कोरोना के बाद की दुनिया: शायर की नज़र से
इक्कीसवीं सदी की तीसरी दहाई शुरू हुआ चाहती है। मौसमे-सर्द रवाना होते-होते वापसी कर रहा है और मौसमे-गर्म की आमद-आमद है। मगर दो मौसमों के मिलन की इस साअत में भी दिल बुझे हुए हैं। दो-चार लोगों के दिल नहीं, दो-चार शहरों या मुल्कों के दिल नहीं बल्कि सारी दुनिया के दिल बुझे हुए हैं। कैसी अजीब और डरावनी हक़ीक़त है कि इस ज़मीं की आधी से ज़ायद आबादी अपने-अपने घरों में कै़द हैं। यह सज़ा है या आज़माइश, अभी ज़ाहिर नहीं हुआ है। सज़ा है तो ना-कर्दा गुनाहों की है या कर्दा गुनाहों की, इस राज़ से भी पर्दा उठना अभी बाक़ी है। फ़िलहाल तो मुसलसल अंदेशा यह है कि कुछ दिन या कुछ महीनों के बाद भी क्या हम इस कै़द से आज़ाद हो पाएंगे? ऐसा क्या कर दिया हमने जो एक दूसरे के लिए मौत का सामान बन गये हैं। पीरज़ादा क़ासिम ने क्या इसी दिन के लिए कहा था
अपने ख़िलाफ़ फैसला ख़ुद ही लिखा है आपने
हाथ भी मल रहे हैं आप, आप बहुत अजीब हैं
क्या हम ख़ुद ही अपनी तबाही का सबब बनेंगे या बन चुके हैं। क्या जॉन एलिया यह पहले से जानते थे
अब नहीं बात कोई ख़तरे की
अब सभी को सभी से ख़तरा है
आदमी अपने लिए, अपनी पूरी जमात के लिए ख़तरा कैसे बन गया है। यह अचानक क्या हो गया है। अपना दायाँ हाथ देखता हूं तो ध्यान आता है कि पिछले लगभग एक महीने से मैंने किसी से हाथ नहीं मिलाया है यानी मुसाफ़ा नहीं किया है। बिना मुसाफ़ा की मुलाक़ात मेरे नज़दीक मुलाक़ात है ही नहीं। मेरे नज़दीक मुलाक़ात, मुसाफ़ा या गले मिले बग़ैर मुमकिन ही नहीं है। मुसाफ़ा करने का अहसास भी अब मुश्किल से महसूस कर पा रहा हूँ। मुसाफ़ा दोनों फरीक़ैन की अपनाइयत की हिद्दत एक दूसरे में मुन्तक़िल कर देता है। आज मुआमला यह है कि सलाम करते हुए, नमस्ते करते हुए या विश करते हुए हाथ खु़द-ब-खु़द कमर के पीछे चला जाता है। बशीर बद्र के साथ जावेद सबा और काशिफ़ हुसैन ग़ाइर याद आ जाते हैं
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फासले से मिला करो
ये जो मिलाते फिरते हो तुम हर किसी से हाथ
ऐसा न हो कि धोना पड़े जिंदगी से हाथ
हाल पूछा न करे हाथ मिलाया न करे
मैं इसी धूप में खुश हूं कोई साया न करे
यह शेर आज अपने ताज़ा मानी-ओ-मफ़्हूम में हमारी मजबूरियों की अक्कासी कर रहा है। क्या ग़ज़ब है कि इक्कीसवीं सदी की यह कामयाब तरीन और ख़ूबसूरत दुनिया अपनी तमामतर रंगीनियों और जलवा- सामानियों के बावजूद एक मिट्टी का ढेर नज़र आ रही है। मुल्क-दर-मुल्क और शहर-दर-शहर ऐसी वीरानी है कि फरहत एहसास का शेर पलकें भिगो देता है
आंख भर देख लो ये वीराना
आजकल में ये शहर होता है
नासिर काज़मी, एतबार साजिद और नूर जहां सर्वत का भी तो यही दुख है
चहकते बोलते शहरों को क्या हुआ नासिर
कि दिन को भी मिरे घर में वही उदासी है
एक ही शहर में रहना है मगर मिलना नहीं
देखते हैं ये अज़ीय्यत भी गवारा करके
कौन तन्हाई का एहसास दिलाता है मुझे
यह भरा शहर भी तन्हा नज़र आता है मुझे
ज़फ़र इक़बाल ने क्या इसी दौर के लिए कहा था
रास्ते हैं खुले हुए सारे
