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इन मुहावरों और कहावतों को हम ज़रूर अपने जीवन में प्रियोग करते होंगे

अमूमन लोग मुहावरा और कहावत को एक समझते हैं। जब कि ऐसा नहीं है। मुहावरा अरबी ज़बान का लफ़्ज़ है जिसका मतलब मख़्सूस ज़बान में राइज मख़्सूस जुमलों से मुतअल्लिक़ा है, या’नी ऐसे वाक्यांश या शब्द-समूह जिन्हें जैसा का तैसा बोला या लिखा जाता है। जैसे: पानी-पानी होना, टेढ़ी खीर होना, आँख आना, सर पर चढ़ना वग़ैरा। ज़ाहिर है न कोई पानी-पानी हो सकता है, न खीर टेढ़ी होती है, न आँख आ-जा सकती है और न कोई सर पर चढ़ता है। ये भी वाज़ेह है कि पानी-पानी होना को हम जल-जल होना या टेढ़ी खीर होना को टेढ़ी रसमलाई होना नहीं बोल सकते हैं और न लिख सकते हैं। ज़बानों के लिए ज़बानों में मुहावरों की मौजूदगी एक तरह से हुस्न-ए-इज़ाफ़ी के तौर पर काम करती है । ये ज़बान को ख़ूबसूरत, फ़नकारना, मज़्बूत, मुतहर्रिक और दिलचस्प बनाते हैं। मुहावरे किसी ख़ास तज्रिबे पर मब्नी होते हैं। आसान ज़बान में कहा जाए, तो अल्फ़ाज़ का एक ऐसा मुनज़्ज़म गिरोह जो अलामती और बा’ज़-औक़ात ख़ुश-तबअ शक्लों से कुछ ख़ास मा’नी अख़्ज़ करता है, मुहावरा कहलाता है। According to the Oxford Dictionary “a particular form of expression of a language is called an idiom” या’नी किसी ज़बान के इज़्हार की एक ख़ास शक्ल को मुहावरा कहते हैं। कई बार मुहावरे तंज़-अंगेज़ भी हो सकते हैं जैसे अँग्रेज़ी का मुहावरा है Spill the beans जिसका मतलब दानों को बिखेरना नहीं बल्कि “भेद खोलना” होता है जिसे “पट से बोल उठना” या “मंसूबा नाकाम करना” के मा’नो में भी इस्ते’माल किया जाता है। Cutting corners जिसका मतलब कोने काटना नहीं बल्कि Doing something poorly in order to save time or money या’नी वक़्त और पैसा बचाने के लिए बेवकूफ़ाना काम करना।

ज़र्बुल-मिस्ल या’नी लोकोक्ति या’नी लोक और उक्ति या’नी किसी ख़ास जगह पर आम लोगों के ज़रीए इस्ते’माल होने वाली उक्ति या कथन या बयान को कहावत कहा जाता है। कहावतें वाक्यांश न हो कर अपने आप में पूरा वाक्य होती हैं। कहावत एक सरल, ठोस, रिवायती लोकोत्ति को कहते हैं जो अक़्ल (common sense) या तजरबे की बुनियाद पर हक़ीक़त का इज़्हार करती है। कहावतें इस्तिआरात के इस्ते’माल पर मब्नी होती हैं। जैसे “नाच न जाने आँगन टेढ़ा”, “अन्धों में काना राजा”, “अधजल गगरी छलकत जाए” वग़ैरा। सिवाए इसके मुहावरे और कहावत में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं होता।

आज से लगभग दो सौ बरस पहले अरबी, फ़ारसी, उर्दू और संस्कृत के आलिम मिर्ज़ा जान तपिश देहलवी’ ने अपनी जिद्दो-जिहद और इंक़लाबी ज़िन्दगी में मुब्तला होने के बावजूद मुर्शिदाबाद ढाका के नवाब मिर्ज़ा जान नवाब शम्सुद्दौला के नाम पर “शम्सुल बयान फ़ी मुस्तलहातिल हिन्दुस्तान” नाम का हिन्दुस्तानी ज़बान में राइज मुहावरों का एक नायाब कलेक्शन तैयार किया था।

शाइरी में मुहावरों के इस्ते’माल की कुछ मिसालें देखते हैं:

‘बाग़ बाग़ हो जाना’

ऐ वली गुल-बदन कूँ बाग़ में देख
दिल-ए-सद-चाक बाग़-बाग़ हुआ
वली मोहम्मद वली

‘पानी न माँगना’

दिखलावे उसे तू अपनी शमशीर-ए-निगाह
जिस का मारा कभी न पानी माँगे
मीर सोज़

‘आँख लगना’

बिस्तर पे लेटे लेटे मिरी आँख लग गई
ये कौन मेरे कमरे की बत्ती बुझा गया
जयन्त परमार

‘फूँक-फूँक कर पाँव धरना’

छिड़काव आब-ए-तेग़ का है कू-ए-यार में
पाँव इस ज़मीं पे रखिए ज़रा फूँक फूँक कर
दत्तात्रिया कैफ़ी

‘सर धुनना’

