म है न ग़म की ख़ुशी मुझे
बे-हिस बना चुकी है बहुत ज़िंदगी मुझे
सामने है सनम-कदा,सू-ए-हरम नज़र भी है
ज़ौक़-ए-सुजूद मरहबा, सर भी है, संग-ए-दर भी है
काँटों से गुज़र जाता हूँ दामन को बचा कर
फूलों की सियासत से मैं बेगाना नहीं हूँ
नई सुब्ह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है
ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे
मुझे छोड़ दे मिरे हाल पर तिरा क्या भरोसा है चारा-गर
ये तिरी नवाज़िश-ए-मुख़्तसर मिरा दर्द और बढ़ा न दे
अपनी तालीम ख़त्म करने के बाद शकील 1943 में हुकूमत-ए-हिन्दोस्तान के महकमा-ए-सप्लाई में मुलाज़िम हो गए और जल्द ही उन्हें ये एहसास हो गया कि शाइरी और नौकरी दो मुतज़ाद चीज़ें हैं जिनका शाना-ब-शाना चलना जू-ए-शीर लाने से कम नहीं, लेकिन मआश की फ़िक्र फ़नकार से ये तवक़्क़ो करती है कि फ़नकार के लिए तख़्लीक़ सानवी शय बनी रहे।
1946 में जब शकील एक मुशायरा पढ़ने के लिए बम्बई गए तो ए.आर. कारदार ने उनसे गीत लिखने की फ़रमाइश की और शकील ने हाँ कर दी। वापस दिल्ली आ कर उन्होंने नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया और रिहाइश के इरादे से बम्बई चले गए। हालाँकि ये गुमान गुज़रता है कि शकील को बॉलीवुड में बहुत आसानी से जगह मिल गई लेकिन जब हम ख़ुद शकील का लिखा हुआ सवानह-ए-हयात पढ़ते हैं तो हक़ीक़त मालूम होती है। उन्होंने ख़ुद लिखा है:
इस इंडस्ट्री में फ़नकार की इज़्ज़त उस वक़्त होती है जब अवाम उसका दम भरे। जब उसके फ़न की विसातत से फ़िल्म-साज़ अपनी तिजोरियाँ भर सके।
और,
फ़िल्मी दुनिया से बाहर उसके जानने वाले उसकी हस्ती और उसकी क़िस्मत पर रश्क करते हैं। उन्हें क्या मालूम कि जब तक उसके फ़न को मक़बूलियत-ए-आम का शरफ़ हासिल न होगा उस बेचारे की हालत गदागर की सी रहेगी, चुनाँचे मैं भी इस बेचारगी के दौर से गुज़रा और अक्सर रातों को सोचा करता था कि मेरे ख़ुदा ये क्या बेवक़ूफ़ी कर बैठा। अच्छी ख़ासी नौकरी छोड़ कर इस ज़िल्ल्त-ख़ाने में आ गया।
लेकिन शकील के फ़न में वो क़ाबिलियत थी कि जब उनका लिखा हुआ पहला गाना रिलीज़ हुआ, मुतलक़ हिन्दोस्तान में इस गीत की गूँज सुनाई दी। गीत ”दर्द” फ़िल्म का था, और उमा देवी ने इस गीत को आवाज़ दी थी। गीत के बोल यूँ थे:
अफ़साना लिख रही हूँ दिल-ए-बेक़रार का
आँखों में रंग भर के तिरे इंतज़ार का
अफ़साना लिख रही हूँ…
आप में से बेश्तर को ये गीत ज़रूर याद होगा। जहाँ ये गीत बेहद मक़बूल हुआ, ये गीत एक और वज्ह से भी बेहद अहम है। इस गीत का संगीत नौशाद ने दिया है। नौशाद वो वाहिद शख़्स थे जिन्होंने बम्बई में उनके कामयाब होने से पहले उनका साथ दिया और हौसला-अफ़ज़ाई की। और मुझे नौशाद-शकील की जोड़ी के बारे में कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं है। शकील ने बेश्तर काम नौशाद के लिए किया, और ये सिलसिला तब तक जारी रहा जब तक शकील ज़िंदा रहे। एक तवील फ़ेहरिस्त है गीतों, की जो उन्होंने नौशाद के लिए लिखे, किस-किस की बात की जाए। मसलन मिलते ही आँखें दिल हुआ दीवाना किसी का, दिल में छुपाके प्यार का तूफ़ान ले चले, न मिलता ग़म तो बर्बादी के अफ़साने कहाँ जाते, तू गंगा की मौज मैं जमना का धारा…
सबसे पहले मैंने जिन गीतों का ज़िक्र किया, मैंने जान-बूझ कर रफ़ी साहब के गीतों का इंतिख़ाब किया। रफ़ी साहब, नौशाद और शकील आपस में गहरे दोस्त थे। वाक़िआ’ है कि रफ़ी साहब ने बॉलीवुड में गाना तर्क करके बम्बई से वापिस पंजाब जाने का फ़ैसला कर लिया और नौशाद साहब से आ कर कहने लगे, बम्बई में मेरा मन नहीं लग रहा। मैं पंजाब लौट रहा हूँ। वहाँ रागों पे मुनहसिर तराने गाऊँगा। नौशद ने रफ़ी साहब से रुकने के लिए इल्तिजा की, और कहा, आप चंद रोज़ रुकिए। मैं आपके लिए वैसे तराने बनाऊँगा।
इसके बाद शकील का लिखा हुआ गीत, नौशाद के संगीत के साथ फ़िल्म दुलारी में रफ़ी साहब की आवाज़ में रिलीज़ हुआ, और गाना इस हद तक मक़बूल हुआ कि आज भी संग-ए-मील की हैसियत रखता है। वो गीत है:
सुहानी रात ढल चुकी
न जाने तुम कब आओगे
जहाँ की रुत बदल चुकी…
न जाने तुम कब आओगे
शकील की नौशाद के साथ आख़िरी फ़िल्म ”संघर्ष” थी और उसके गीत भी रफ़ी साहब की आवाज़ में थे। ये दोस्ती और बेहतरीन गीतों का सिलसिला तब चलता रहा जब तक ख़ुद शकील के इन्तिक़ाल की ख़बर नहीं आ गई। शकील महज़ 51 बरस की उम्र में इस जहान-ए-फ़ानी को अलविदा कह गए, लेकिन उनका छोड़ा हुआ शे’री सरमाया और उनके गीत हमेशा याद किए जाते रहेंगे। वो हमेशा इस बात पर नाज़ करते रहे कि जो कुछ वो लिखते हैं, वो उनकी अपनी ज़िंदगी से मुख़्तलिफ़ नहीं है। उन्हीं का शेर है:
मैं शकील दिल का हूँ तर्जुमा, कि मोहब्बतों का हूँ राज़दाँ
मुझे फ़ख़्र है मेरी शाइरी, मेरी ज़िंदगी से जुदा नहीं
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