शायरी के इन किरदारों के बारे में अगर आप नहीं जानते तो ज़रूर जानना चाहिए
रहमदिल बादशाह, अक़्लमंद रानी, प्यारी राजकुमारी, जोशीला राजकुमार, बोलने वाला तोता, जादूगर!!!….. ये सब हमारी कहानियों के जाने-माने किरदार हैं, यही कहानी अगर गाँव की हो तो उसमें एक किसान और उसकी पत्नी होंगे, घर में एक पालतू जानवर होगा, किसान का परिवार ग़रीब मगर ईमानदार होगा।
ठीक इसी तरह शायरी में भी अलग अलग थीम्स और उनसे जुड़े किरदार होते हैं जैसे इश्क़ की थीम है तो उसमें आशिक़ होगा, महबूब होगा, रक़ीब होगा, और कभी कभी उपदेश देने वाले का इज़ाफ़ा हो जाता है। इसी तरह लहरें और समंदर का ज़िक्र है तो नाख़ुदा होगा, हर ख़ास थीम के साथ उसके उतने ही ख़ास इस्तियारे या किरदार हैं।
मोहब्बत चूँकि शायरी की और शायरी मोहब्बत की बुनियादी शर्त है तो देखते हैं कि जब थीम इश्क़ की हो तो कौन कौन से किरदारों से मुलाक़ात होती है।
First Segment
आशिक़
क्लासिकल उर्दू शायरी में आशिक़ एक ग़मज़दा शख़्स है, ऐसा शख़्स जो धोखे खाता है, जिसकी ज़िन्दगी ग़मों से भरी है और जो महबूब को रिझाने के लिए मुख़्तलिफ़ पैंतरे इस्तेमाल करता है, शायर ख़ुद ही आशिक़ का किरदार अदा करता है तो आशिक़ ही उर्दू शायरी का मुतकल्लिम (First Person) होता है।
मजनूँ/क़ैस को भी आशिक़ के इस्तियारे के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है।
इश्क़ माशूक़ इश्क़ आशिक़ है
यानी अपना ही मुब्तला है इश्क़
मीर तक़ी “मीर”
महबूब/माशूक़
क्लासिकल उर्दू शायरी में महबूब वो है जिससे शायर/आशिक़ मुख़ातिब है, महबूब अक्सर बेइंतिहा ख़ूबसूरत, ज़ालिम, बेदर्द और बेवफ़ा होता है जो शायर के ग़मों का सबब बनता है। इसी लिए इसे शायरी में बुत भी कहा गया है , कि बुत भी ख़ामोश रहता है और महबूब भी कोई जवाब नहीं देता है। शायर/आशिक़, महबूब का ध्यान अपनी तरफ़ खींचने की कोशिश करता है मगर महबूब चूँकि संगदिल है इसलिए अक्सर आशिक़ नाकाम होता है।
वो लोग ही हर दौर में महबूब रहे हैं
जो इश्क़ में तालिब नहीं मतलूब रहे हैं
जाँ निसार अख़्तर
चाँद
चाँद महबूब का इस्तियारा है , शायर चाँद में अपने महबूब का चेहरा देखता है और अपने महबूब को भी चाँद ही कहता भी है।
चाँद के दाग़, चौदहवीं का चाँद, छत का चाँद, शायर कई ज़ावियों से चाँद को देखता है मगर सोचता हमेशा महबूब को है।
चाँद बिना हर दिन यूँ बीता जैसे युग बीते
मेरे बिना किस हाल में होगा कैसा होगा चाँद
राही मासूम “रज़ा”
क़ासिद
यूँ तो क़ासिद के कई काम होते हैं मगर शायरी में क़ासिद या नामाबर का काम आशिक़ का पैग़ाम महबूब तक और महबूब का पैग़ाम आशिक़ तक लाना और ले जाना ही होता है, कई बार क़ासिद को मोहब्बत करने वालों की आपसी अनबन का शिकार होना पड़ता है।
क़ासिद नहीं ये काम तिरा अपनी राह ले
उस का पयाम दिल के सिवा कौन ला सके
ख़्वाजा मीर “दर्द”
रक़ीब
रक़ीब को हम सब जानते हैं, रक़ीब हर कहानी का विलन है, रक़ीब लव ट्राएंगल का तीसरा शख़्स है, एक हमारा शायर है, दूसरा महबूब तो तीसरा रक़ीब, शायर को हमेशा रक़ीब की तरफ़ से ये धड़का सा लगा रहता है कि कहीं महबूब उसे न चुन ले।
इधर आ रक़ीब मेरे मैं तुझे गले लगा लूँ
मिरा इश्क़ बे-मज़ा था तिरी दुश्मनी से पहले
कैफ़ भोपाली
Second Segment
बाग़ों की दुनिया
