साहिर, जो हर इक पल का शाइर है

कल नई कोंपलें फूटेंगी, कल नए फूल मुस्काएँगे
और नई घास के नए फर्श पर नए पाँव इठलाएँगे

वो मेरे बीच नहीं आए, मैं उनके बीच में क्यों आऊँ
उनकी सुब्ह और शामों का मैं एक भी लम्हा क्यों पाऊँ

फ़िल्म ‘कभी-कभी’ में हम अमिताभ की आवाज़ में साहिर की एक लंबी नज़्म का शुरुआती हिस्सा सुनते हैं। “मैं पल दो पल का शाइर हूँ” गुज़रे कई वर्षों से अलग-अलग पीढ़ियों का मनपसंद गीत रहा है। हिंदी फिल्मों में “पल दो पल” जैसे गाने बहुत कम हैं। पूरी नज़्म में बहुत अलग-सा फ़लसफा है। ख़ुद का वजूद बहुत अहम नहीं है क्योंकि वह तो इस हर पल बदलती दुनिया का ही एक हिस्सा है, जिसे एक दिन खो जाना है। ख़ुद को मिटाकर एक नई दुनिया और नई मुस्कुराहटों का स्वागत करना है। यही साहिर लुधियानवी की ख़ूबी थी कि हर गीत में उनकी शख़्सियत और उनकी प्रतिभा का तेज झलकता था। साहिर के लिखे गीतों की रेंज भी बहुत बड़ी है। जहाँ एक तरफ “ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है” का रूमानी विद्रोह है तो वहीं “जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं” जैसा पॉलिटिकल तंज़ भी है। “तुम अगर साथ देने का वादा करो” जैसा ठेठ रोमांटिक गीत है तो वहीं पर “देखा है ज़िंदगी को कुछ इतना करीब से” को ऐसे लिखा है कि हर कोई अपने मोहभंग को तलाश सकता है। “उड़े जब जब जुल्फें तेरी में” मानों वो जिंदगी को भरपूर जी लेना चाहते हैं तो “कभी खुद पे, कभी हालात पे रोना आया” तनहाइयों की कोई अलग दास्तान कहता है।

साहिर की रेंज इतनी व्यापक है कि उनके लोकप्रिय गीतों की चमक में उनके बहुत से उल्लेखनीय गीत कहीं पीछे छूट गए हैं। साहिर मुखर होते थे मगर कभी लाउड नहीं होते थे। वे गहरी बात कह जाते मगर दुरूह बनकर नहीं, बड़ी सरलता से जाने दुनिया और मन की किन गहराइयों को बयान कर जाते थे। यहाँ पर हम उनके कुछ ऐसे ही गीतों की चर्चा करेंगे जिनके बारे में अक्सर बात नहीं होती है। इसमें से एक बी.आर. चोपड़ा की फिल्म ‘गुमराह’ का गीत है। यह गीत एक लड़की के मन की बातों को कहानी के ज़रिए सामने लाता है। हिंदी सिनेमा में बेटियों के लिए गीत बहुत कम हैं। फिल्म ‘कभी कभी’ में बेटी के लिए एक यादगार गीत रचकर साहिर ने जैसे इस कमी को भी पूरा कर दिया था।

उसके आने से मेरे आंगन में
खिल उठे फूल, गुनगुनाई बहार
देख कर उसको जी नहीं भरता
चाहे देखूँ उसे हज़ारों बार
मेरे घर आई एक नन्ही परी।

मैंने पूछा उसे के कौन है तू
हँस के बोली के मैं हूँ तेरा प्यार
मैं तेरे दिल में थी हमेशा से
घर में आई हूँ आज पहली बार
मेरे घर आई एक नन्ही परी।

आम तौर पर साहिर के गीतों में शब्द ख़ासे वज़्न रखते हैं मगर 1963 में आई ‘गुमराह’ के इस गीत को बहुत सरल से शब्द और छोटी-छोटी बातों से तैयार किया गया है। “जिन्हें नाज़ है हिंद पर” या “औरत ने जनम दिया मर्दों को” जैसे गीतों की तरह साहिर यहाँ सीधे-सीधे कुछ नहीं कहते मगर किसी लोककथा की तरह रचे गए इस गीत में एक ऐसा अंडरटोन है जो मानो देश की लाखों हँसती-खेलती लड़कियों की कहानी कहता है। यह गीत कुछ इस तरह है,

