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ये जो मोहब्बत है: वैलेंटाइन डे स्पेशल

ये जो मुहब्बत है ये उन का है काम, महबूब का जो बस लेते हुए नाम, मर जाएँ, मिट जाएँ, हो जाएँ बदनाम!

वाक़ई! बदनाम हो जाना, मर जाना, महबूब का नाम लेते हुए हँसते-हँसते मिट जाना, ये सब एक आशिक़ ही की ख़ूबियाँ हैं, इश्क़ वही है जिस में बरबाद हुआ जा सके।

क्या कहूँ तुम से मैं कि क्या है इश्क़
जान का रोग है बला है इश्क़

उर्दू शायरी में इश्क़ के बारे में ये और ऐसे कई शे’र मशहूर हैं मगर ऐसा नहीं है कि इश्क़ और आशिक़ की बरबादी के क़िस्से सिर्फ़ उर्दू शायरी तक महदूद रह गए हैं। हिंदुस्तान की और ज़बानों और इलाक़ों में भी देखा जाए तो पंजाब की तरफ़ हीर-राँझा, सोहनी-महीवाल, मिर्ज़ा-साहिबा और सस्सी-पुन्नू के क़िस्से हमें ख़ूब मिलते हैं जिन का असर बॉलीवुड में भी बहुत है। सूफ़ी पंजाबी शायरी में तो इन क़िस्सों को अलग अलग सूफ़ी संतों और शायरों ने अपने अपने तरीक़े से सुनाया है।

सूफ़ी शायरी से रवायती उर्दू शायरी को अलग करने वाली कोई सीधी साफ़ लकीर नहीं है बल्कि सूफ़ी रवायत ने उर्दू में इश्क़ को और नुमायाँ ही किया है। रवायती उर्दू शायरी की तरफ़ आएँ तो यहाँ लैला-मजनूँ और शीरीं-फ़रहाद बेहद मशहूर हैं, लैला-मजनूँ तो उर्दू शायरी में ही नहीं बल्कि इस पूरे इलाक़े में इस क़दर जज़्ब हैं कि मजनूँ का नाम आशिक़ का पर्याय यानी synonym ही हो चुका है।

ये क़िस्से जिस वक़्त के हैं उस वक़्त इश्क़ पर हज़ार पाबंदियाँ हुआ करतीं थीं लिहाज़ा इश्क़ तकलीफ़-देह ही होता था। अक्सर यही होता था कि समाज की बेड़ियों में जकड़े आशिक़ उन्हीं में दम तोड़ देते थे और कभी एक नहीं हो पाते थे, कभी दौलत की वज्ह से, कभी ज़ात (जाति) की वज्ह से, कभी ख़ानदानी दुश्मनी की वज्ह से या किसी और कुरीति की वज्ह से, ज़ाहिर है मज़हब भी इस से दूर नहीं था।

इसी दौरान हिंदुस्तान में भक्ति की शुरूआत हुई जो मुहब्बत का पैग़ाम थी, सियासी और मज़हबी, हर इदारे में संतों की शायरी ने कट्टरता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और इंसान को इंसान से मुहब्बत करना सिखाया। मज़हबों ने इश्क़ को रोकना चाहा तो शायरों ने इश्क़ को ही मज़हब बना दिया, ख़ुदा और महबूब का मक़ाम एक हो गया साथ ही ख़ुदा की बात महबूब के ज़रिए और इबादत की बात इश्क़ के ज़रिए होने लगी:

‘ज़हीन’ अल्लाह को मैं देखता हूँ हुस्न-ए-जानाँ में
नज़र ख़ुर्शीद के जलवे मह-ए-कामिल में आते हैं

ख़ुदा की या महबूब की आरज़ू करते करते मर जाना और उसी में उस को (ख़ुदा या/और महबूब) पा लेना आशिक़ की ख़ासियत बन गयी, यही इश्क़ ए हक़ीक़ी कहलाया।

अपने दीदार की हसरत में तू मुझ को सरापा दिल कर दे
हर क़तरा ए दिल को क़ैस बना हर ज़र्रे को महमिल कर दे

बेदम शाह वारसी कहते हैं कि अपने दीदार की हसरत में मुझे सरापा दिल कर दे, दिल के हर क़तरे को क़ैस बना दे और हर ज़र्रे को महमिल (ऊँट पर रखी जाने वाली पालकी) कर दे। इस शे’र में महमिल की जगह लैला क्यूँ नहीं हुआ ये ग़ौर करने की बात है, क़ैस की इकलौती आरज़ू लैला है फिर शायर दिल के हर क़तरे को क़ैस बना कर हर ज़र्रे को महमिल करने की दुआ क्यूँ कर रहा है?

