क्या शायरी परफ़ॉर्मिंग आर्ट है
शायरी में करियर ढूंढना सुसाइडल है | इसका ये मतलब बिलकुल भी नहीं कि ये हिम्मत का काम है, बल्कि एक तरह की कायरता है, जिसमें शायर सब कुछ करेगा सिवाय शायरी के | एक घटना जो कहीं किसी किताब में पढ़ी थी, याद आ रही है:
“एक बार स्पेंडर एलियट से मिलने गए | उस वक़्त उनकी कुछ कविताएँ ही मंज़र-ए-आम पर आई हुई थीं | बातों-बातों में एलियट ने स्पेंडर से पूछा, “आने वाले वक़्त में आप कौन सा प्रोफ़ेशन चुनना पसंद करेंगे? इस सवाल के जवाब में स्पेंडर ने बड़े ग़ुरूर से जवाब दिया, ‘मैं शायर बनना चाहता हूँ |”
बाद में इसी सिलसिले से एलियट ने अपने एक दोस्त से बात की और हँसते हुए कहा, “मैं स्पेंडर से मिला था, वो शायर बनना चाहता है| उसने ये नहीं कहा कि वो शायरी करना चाहता है| ”
आज डिजिटल दौर में ‘शायर बनना’ वाकई बहुत आसान हो गया है | शायरी में करियर ढूँढने से पहले अपनी शायरी का उद्देश्य ढूँढना एक ज़रूरी काम है | इस काम में जीवन गुज़र जाने जैसी बात है | रिल्के कहते हैं कि हम जीवन भर शायरी करते रहते हैं और अंत में पता चलता है कि हमने जीवन भर में एक नज़्म कही | बात सिर्फ़ उद्देश्य पर भी ख़त्म नहीं होती | हमें ये सोचने की भी ज़रुरत है कि क्या शायरी या किसी भी आर्ट फ़ॉर्म का सामाजिक सरोकार क्या है ? है भी या नहीं ? क्या शायरी कोई इंक़िलाब ला सकती है ? … नहीं… बिलकुल नहीं… समाजी स्तर पर तो कभी भी नहीं .. कोई कितनी भी एहतिजाज़ी नज़्म या शेर कह ले| लेकिन निजी (पर्सनल स्पेस में) .. ज़रूर| शायरी वो ज़रिया ज़रूर है, जिससे हम अपने ज़ाती किए-धरे का पोस्ट-मार्टम कर सकें | ये न तो ज़ात का इज़हार है और न ही इज़हार की ज़ात| ये बिल्कुल ही पर्सनल स्पेस की चीज़ है, जो हमें ख़ुद के साथ एक्सपेरिमेंट करने का लैब फ़राहम करती है | काफ़्का का कहना था, “शायर का सबसे मधुर गीत उसके अपने नरक के सबसे निचली गहराईयों से आता हैं |” ऐसे में अपनी शायरी (?) को परफ़ॉर्मिंग आर्ट के साथ (ज़बरदस्ती) जोड़ कर बाज़ार में लाना बहुत ज़ियादा अश्लील लगता है |
बहुत दूर न जाते हुए अगर अहमद फ़राज़ को ही ले लें तो वो कहते हैं,
देखो ये मेरे ख़्वाब थे देखो ये मेरे ज़ख़्म हैं
मैं ने तो सब हिसाब-ए-जाँ बर-सर-ए-आम रख दिया
फ़राज़ को अपने हिसाब-ए-जाँ दिखाने के लिए किसी परफॉर्मिंग आर्ट या किसी कॉर्पोरेट इवेंट की ज़रुरत नहीं पड़ी | वो ये काम आसानी से इसी लिए कर पाए क्योंकि उन्होंने अपनी शायरी में करियर की तलाश नहीं की, बल्कि शायरी को वो काम करने दिया जो उसका काम है |
बात जब परफ़ॉर्मिंग आर्ट की आ पड़ी है तो दो चार बात इस हवाले से भी | जिन शायरों का हवाला देकर आज कल ये डिबेट शुरू हो गई है कि शायरी को परफ़ॉर्मिंग आर्ट से जोड़ा जाए, उन शायरों में शायद ही किसी को ‘मैजिक इफ़’ की थ्योरी पता होगी | स्टेज पर बैंड के साथ शायरी पढ़ने से शायरी का मेयार कभी ऊँचा नहीं हो सकता | और पता किया जाए तो ये भी पता चलेगा कि बैंड के साथ शायरी पढ़ने वाले शायरों में किसी को म्युज़िक थ्योरी का ज़रा भी इल्म है | यानी शायरी शायरी है, अपने आप में एक आर्ट है और एक्टिंग एक्टिंग है | शायरी का इस्तेमाल जब कोई अदाकार अपने डायलाग में करता है, तो उसके पीछे सिर्फ़ आठ-दस शोरा नहीं होते, बल्कि एक पूरी की पूरी कहानी चल रही होती है, जिसके किसी एक किरदार के ट्रेजेडी को वो अदाकार जी रहा होता है | तो क्या स्टेज पर एक ग़ज़ल ख़त्म करने के बाद दूसरी ग़ज़ल पढ़ने के लिए ख़ुद को एक कहानी से दूसरी कहानी में ट्रांसफ़ॉर्म करना मुमकिन है ? एक हवाला स्टैंड-अप कॉमेडी और ओपन-माइक का मिल रहा है कि वहाँ बड़ी भीड़ होती है, ख़ूब पैसे हैं वगैरह..