जब फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को इंग्लिश के पर्चे में 150 में से 165 नंबर मिले
आज फ़ैज़ साहब की 37 वीं बरसी है। उर्दू शाइरी में जहाँ उनका नाम इस दर्जा बुलंद है, तो उनकी ज़िंदगी के अहवाल से बहुत कम लोग आश्ना हैं। ख़ुसूसी तौर पर उनकी इब्तिदाई ज़िंदगी के बारे में कोई गुफ़्तुगू होते हुए मैंने नहीं देखी। मज़कूरा बाला मौज़ूअ पर फ़ैज़ साहब का एक इंटरव्यू मिर्ज़ा ज़फ़र-उल-हसन के साथ याद आता है जिसमें फ़ैज़ साहब ने अपने बचपन के बारे में एक तवील गुफ़्तगू की है।
फ़र्ज़ कीजिए नारोवाल (सियालकोट) के किसी मोहल्ले की एक गली में चंद बच्चे पतंग उड़ा रहे हैं, बाज़ कंचे खेल रहे हैं और बाज़ लट्टू चलाने में मस्रूफ़ हैं। और एक ‘बच्चा’, अकेला इन बच्चों को दूर से खेलते हुए देखता है और तमाशाई बना रहता है। वो बच्चों के साथ इसलिए भी शामिल नहीं होता कि वो इन तमाम कामों को ना-शरीफ़ाना समझता है। ये ‘बच्चा’ हमारे फ़ैज़ साहब हैं।
फ़ैज़ साहब कहते हैं : “दो तअस्सुर बहुत गहरे हैं, एक तो ये कि बच्चों की जो दिलचस्पियाँ होती हैं उनसे महरूम रहे। दूसरे ये कि अपने दोस्तों, हम-जमाअतों और अपने असातिज़ा से हमें बे-पायाँ मुहब्बत और ख़ुलूस मिला जो बाद के दोस्तों और मआसरीन से मिला और आज भी मिल रहा है।”
फ़ैज़ साहब के अहद-ए-तिफ़्ली का ही क़िस्सा है जब वो ग़ालिबन छठी या सातवीं जमाअत में थे। उन के घर से लगी हुई एक किताबों की दुकान थी जिसे “भाई साहब” (उन्हें सब इसी नाम से जानते थे) चलाते थे। उस दूकान पर किताबें किराये पर मिल जाया करती थीं और एक किताब का किराया 2 पैसे हुए करता था। तिलिस्म-ए-होश-रुबा, फ़साना-ए-आज़ाद और अब्दुल हलीम शरर के नॉवेल वग़ैरह उन्होंने ऐसे ही पढ़े। एक दफ़ा अब्बा के मुंशी का फ़ैज़ साहब से झगड़ा हो गया तो उन्होंने फ़ैज़ साहब से कह दिया कि मैं तुम्हारे वालिद से शिकायत कर दूँगा कि तुम “अंट-शंट” किताबें पढ़ते रहते हो। फ़ैज़ साहब बहुत डर गए और उनसे कुछ न बताने की दरख़्वास्त करने लगे। बात जब फ़ैज़ साहब के वालिद तक पहुँची तो उन्होंने बस इतना कह दिया, “नॉवेल ही पढ़ना है तो अंग्रेजी के नॉवेल पढ़ा करो। उर्दू नॉवेल अच्छे नहीं होते।” फ़ैज़ साहब ने अंग्रेजी नॉवेल पढ़ना शुरूअ किया और हार्डी, डिकिंसन और दीगर अदीबों को पढ़ा। इसी ज़माने में उन्होंने शायरी का मुताला भी शुरूअ किया।
फ़ैज़ साहब जब दसवीं जमाअत में थे तो उन्होंने शाइरी का आग़ाज़ कर दिया था और पास में होने वाले मुशायरों में कलाम पढ़ना भी शुरूअ कर दिया था। ये अहद उनके अंदर के शायराना मिजाज़ की तरबियत का था। वो कहते हैं : “उस ज़माने में एक ख़ास क़िस्म की कैफ़ियत मुझ पे तारी हो जाती थी। जैसे यकायक आसमान का रंग बदल गया है। बाज़ चीज़ें कहीं दूर चली गई हैं। धूप का रंग अचानक हिनाई हो गया है। पहले जो देखने में आया था, उसकी सूरत बिल्कुल मुख़्तलिफ़ हो गई है। दुनिया एक पर्दा-ए-तस्वीर क़िस्म की चीज़ महसूस होने लगती थी। इस कैफ़ियत का बाद में कभी कभी एहसास हुआ है मगर अब नहीं होता।”