ये दुआ इसलिए है कि शायर पहले ख़ुद सरापा दिल होना चाहता है यअनी सिर्फ़ दिल से नहीं बल्कि सर से पाँव तक हसरती दिल होना चाहता है फिर उस दिल का हर क़तरा क़ैस (मजनूँ) बने और दुनिया का हर ज़र्रा उस के लिए महमिल हो जाए।

क़ैस लैला के लिए सहरा में भटकता रहा, महमिल में लैला के होने का गुमान है, लैला से मिलने की हसरत है, क़ैस के लिए ये हसरत लैला के मिलने से बढ़ कर है। ख़ुदा मंज़िल नहीं है बल्कि हसरत में तड़पना ही मंज़िल है। यही आरज़ू यही हसरत इक़बाल के यहाँ इन लफ़्ज़ों में ज़ाहिर हुई है:

मता-ए-बे-बहा है दर्द-ओ-सोज़-ए-आरज़ूमंदी
मक़ाम-ए-बंदगी दे कर न लूँ शान-ए-ख़ुदावंदी

हिजाब इकसीर है आवारा-ए-कू-ए-मोहब्बत को
मेरी आतिश को भड़काती है तेरी देर-पैवंदी

आरज़ू में जो दर्द और सोज़ वो ही तो मेरी दौलत है, बन्दगी में जो लुत्फ़ है उस के बदले में ख़ुदाई भी मिले तो भी मंज़ूर नहीं! और तेरा हिजाब तेरा नज़र न आना ही अस्ल में मेरी दवा है, मेरे सीने की आग तेरे न मिलने से ही भड़कती है, यह भड़कना बंद हो गई तो मुझ में और बचेगा ही क्या!

इस तरह महबूब से इश्क़ और ख़ुदा से तअल्लुक काफ़ी वक़्त तक साथ साथ चलते रहे और एक दूसरे को पूरा करते रहे, फिर राजशाही धीरे धीरे ख़त्म हुई, निज़ाम बदला तो इश्क़ भी बदला, अंग्रेज़ों के वक़्त में ही औद्योगिक क्रांति हुई जिस का असर पूरी दुनिया में हुआ, हिंदुस्तान उस वक़्त अंग्रेज़ों का ही ग़ुलाम था तो हम पर इस का सीधा और गहरा असर पड़ा, हमारे इश्क़ और शायरी पर भी,

उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें
मेरा पैग़ाम मोहब्बत है जहाँ तक पहुँचे

इश्क़-मुहब्बत फ़क़त दो लोगों या ख़ुदा और उस के बंदों के बीच की बात न रह कर आपस की एक ज़रूरत बन गयी क्योंकि सियासत का ज़ोर अवाम को बांट कर एक दूसरे के ख़िलाफ़ करने पर था। मुहब्बत और इश्क़ का पैग़ाम अब आज़ादी की तड़प से जुड़ गया था, क्रांतिकारी भगत सिंह का कहना कि “मेरी दुल्हन तो आज़ादी है”, मुल्क के नौजवानों को आज़ादी में ही अपना इश्क़ अपनी हर हसरत दिखा गया,

जुनून-ए-हुब्ब-ए-वतन का मज़ा शबाब में है
लहू में फिर ये रवानी रहे रहे न रहे

इश्क़ या तो आज़ादी से था या महबूब के साथ आज़ादी के लिए लड़ने से, अब तक महबूब या ख़ुदा चुप थे, आशिक़ का काम बस इश्क़ और इबादत में उन्हें रिझाते रिझाते बरबाद हो जाना था, अब वही आशिक़ ज़ुल्म के ख़िलाफ़ जंग में महबूब का साथ चाहता था, ख़ुदा से सवाल करता था,

तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था

ख़ुदा-ए-बर्तर तिरी ज़मीं पर ज़मीं की ख़ातिर ये जंग क्यूँ है
हर एक फ़त्ह-ओ-ज़फ़र के दामन पे ख़ून-ए-इंसाँ का रंग क्यूँ है

ख़ुदा और महबूब के लिए बरबाद होने से ले कर उन से गुफ़्तगू करने तक और महबूब के न दिखने से ले कर महबूब को क्रांति में साथ रखने तक के इस सफ़र में दुनिया बदल गयी थी, आज़ादी भी मिल गयी थी, यही वक़्त था जब पश्चिम में ख़ुदा का इंकार ही नहीं उस के निज़ाम पर सवाल उठ रहे थे, रवायती इश्क़ की बुनियाद से यक़ीन उठ रहा था।