वगैरह.. लेकिन समझने की बात है कि क्या एक लतीफ़े या एक ओपन माइक नज़्म हमारा हमसफ़र तब भी होता है, जब हम थिएटर से बाहर आ जाते हैं ? लेकिन एक अच्छा शेर या एक अच्छी नज़्म राह चलता आदमी भी सुना दे तो वो हमारे साथ कई कई दिनों तक रह जाता है | मुख़्तसरन परफ़ॉर्मिंग आर्ट की बुनियाद और शायरी की बुनियाद अलग-अलग है | दोनों की परवरिश अलग अलग मौक़ों पर अलग-अलग phycology के साथ हुई है | इन्हें फ़्यूज़ करने तरीक़े ढूंढें जा सकते हैं (बल्कि ढूंढे जा चुके हैं, सिनेमा, ड्रामा की शक्ल में, कई गीति-नाट्य के उदाहरण मिल जायेंगे) लेकिन बिना फ़ॉर्मूला दो केमिकल कंपाउंड का ज़बरदस्ती का रिएक्शन करना कोई रिजल्ट नहीं देगा |
फिर एक बहस क्राफ़्ट और ज़बान को लेकर भी कई बार सामने आती रहती है | कुछ लोग ये कहते हैं कि ग़ज़ल कहना आसान है, शेर की हैसियत चुटकुले भर की है, कुछ के पास ग़ज़ल की शायरी को महान बताने के लिए भी कई दलीलें हैं | लेकिन हम ये भूल जाते हैं कि हमने ‘डेथ ऑफ़ ऑथर’ के समय को भी पार कर लिया है | किसी सिन्फ़ की बड़ाई या बुराई को छोड़ कर बस इस बात पर तवज्जो देने का वक़्त आ गया है कि क्या कोई ऐसी गुंजाइश है जिससे ग़ज़ल की शायरी में कुछ नया हो सके ? अगर नहीं है तो भी कोई बुराई नहीं, बशर्ते कि शेर कहने वाला ख़ुद को ‘स्पेशल’ न समझे | शायरी (किसी भी सिन्फ़ की) किसी शायर के लिए साँस लेने जैसी बात है, जिसकी तरफ़ उसकी तवज्जो भी तभी जाती है जब उसका दम घुट रहा हो |
और जहाँ तक क्राफ़्ट का सवाल है, मैं जो फ़ॉलो करता हूँ, वो “राईट वर्ड इन द राईट आर्डर” है | नज़्म में भी नस्र में भी | और फिर कोई भी ख़याल (ख़याल हमेशा abstract होते हैं, सच की तरह) अपना क्राफ़्ट अपने साथ ही लेकर आता है | एक शायर महज़ उसमें लफ़्ज़ों का रद्दो-बदल करता है, मिसरे ऊपर-नीचे करता रहता है, ठीक उसी तरह जिस तरह से गाय पहले खाती है फिर देर तक बैठे-बैठे जुगाली करती रहती है |
“कुछ लेखक ख़ुद नहीं लिखते, कोई उन्हें लिखवाता है और वह उसके हुक्म पर लिखता जाता है |”
मैल्कम काउले
अंत में एक बात जो अजीब है कि शायरों को कॉर्पोरेट फ़ंक्शन में बुलाया जाए | यानि शायरी जिन दरबारों को तोड़ कर बाहर आई और अपने शायर को आज़ादी महसूस करने की वजह दी, उसे वापस दरबारों में ले जाया जाए | ज़रा सोचिए कि शायरों को ऐसे काम मिलने लगें कि आज फ़लाँ कंपनी की फ़लाँ डील होगी, उस पर एक ग़ज़ल चाहिए दस हज़ार का पेमेंट है | और शायर बिना उस डील को समझे कि कितनी अच्छी या बुरी है क़सीदे लिख देता है | यानी एक शायर की ज़ुबान से ऐसी बातें, एक शायर की ऐसी महत्वाकांक्षा न सिर्फ़ उसे ख़तरे में डालता है बल्कि उस समय के उन लोगों को भी को थोड़ा- बहुत सच बोल पाते हैं |
काफ़ी कुछ है, लेकिन इसमें इतना ही, आख़िर में यही कहना चाहूँगा, शायरी को उसके हिस्से का काम करने दिया जाए, हमें उससे वो रौशनी मिलती रहे जिससे हम अपने वक़्त के अँधेरे की गहराई को परख सकें |
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