फूलों जैसे गाल थे उसके
रेशम जैसे बाल थे उसके
हँसती थी और गाती थी वो
सबके मन को भाती थी वो
झालरदार स्कर्ट पहन के
जब चलती थी वो बन-ठन के
हम उसको गुड़िया कहते थे
रंगों की पुड़िया कहते थे
सारे स्कूल की प्यारी थी वो
नन्ही राजकुमारी थी वो

इक दिन उसने भोलेपन से,
पूछा ये पापा से जा के
अब मैं खुश रहती हूँ जैसे
सदा ही क्या खुश रहूँगी ऐसे ?
पापा बोले – मेरी बच्ची
बात बताऊँ तुझको सच्ची
कल की बात न कोई जाने
कहते हैं ये सभी सयाने
ये मत सोचो कल क्या होगा
जो भी होगा अच्छा होगा

जब यही लड़की बड़ी होती है तो उसके जीवन में कोई और आता है। उसे भी प्रेम होता है।

इक सुंदर चंचल लड़के ने
छुप-छुपकर चुपके-चुपके से
लड़की की तस्वीर बनाई
और ये कहकर उसे दिखाई –
इस पर अपना नाम तो लिख दो
छोटा सा पैग़ाम तो लिख दो

मगर चाहे अपने पापा से हो या फिर इस लड़के से हो, लड़की का सवाल बदस्तूर है…

इक दिन उसने भोलेपन से
पूछा ये अपने साजन से
अब मैं खुश रहती हूँ जैसे
सदा ही क्या खुश रहूँगी ऐसे?

उसने कहा कि मेरी रानी
इतनी बात है मैंने जानी
कल की बात न कोई जाने
कहते है ये सभी सयाने
ये मत सोचो कल क्या होगा
जो भी होगा अच्छा होगा

ये “जो भी होगा अच्छा होगा” की जो टेक है, वह इस गीत को एक अनूठी विंडबना से भर देती है। फिल्म में आगे इसी गीत का दूसरा हिस्सा हम सुनते हैं।

इक परदेशी दूर से आया
लड़की पर हक़ अपना जताया
घर वालों ने हामी भर दी
परदेशी की मर्ज़ी कर दी
प्यार के वादे हुए न पूरे
रह गए सारे ख़्वाब अधूरे
छोड़ के साथी और हम-साए
चल दी लड़की देश पराए

जब भी देखो चुप रहती है
कहती है तो ये कहती है

कल की बात कोई ना जाने, कहते हैं ये सभी सयाने
ये मत सोचो कल क्या होगा, जो भी होगा अच्छा होगा

https://www.youtube.com/watch?v=LmRaVWV-I8o

आम तौर पर हम आसान शब्दों में ज़िंदगी और समाज की बड़ी सच्चाइयों को बयान करने का सबसे बेहतरीन हुनर शैलेंद्र में था। उनके कई गीत इस बात का उदाहरण हैं। मगर साहिर के कुछ गीत अपनी सरलता में इस तरह बड़ी बात कह जाते हैं कि हैरानी होती है। कहा जाता है कि शुरू में फैज़ और मजाज़ के प्रभाव में रहने वाले साहिर बाद में रोमांटिक शायरी की तरफ झुक गए। कैफ़ी आज़मी ने कभी साहिर लुधियानवी के इसी मिज़ाज पर तंज़ कसते हुए कहा था कि ‘उनके दिल में तो परचम है पर उनकी क़लम काग़ज़ पर मोहब्बत के नग़्मे उकेरती है।’ गौर करें तो यह 60 के दशक में सोवियत रूस की अंदरूनी नीतियों में बदलाव नज़र आने लगा था और साम्यवाद का सुनहरा दौर वहाँ पर ख़त्म हो रहा था। वहीं चीन और भारत के बीच टकराव ने हिंदुस्तान और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर वामपंथी आंदोलनों के विरोधाभास ज़ाहिर होने लगे। मगर ऐसे बहुत से गीत हैं जिनकी चर्चा नहीं होती मगर उनमें साहिर का राजनीतिक तेवर वैसा ही दिखता है। सन् 1960 में आई फिल्म ‘गर्लफ्रैंड’ का एक गीत तो जैसे समाजवादी विचारधारा का पाठ्यपुस्तक है। आशा भोंसले और हेमंत कुमार की आवाज में गाए गए इस पूरे गीत को नीचे अविकल रूप से प्रस्तुत किया गया है। यह गीत जाने किन वज्हों से गुमनाम रह गया।