ऐसा नहीं है कि उर्दू शायरी में इस से पहले ख़ुदा का इनकार नहीं लिखा गया या इश्क़ को ख़ारिज नहीं किया गया मगर वो कभी इस क़दर मायूसी और बेयक़ीनी के साथ नहीं किया गया, पोस्टमॉडर्निज़्म की ये एक तहज़ीबी ख़ासियत थी,

यूँ जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या

हर शख़्स से बे-नियाज़ हो जा
फिर सब से ये कह कि मैं ख़ुदा हूँ

बहुत बेआसरा-पन है सो चुप रह
नहीं है यह कोई मुज़्दा ख़ुदा नईं

ये कलाम ख़ुदा और इश्क़ को ख़ारिज कर के ग़ालिब की तरह यक़ीन को कहीं और नहीं ले जाता, कि दिल बहलाने को जन्नत की हक़ीक़त का भरम बना रहे या ख़ुदा को छोड़ा तो महबूब के लिए छोड़ा, बल्कि इस इश्क़ में न ख़ुदा मिलता है न महबूब न यक़ीन,

वफ़ा इख़्लास क़ुर्बानी मोहब्बत
अब इन लफ़्ज़ों का पीछा क्यूँ करें हम

बेयक़ीनी से होते हुए हम अब उस शायरी और उस इश्क़ तक आ पहुँचे हैं जहाँ इंसान ख़ुदा के लिए कहता है,

कहियो कि तू ने ख़ूब बनाई है काएनात
लेकिन उसे लिखाई के नंबर न दीजियो

पहले ख़ुदा से डरते थे फिर उस से मुहब्बत हुई फिर जब बेइंतहा ज़ुल्म हुए तो उसी से शिकायत भी की गयी, सरमायादारी निज़ाम में जब अपना वजूद खोने लगे तो उस से इंकार भी किया मगर उस की ज़रूरत भी महसूस हुई, आख़िर में उसे वहाँ ले आये जहाँ हम उस की तख़लीक़ पर तंक़ीद करने लगे।
ख़ुदा से तअल्लुक़ अब ज़्यादा बे-तकल्लुफ़ी चाहने लगा, हम ख़ुदा तक क्यूँ जाएं वो हम तक आए,

ये अनल-हक़ भी मेरी मैं को गवारा नहीं है
उस की जानिब से सदा आए मैं सरमद हूँ

इश्क़ में भी कमोबेश यही सूरते हाल रही, महबूब से इश्क़ में पहले आशिक़ बरबाद हुए, महबूब की ख़ूबसूरती एक अरसे तक मुद्दआ बनी रही, उस के लब की नाज़ुकी से होते हुए उस के साथ होने से मुहब्बत होने लगी, साथ हुए तो ख़याल आया कि महबूब एक इंसान भी है जिस के कुछ हुक़ूक़ हैं, जो इश्क़ के अलावा भी एक पूरी दुनिया का हिस्सा है।
साथ लड़े साथ चले तो ज़िन्दगी की नाज़ुकी को तल्ख़ हक़ीक़त ने कुचल दिया सो इश्क़ से भी यक़ीन हट चला,

शायद मुझे किसी से मोहब्बत नहीं हुई
लेकिन यक़ीन सब को दिलाता रहा हूँ मैं

फिर ख़ुदा से तअल्लुक़ में जैसी तबदीली आई थी उसी तरह ही महबूब से इश्क़ में भी तबदीली की ज़रूरत महसूस हुई और महबूब के सामने आशिक़ अब अपनी शर्तें रखने लगा,

तेरी शर्तों पे ही करना है अगर तुझे क़ुबूल
ये सहूलत तो मुझे सारा जहाँ देता है

इश्क़ और इबादत का सफ़र यहाँ तक पहुँचा है, आगे आगे देखिए होता है क्या!

एक बात मगर तय है इश्क़ और ख़ुदा से तअल्लुक़ साथ साथ चले हैं साथ साथ बदले हैं, इन में गहरा तअल्लुक़ है और इन से तअल्लुक़ इंसान की बुनियादी ज़हनी ज़रूरत है कि इन के इंकार में भी हर शख़्स में इन्हें खोने का दर्द है। इश्क़ और इबादत और जाने कहाँ तक जाएँ मगर मुहब्बत और इबादत करने वालों से हम यही कहेंगे,

किसी और के तजरबे से कोई फ़ाएदा क्या उठाएँ
मोहब्बत में हर तजरबा ही अलग तरह का तजरबा है

हर ज़माने की मुहब्बत, इश्क़, इबादत अपने जैसा अलाहिदा अनोखा तजरबा रहा है, हर तजरबा अलग तजरबा है, अपना तजरबा आप कीजिए, अपना इश्क़ और अपना ख़ुदा अपने जैसा हो, बस मुहब्बत जैसे चले साथ चले।