शायरी जब बाग़ में आती है तो यहाँ भी कई दोस्त बनाती है, बाग़ के ख़ास किरदारों के ज़रिए शायर अपनी कैफ़ियत बयाँ करते हैं।
बाग़बां
बाग़बां बाग़ को बनाने वाला या उसका ख़याल रखने वाला होता है, जिसके लिए हर फूल, हर पत्ती अपने बच्चे के जैसी होती है।
बाग़बां वो किरदार है जो बाग़ को हरा-भरा रखने में ही अपनी ज़िंदगी लगा देता है, इसीलिए माँ-बाप को भी बाग़बां कहा जाता है। बाग़ में कुछ भी अनहोनी हो तो बाग़बां से जवाब तलब किया जाता है।
मुझे बाग़बाँ से गिला ये है कि चमन से बे-ख़बरी रही
कि है नख़्ल-ए-गुल का तो ज़िक्र क्या कोई शाख़ तक न हरी रही
क़मर जलालवी
गुलचीं
गुलचीं और बाग़बान को कई बार लोग मिला देते हैं मगर गुलचीं और बाग़बाँ में वही फ़र्क़ है जो अंग्रेज़ी के गार्डनर और फ़्लोरिस्ट में है। गुलचीं गुल या फूल तोड़ने वाला और फूलों से ही वास्ता रखने वाला है, गुलचीं को फूल तोड़ने के कारण अक्सर लानत मलामत का सामना करना पड़ता है।
हाथ से गुलचीं के झटके कौन खाए
शाख़-ए-गुल पर आशियाना कुछ नहीं
रियाज़ ख़ैराबादी
गुल
गुल या फूल कभी महबूब के लिए, कभी महबूब की किसी ख़ास सिफ़त को बयाँ करने के लिए या मासूमियत, ख़ूबसूरती और नाज़ुकी के लिए इस्तेमाल किया जाता है। गुल का ज़िक्र अक्सर ख़ार यानी कांटों के साथ होता है, गुल और ख़ार अक्सर हुस्न और उससे मिलने वाले ज़ख्मों की तशबीह के रूप में इस्तेमाल होते हैं।
जो गुल है याँ सो उस गुल-ए-रुख़्सार साथ है
क्या गुल है वो कि जिस के ये गुलज़ार साथ है
मोहम्मद रफ़ी “सौदा”
बुलबुल
बुलबुल बाग़ का परिंदा है लेकिन बुलबुल बाग़ की रूह भी है, बाग़ में कैसी भी हरकत होती है तो उसकी पहली ख़बर और उसका पहला असर बुलबुल पर होता है, बुलबुल आशिक़ भी है जो गुल पर फ़िदा है, बुलबुल आशिक़, गुल महबूब, बुलबुल मासूमियत भी है, ख़ुशी भी है और बाग़ का सुकून भी, इसी लिए “बुलबुल का नाला” तबाही या बदक़िस्मती बताता है। वहीं अगर बुलबुल ख़ुश हो कर गीत गाये तो वो ख़ुश-हाली लाता है। बुलबुल को एक फ़्री स्पिरिट के तौर से भी देखा जाता है, इसीलिए इसके साथ सैय्याद (शिकारी) का ज़िक्र भी आता है जो उसे क़ैद करना चाहता है।
क़ैद-ए-सय्याद में बुलबुल का चहकना न गया
अब भी समझी न सबब अपनी गिरफ़्तारी का
जलील मानिकपुरी
सैय्याद
सैय्याद शिकारी या बहेलिए को कहते हैं जो बाग़ में भी वही है मगर ज़ालिम के इस्तियारे के रूप में जो मासूम परिंदों जैसे बुलबुल पर ज़ुल्म करता है, सैय्याद का होना ख़तरे की निशानी है, पूरे बगीचे में अगर ख़ौफ़ का मंज़र तारी करना हो, ज़ुल्मी की बात इस थीम के हवाले से करनी हो तो सैय्याद ही सबसे मुफ़ीद इस्तियारा है।
ग़ुंचा ग़ुंचा ख़ौफ़ से मुझ को नज़र आया क़फ़स
पत्ते पत्ते पर हुआ धोका कफ़-ए-सैय्याद का
हफ़ीज़ जालंधरी
Third Segment
मयख़ाने का माहौल
शायरी और शराब का आपस में इतना मेल रहा है जितना मछली का पानी से हो, शराब को बेख़ुदी के इस्तियारे के तौर पर बरता जाता है, ये भी माना जाता है कि जो जितना बेख़ुद है उतना ख़ुदा के क़रीब है, उर्दू शायरी से पहले फ़ारसी और उस से पहले अरबी शायरी से ही मयख़्वारी और शराबियों की इतनी ख़ूबियाँ बयान की गईं हैं कि वो शायर जिन्होंने कभी शराब को हाथ भी नहीं लगाया उन्होंने भी शराब और नशे का बखान किया है, इस मयख़ाने से जुड़े माहौल में भी कई किरदार हैं, आइए उनसे मिलते हैं
शराबी