कहते हैं इसे पैसा बच्चों, ये चीज़ बड़ी मामूली है
लेकिन इस पैसे के पीछे सब दुनिया रस्ता भूली है
इंसाँ की बनाई चीज़ है ये, लेकिन इंसान पे भारी हैं
हल्की-सी झलक इस पैसे की धर्म और ईमान पे भारी है
ये झूठ को सच कर देता है और सच को झूठ बनाता है
भगवान नहीं, पर हर घर में भगवान की पदवी पाता है

इस पैसे के बदले दुनिया में इंसानों की मेहनत बिकती है
जिस्मों की हरारत बिकती है, रूहों की शराफ़त बिकती है
सरदार खरीदे जाते हैं, दिलदार खरीदे जाते हैं
मिट्टी के सही पर इससे ही अवतार खरीदे जाते हैं

इस पैसे की खातिर दुनिया में आबाद वतन बट जाते हैं
धरती टुकड़े हो जाती हैं, लाशों के कफ़न बट जाते हैं
इज़्ज़त भी इससे मिलती है, ताज़ीम भी इससे मिलती है
तहज़ीब भी इससे आती है, तालीम भी इससे मिलती है

हम आज तुम्हें इस पैसे का सारा इतिहास बताते हैं
कितने जुग अब तक गुज़रे हैं, उन सबकी झलक दिखलाते हैं
इक ऐसा वक़्त भी था जग में, जब इस पैसे का नाम न था
चीज़ें चीज़ों से तुलती थीं, चीजों का कुछ भी दाम न था
इंसान फ़क़त इंसान था तब, इंसान का मज़हब कुछ भी न था
दौलत, ग़ुरबत, इज्ज़त, ज़िल्लत, इन लफ़्ज़ों का मतलब कुछ भी न था

चीज़ों से चीज़ बदलने का ये ढंग बहुत बेकार-सा था
लाना भी कठिन था चीज़ों का, ले जाना भी दुश्वार-सा था
इंसान ने तब मिलकर सोचा – क्यूँ वक़्त इतना बरबाद करें
हर चीज़ की जो कीमत ठहरे, वो चीज़ न क्यूँ ईज़ाद करें
इस तरह हमारी दुनिया में पहला पैसा तैयार हुआ
और इस पैसे की हसरत में इंसान ज़लील-ओ-ख़्वार हुआ

पैसे वाले इस दुनिया में जागीरों के मालिक बन बैठे
मज़दूरों और किसानों की तक़दीरों के मालिक बन बैठे
जागीरों पे क़ब्ज़ा रखने को क़ानून बने, हथियार बने
हथियारों के बल पर धनवाले इस धरती के सरदार बने
जंगों में लड़ाया भूखों को और अपने सर पर ताज रखा
निर्धन को दिया परलोक का सुख, अपने लिये जग का राज रखा
पंडित और मुल्ला इनके लिए मज़हब के सहीफ़े लाते रहे
शाइर तारीफ़ें लिखते रहे, गायक दरबारी गाते रहे

वैसा ही करेंगे हम
जैसा तुझे चाहिए
पैसा हमें चाहिए!

हल तेरे जोतेंगे, खेत तेरे बोएँगे
ढोर तेरे हाकेंगे, बोझ तेरा ढोएँगे
पैसा हमें चाहिए!

पैसा हमें दे दे राजा गुन तेरे गाएँगे
तेरे बच्चे बच्चियों का खैर मनाएँगे
पैसा हमें चाहिए!