कभी रोना कभी सर धुन्ना कभी चुप रहना
काम करने हैं बहुत से तिरे बे-कारों को
रज़ा अज़ीमाबादी

‘तारे गिनना’

ख़्वाब की दौलत चैन से सोने वालों की
तारे गिनना काम है हम बेदारों का
साबिर वसीम

‘पानी-पानी होना’

फ़ज़्ल-ए-बारी से हों ये आँसू जारी
सावन की घटा शर्म से पानी हो जाए
मिर्ज़ा सलामत अली दबीर

‘गुल खिलाना’

दाग़ जूँ लाला खा चमन में नसीम
मैं भी आया हूँ गुल खिलाने आज
शाह नसीर

‘उँगली छुड़ाना’

न जाने उँगली छुड़ा कर चला गया है कहाँ
बहुत कहा था ज़माने से साथ-साथ चले
गुलज़ार

कहावतों की कुछ मिसालें—

‘आस्तीन का साँप’

तज़्किरा होने लगा जब आस्तीं के साँप का
पास ही एहसास मुझ को सरसराहट का हुआ
ज़िशान इलाही

‘नाच न जाने आँगन टेढ़ा’

मोर का रक़्स उसे नहीं भाता अपनी चाल पे है इतराता
नाच न जाने टेढ़ा आँगन माशा-अल्लाह माशा-अल्लाह
बर्क़ी आज़मी

‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’

ये भी है कोई हुकूमत जिस की लाठी उस की भैंस
जानते हो इस का जो अंजाम होना चाहिए
आज़म जलालाबादी

‘जो गरजते हैं वो बरसते नहीं’

जो गरजते हों वो बरसते हों कभी ऐसा हम ने सुना नहीं
यहाँ भूँकता कोई और है यहाँ काटता कोई और है
ज़ियाउल हक़ क़ासमी

वग़ैरा- वग़ैरा।

ये हुई बात शाइरी में कहावतों और मुहावरों के इस्ते’माल की लेकिन उर्दू शाइरी में ऐसी मिसालें भी मौजूद हैं कि मुख़्तलिफ़ शोअरा के अशआर या अशआर के मिसरे कहावत या मुहावरे बन चुके हैं। आइए देखते हैं कुछ मिसालें:

न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता

ग़ालिब के इस शे’र का ऊला मिसरा अहल-ए-उर्दू के दरमियान कहावत के तौर पर इस्ते’माल होता है या होने लगा है।

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना

ग़ालिब ही के इस शे’र का सानी मिसरा अहल-ए-उर्दू के दरमियान कहावत के तौर पर इस्ते’माल होता है या होने लगा है।

फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूँ
मैं कहाँ और ये वबाल कहाँ

ये भी ग़ालिब का शे’र है और और इस शे’र का सानी मिसरा भी कहावत कह दिया जाए, तो कोई अजब बात नहीं होगी।

बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

ग़ालिब की मुख़्तलिफ़ ग़ज़ल के इन दोनों अशआर का सानी मिसरा किसी कहावत से कम नहीं है।

तुम हमारे किसी तरह न हुए
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता

कहने की बात ही नहीं है अगर कोई मोमिन के इस शे’र से वाक़िफ़ है, तो वो कब इस शे’र के सानी मिसरे को कहावत के तौर पर इस्ते’माल करने से बा’ज़ आता है।

सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं

इक़बाल के इस शे’र का ऊला मिसरा क्या किसी कहावत से कम है?

ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
हम को मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हम से ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं
उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें
मेरा पैग़ाम मोहब्बत है जहाँ तक पहुँचे

जिगर के इन तीनों अशआर में से पहला शे’र ही एक कहावत हुआ जा रहा है और बाक़ी के दो में पहले का ऊला मिसरा और दूसरे का सानी मिसरा कहावत हो चुका है।

अब बात करते हैं ख़ुदा-ए-सुख़न मीर के कुछ अशआर की जिनके मिसरे कहावत हो जाने के इमकान से परे बा-क़ाएदा कहावत हो चुके हैं।

राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या
अब तो जाते हैं बुत-कदे से मीर
फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया
मीर अमदन भी कोई मरता है
जान है तो जहान है प्यारे

उर्दू शाइरी से ना-वाक़िफ़ लोग भी क्या मीर के इन अशआर के सानी मिसरों से अनजान होंगे?

जाए है जी नजात के ग़म में
ऐसी जन्नत गई जहन्नम में

मीर के इस शे’र से कितने लोग वाक़िफ़ हैं ये मैं नहीं जानता लेकिन इस शे’र का सानी मिसरा अपने-आप में कहावत होने के इमकान से भरपूर है।

पेश की गई मिसालों से एक बात ज़ाहिर होती है कि मुहावरों में ‘ना’ लफ़्ज़ एहतियातन लाहिक़ा या’नी प्रत्यय या’नी Suffix के तौर पर इस्ते’माल होता है जब कि कहावतों के साथ ऐसा नहीं होता। कहावतें अपने- आप में एक मुकम्मल जुमला, वाक्य या Sentence होती हैं।