जब वो पढ़ने के लिए गवर्मेंट कॉलेज, लाहौर गए तो उन्हें वहाँ पतरस बुख़ारी साहब ब-तौर उस्ताद मिले। हफ़ीज़ जालंधरी और चराग़ हसन हसरत जैसे अदीब भी लाहौर में क़याम-पज़ीर थे। सूफ़ी तबस्सुम साहब बाद में ब-तौर प्रोफ़ेसर वहाँ आ गए। सूफ़ी साहब ने तो ‘’फ़ैज़ से मेरी पहली मुलाक़ात’’ नाम से एक मज़मून भी लिखा था। उन्हें गवर्नमेंट कॉलेज में आए 23 हफ़्ते ही हुए थे। “बज़्म-ए-सुख़न” ने एक मुशायरा रखवाया जिसकी सदारत पतरस बुख़ारी साहब फ़रमा रहे थे। रिवायतन, उन्होंने पहले कॉलेज के तलबा से शेर पढ़वाने का ऐलान किया। उन्होंने लिखा है :”एक नौजवान आए, गोरे चिट्टे, कुशादा-जबीं, हरकात में शीरीं रवानी, आँखें और लब ब-यक-वक़्त एक नीम-तबस्सुम में डूबे हुए। शेर बड़े ढंग और तमकनत से पढ़े। इशारे हुए, पतरस ने कुछ मानी-ख़ेज़ नज़रों में लाहौर के नियाज़-मंदों से बातें कीं, और उनकी नीम-ख़ामोशी को रज़ा समझ कर उन्हें फिर से स्टेज पर बुलाया। नया कलाम सुना। फ़ैज़ साहब ने ग़ज़ल के आलावा एक नज़्म भी सुनाई।”
सूफ़ी साहब ने वो शेर या नज़्म तो दर्ज नहीं किया जो फ़ैज़ साहब ने वहाँ पढ़ा, मगर ये ज़रूर लिखा कि फ़ैज़ के कलाम में सोच का अंदाज़ और बयान का अछूता उस्लूब है।
एक महीने बाद जब इम्तिहानात शुरूअ हुए तो सूफ़ी तबस्सुम साहब के सुपुर्द एम.ए अंग्रेजी के तलबा की निगरानी आई जिसमें फ़ैज़ साहब भी थे। एग्जाम हॉल में सिगरेट पीना सख़्त मना था। सूफ़ी साहब ने अपनी सिगरेट-नोशी की आदत को दबाने के लिए पान का इंतिज़ाम कर लिया था। लेकिन फ़ैज़ साहब कभी सवालात के पर्चे पर नज़र डालते और कभी सूफ़ी साहब की तरफ़ नीम-तबस्सुम नज़रों से देखते। और फिर क़लम को उठा कर सर को झुकाते और कभी ख़ामोशी से अपने पड़ोसी की मिज़ाज-पुर्सी करते। आख़िर फ़ैज़ साहब उठे और उन्होंने पूछ ही लिया, क्या यहाँ पर सिगरेट पीने की इजाज़त है?
उसी वक़्त पतरस बुख़ारी साहब बाक़ी कमरों का मुआयना करके उस कमरे के सामने आ खड़े हुए। जब यही सवाल पतरस साहब से किया गया तो उन्होंने जवाब दिया, “जब तक प्रोफ़ेसर जोध सिंह इस कॉलेज के प्रिंसिपल नहीं बनते, तब तक पी सकते हैं।” और सिगरेट-नोशी का ऐलान हो गया।
इस वाक़िए’ से फ़ैज़ साहब का एक शेर भी याद आता है। पहले सिगरेट हाथ में आ जाए, फिर गोया कोई बला, कोई अज़ाब, कुछ भी आ जाए।
एक हैरत-अंगेज़ वाक़िआ शेर मुहम्मद हमीद ने इन्हीं इम्तिहानात के हवाले से और भी लिखा है। उस ज़माने में प्रोफ़ेसर लैंग हार्न अंग्रेजी के सद्र-ए-शोबा था। थर्ड ईयर के इम्तिहान के बाद जब तालिब-ए-इल्म अपनी अपनी कापियाँ देख रहे थे तो फ़ैज़ की कॉपी पर 165 नंबर दर्ज थे। कोई हैरान हुए बग़ैर नहीं रह सका क्योंकि इम्तिहान सिर्फ़ 150 नंबरों का था। जब एक तालिब-ए-इल्म प्रोफ़सर के पास ये सवाल ले कर गया कि फ़ैज़ को 150 में से 165 नंबर कैसे मिले तो उन्होंने बड़े ख़ुलूस के साथ इतना ही जवाब दिया,
“Because I couldn’t give more.“
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