लोगों की अनथक मेहनत ने चमकाया रूप ज़मीनों का
भाप और बिजली हमराह लिए, आ पहुँचा दौर मशीनों का
इल्म और बिज्ञान की ताक़त ने मुँह मोड़ दिया दरियाओं का
इंसान जो ख़ाक का पुतला था, वो हाकिम बना हवाओं का
जनता की मेहनत के आगे क़ुदरत ने ख़जाने खोल दिए
राजों की तरह रखा था जिन्हें, वो सारे जमाने खोल दिए
लेकिन इन सब ईजादों पर पैसे का इज़ारा होता रहा
दौलत का नसीबा चमक उठा, मेहनत का मुक़द्दर सोता रहा

वैसा ही करेंगे हम
जैसा तुझे चाहिए
पैसा हमें चाहिए!

रेलें भी लगाएँगे, मिलें भी चलाएँगे
जंगों में भी जाएँगे, जाने भी गवाएँगे
पैसा हमें चाहिए!

पैसा हमें दे दे बाबू गुण तेरे गाएँगे
तेरे बच्चे बच्चियों का खैर मनाएँगे
पैसा हमें चाहिए!

जुग-जुग से यूँ ही इस दुनिया में हम दान के टुकड़े माँगते हैं
हल जोत के, फ़सलें काट के भी पकवान के टुकड़े माँगते हैं
लेकिन इन भीख के टुकड़ों से कब भूख का संकट दूर हुआ
इंसान सदा दुख झेलेगा गर ख़त्म न ये दस्तूर हुआ
ज़ंजीर बनी है क़दमो की, वो चीज़ जो पहले गहना थी
भारत के सपूतों! आज तुम्हें बस इतनी बात ही कहना थी
जिस वक़्त बड़े हो जाओ तुम, पैसे का राज मिटा देना
अपना और अपने जैसों का जुग-जुग का कर्ज़ चुका देना
जुग-जुग का कर्ज़ चुका देना!

दोस्तोएवस्की के उपन्यास ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ पर आधारित फिल्म ‘फिर सुब्ह होगी’ फिल्म की थीम से साहिर इतने गहरे जुड़े थे कि उन्होंने साफ़ कह दिया कि उनके गीतों को वही संगीतकार कंपोज करेगा जिसे वामपंथ और रूसी साहित्य की समझ हो। नतीजा ख़य्याम के साथ काम करने की शुरुआत हुई। “वो सुब्ह कभी तो आएगी” गीत के लिए मुंबई की वामपंथी ट्रेड यूनियनों ने साहिर का सार्वजनिक अभिनंदन किया था। उनका मानना था कि “यह गीत हमारे सपनों की तस्वीर पेश करता है।” मगर सन 1970 में एक फिल्म आई थी और गुमनामी में खो गई। उसका नाम था, ‘समाज को बदल डालो।’ यहाँ पर हम अपनी समाजवादी सोच के साथ साहिर को और ज्यादा मुखर देखते हैं। जब फिल्म में यह गीत आता है तो हम परीक्षित साहनी और प्रेम चोपड़ा को लाल झंडे और बैनर लिए यह गीत गाते देखते हैं। इसे मोहम्मद रफ़ी ने अपनी आवाज़ दी है।

धरती माँ का मान हमारा प्यारा लाल निशान
नवयुग की मुस्कान हमारा प्यारा लाल निशान

पूंजीवाद से दब न सकेगा ये मज़दूर किसान का झंडा
मेहनत का हक़ ले के रहेगा, मेहनत इंसान का झंडा
योद्धा और बलवान हमारा, प्यारा लाल निशान

इस झंडे से साँस उखड़ती चोर मुनाफ़ा-ख़ोरों की
जिन्होंने इंसानों की हालत कर दी डंगर ढोरों की
उनके ख़िलाफ़ ऐलान हमारा, प्यारा लाल निशान

फ़ैक्टरियों के धूल धुएँ में हमने ख़ुद को पाला
ख़ून पिलाकर लोहे को इस देश का भार सँभाला
मेहनत के इस पूजा-घर पर पड़ न सकेगा ताला
देश के साधन देश का धन हैं, जान ले पूंजीवाला
जीतेगा मैदान हमारा, प्यारा लाल निशान