शराबी शायरी में सबसे अलमस्त किरदार है, कभी वो रोता है, कभी हँसता है, कभी नाचता है, कभी सर फोड़ता है, कभी बिना पिये बहक जाता है कभी पी कर भी होश में रहता है, कभी ग़म में हंसने लगता है और कभी ख़ुशी में रोने लगता है। शराबी आशिक़ का ही एक रूप है, आशिक़ का ग़म अक्सर एक ही होता है, शराबी के लिए ऐसी कोई हद नहीं है। शायर ही शराबी का किरदार अदा करता है।
मुझ पे ज़ाहिर है आप का बातिन
मुँह न खुलवाओ मैं शराबी हूँ
साग़र सिद्दीक़ी
साक़ी
साक़ी वो है जिसे अंग्रेज़ी ज़बान में बार टेंडर कहते हैं साक़ी कोई भी हो सकता है, मगर उर्दू शायरी में साक़ी शराबी को शराब मिलने का ज़रिया भी है और उसकी मोहब्बत भी, साक़ी और शायर के बीच एक तरह की दोस्ती होती है। अक्सर साक़ी को महबूब के रूप में देखा गया है। साक़ी महबूब न भी हो तो ख़ैर-ख़्वाह तो होता ही है, साक़ी एक तरह से वो दोस्त है जो दोस्त को पिलाता भी है उसका ख़याल भी रखता है और उससे कलाम भी करता है।
ला फिर इक बार वही बादा-ओ-जाम ऐ साक़ी
हाथ आ जाए मुझे मेरा मक़ाम ऐ साक़ी
अल्लामा इक़बाल
नासेह/वाइज़
यूँ तो नासेह हर जगह पाए जाते हैं मगर शराबियों पर ये ज़ियादा मेहरबान रहते हैं, नासेह कई तरह के लोग हो सकते हैं, जैसे सबसे आम नासेह है, कोई मज़हबी शख़्स, शराब को बहुत से मज़हबों में बुरा माना गया है इसीलिए शराबी के शराब पीने पर पहला एतराज़ भी उन्हीं का है। फिर आते हैं, रिश्तेदार या दोस्त जो शराब छोड़ने की नसीहत देते हैं, मगर शायर इनकी कभी नहीं सुनते बल्कि ख़ुद ही उसे नसीहत देने लगते हैं। ये नासेह आशिक़ को इश्क़ से बाज़ रखने की भी कोशिश करते हैं।
मोहब्बत को समझना है तो नासेह ख़ुद मोहब्बत कर
किनारे से कभी अंदाज़ा-ए-तूफ़ाँ नहीं होता
ख़ुमार बाराबंकवी
Miscellaneous
नाख़ुदा
नाख़ुदा समंदर की थीम में इस्तेमाल होता है, नाख़ुदा का किरदार या तो शायर ही अदा करता है या उसकी कहानी ख़ुद बयाँ करता है। नाख़ुदा नाविक को कहते हैं, इनके ज़िम्मे नदी या समंदर में आने वाले लोगों को महफ़ूज़ जगह तक पहुंचाने का काम है मगर वो ज़ाहिरी है, दर अस्ल नाख़ुदा हिम्मत का इस्तियारा है जो समंदर के तूफ़ानों से लड़ता है।
तुम्हीं तो हो जिसे कहती है नाख़ुदा दुनिया
बचा सको तो बचा लो कि डूबता हूँ मैं
असरार उल हक़ मजाज़
शम’अ
शम’अ यूँ तो रौशनी या जलती हुई लौ को कहा जाता है मगर इससे मुराद महबूब होता है। शम’अ को महबूब का इस्तियारा बनाने की वज्ह ये है कि शम’अ अक्सर परवाने से तअल्लुक़ में महफ़ूज़ रहती है और परवाना जल कर मर जाता है, ये आशिक़ और महबूब के तअल्लुक़ को ख़ूब बयाँ करता है जिसमें महबूब बेपरवा और आशिक़ जान देने को उतावला होता है। शम’अ का और म’आनी में भी इस्तेमाल होता है।
शम्अ माशूक़ों को सिखलाती है तर्ज़-ए-आशिक़ी
जल के परवाने से पहले बुझ के परवाने के बाद
जलील मानिकपुरी
परवाना
परवाने का शम’अ से वही तअल्लुक़ है जो आशिक़ का महबूब से है, बस फ़र्क़ इतना है कि आशिक़ को महबूब मिल भी सकता है, परवाने की क़िस्मत या तो शम’अ के ग़म में दुःखी रहना या शम’अ में जल कर मर जाना ही है। परवाने की मोहब्बत ट्रेजेडी ही है और उसी तरह से शायरी में इस्तेमाल की जाती है।
अव्वल-ए-शब वो बज़्म की रौनक़ शम्अ’ भी थी परवाना भी
रात के आख़िर होते होते ख़त्म था ये अफ़्साना भी
आरज़ू लखनवी
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