साहिर की बहुत सी नज़्मों में निराशा, हताशा और ग़ुस्सा है, मगर इनके बीच भी कहीं न कहीं उम्मीद की एक लौ उनके शब्दों में जगमगाती रहती है। तभी वे कह पाते हैं, “इन काली सदियों के सर से, जब रात का आँचल ढलकेगा, जब अम्बर झूम के नाचेगी, जब धरती नग़्मे गाएगी, वो सुब्ह कभी तो आएगी…” देश के आज़ाद होने और बँटवारे के अगले साल ही 1948 में एक फिल्म आई थी ‘आज़ादी की राह पर’, जिसमें अंधकार के बीच साहिर उम्मीदों की रौशनी देख रहे हैं। यह संभवतः साहिर के लिखे गए सबसे आरंभिक गीतों में से एक था। इस फिल्म का संगीत जीडी कपूर ने दिया था। आज़ादी तो मिली मगर ये वो आज़ादी नहीं जिसका सबने सपना देखा था। जिसके बारे में फैज़ ने लिखा था, “ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-ग़ज़ीदा सहर, वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं”। जब हम इस फिल्म के गीत को सुनते हैं तो पाते हैं कि एक गहरी निराशा के बीच वे किस तरह उम्मीदों की लौ देख रहे हैं।

बदल रही है ज़िंदगी, बदल रही है ज़िंदगी
ये उजड़ी-उजड़ी बस्तियाँ, ये लूट की निशानियाँ
ये अजनबी, ये अजनबी के ज़ुल्म की कहानियाँ
अब इन दुखों के भार से निकल रही है ज़िंदगी
बदल रही है ज़िंदगी

ज़मीं पे सरसराहटें, फ़लक पे फ़रफ़राहटें
फ़िज़ा में गूँजती हैं एक नए जहाँ की आहटें
मचल रही है ज़िंदगी, सँवर रही है ज़िंदगी
बदल रही है ज़िंदगी

चलते चलते 1960 की देव आनंद की फिल्म ‘हम दोनों’ एक प्रेम गीत का भी ज़िक्र करें जिसकी चर्चा बहुत कम होती है। देव आनंद और साधना पर फिल्माए गए इस गीत की ख़ूबी यह है कि इसमें परंपरागत तरीके से अंतरा और मुखड़ा नहीं है। इसे संगीतकार रवि ने “अभी न जाओ छोड़कर” की धुन पर कंपोज किया है मगर गीत का भाव बिल्कुल अलग है। साहिर के प्रेम गीतों में घिसी-पिटी प्रेम की बातें नहीं होती थीं। उन्हें भी वो विचार के स्तर लेकर आते थे। यह गीत प्रेम में दो लोगों के बीच भरोसे की बात कहता है।

दुःख और सुख के रास्ते, बने हैं सब के वास्ते
जो ग़म से हार जाओगे, तो किस तरह निभाओगे
खुशी मिले हमें कि ग़म, जो होगा बाँट लेंगे हम
मुझे तुम आज़माओ तो, ज़रा नज़र मिलाओ तो
ये जिस्म दो सही मगर, दिलों में फ़ासला नहीं
जहाँ में ऐसा कौन है, कि जिसको ग़म मिला नहीं

तुम्हारे प्यार की क़सम, तुम्हारा ग़म है मेरा ग़म
न यूँ बुझे-बुझे रहो, जो दिल की बात है कहो
जो मुझ से भी छुपाओगे, तो फिर किसे बताओगे
मैं कोई ग़ैर तो नहीं, दिलाऊँ किस तरह यक़ीं
कि तुमसे मैं जुदा नहीं, मुझसे तुम जुदा नहीं

साहिर के बहुत से गीत हैं जिन पर नए सिरे से बात होनी चाहिए। ये साहिर ही कह सकते थे, “क्यूँ कोई मुझको याद करे, मसरूफ़ ज़माना मेरे लिए, क्यूँ वक़्त अपना बरबाद करे।” मगर एक बड़ा शाइर अपने समय से बहुत आगे की चीजें देखता और समझता है। तभी उसके शब्द लंबे समय तक हमारे भीतर बसे रह जाते हैं। इन शब्दों की अहमियत भला कभी खत्म होगी?

माना के अभी तेरे मेरे इन अरमानों की, क़ीमत कुछ नहीं
मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर,
इंसानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
इंसानों की इज़्ज़त जब झूठे सिक्कों में न तोली जाएगी
वो सुब्ह कभी तो आएगी…