फिर भी ये ज़िंदगी रुकी हुई है
एक अंजाना ख़ौफ़, एक अनदेखा दुश्मन, इंसानी शक्ल में मौत की आहट की तरह हर दरवाज़े पर दस्तक देने के लिए मौजूद है। यह दिल क्यों डूब रहा है? शायद इसका सबब यह है कि इंसान इंसानियत के लिए आज से क़ब्ल इतना बड़ा ख़तरा कभी नहीं बना था। हमने हज़ारों जंगे देखीं। दो जंगे-अज़ीम भी देखीं।बड़ी-बड़ी मुल्की और क़ौमी जंगों से हमारी तारीख़ भरी पड़ी है। मगर यह अजीब लड़ाई है जिसमें सारी दुनिया एक तरफ है और दूसरी तरफ सिर्फ़ एक न दिखने वाला दुशमन है जिसने सारी दुनिया को बेबस और लाचार कर दिया है। शहरयार ख़ुद को और हमें कितनी भी तसल्ली दें कि
बे-नाम से इक ख़ौफ़ से क्यों दिल है परेशां
जब तय है कि कुछ वक़्त से पहले नहीं होगा
सोचता हूं कि क्या जब हम इस क़ैद से आज़ाद होकर वापस अपनी पुरानी दुनिया में जाएंगे तो क्या दुनिया पहले जैसी रह जाएगी? क्या हम उसी लापरवाही के साथ रेलवे स्टेशन पर बैठ कर अपनी-अपनी ट्रेनों का इंतज़ार कर सकेंगे। उसी बेबाकी के साथ भीड़ भरी सड़कों और संकरी गलियों में कांधे से कांधा रगड़कर बिना किसी तकल्लुफ़ और घबराहट के आ जा सकेंगे। उसी सुकून से लबालब भरी हुई ट्रेनों में अनजान लोगों के साथ सफ़र कर सकेंगे। सामान लेते या देते हुए अनजाने में एक दूसरे का हाथ छू जाने से क्या हमें उतना ही नॉर्मल लगेगा जितना पहले लगता था। क्या उसी आज़ादी के साथ मल्टी प्लेक्स में मूवी देख सकेंगे, मॉल्स में शॉपिंग कर सकेंगे। अपने यारों से, अपने प्यारों से बात-बात में बिना तकल्लुफ़ हंसी-मज़ाक़ में गले लगते और लिपटते हुए पहले की तरह हमें कुछ सोचना नहीं पड़ेगा? या फिर जौन एलिया की आप बीती जग-बीती हो जाएगी
हम को यारों ने याद भी न रखा
जौन यारों के यार थे हम भी
या मुनीर नियाज़ी का यह इन्फिरादी दुख इज्तिमाइयत इख़्तियार कर लेगा
आंखों में उड़ रही है लुटी महफ़िलों की धूल
इबरत सराए दहर है और हम हैं दोस्तो
अपने घरों में कैद ज़ियादातर लोगों को कोई परेशानी भी नहीं है क्योंकि पिछली एक दहाई से जो हमारा सामाजिक ताना-बाना बिखरा है, और हमारी ज़िंदगियों में अस्ल दुनिया के बजाय इंटरनेट की ख़्याली दुनिया ने जो दख़्ल- अंदाज़ी की है, उसके सबब हम सब वैसे ही घर और मुआशरे से दूर हो गये हैं। हमें वैसे भी यारों-दोस्तों, पड़ोसियों, अपनेख़ानदान, कुनबे, मोहल्ले, मुआशरे की बहुत ज़ियादा जरूरत नहीं रह गई है। शारिक़ कैफ़ी इस तन्हाई को कैसे ज़ाहिर करते हैं
घर में ख़ुद को क़ैद तो मैंने आज किया है
तब भी तन्हा था जब महफिल-महफिल था मैं
जो घरों में कैद हैं वो अपने आपको क़ैदी समझ रहे हैं। मगर उन्हें चाहिए कि वो ऊपर वाले का शुक्र अदा करें कि वो दर-ब-दर तो नहीं हैं। उनके सिर पर साया तो है। जो करोड़ों लोग घरों के बाहर हैं। जिनके घर नहीं हैं और हैं भी तो हजारों मील दूर हैं। उनके हालात और बुरे हैं। उन्हें तो अपना वही टूटा- फूटा घर याद आ रहा है।उम्मीद फ़ाज़ली का शेर याद आता है
घर तो ऐसा कहां का था लेकिन
दर-बदर हैं तो याद आता है
हमें सिर्फ़ अपनी आसाइशें चाहिएं। इसके लिए हमनें इस ज़मीं को खोखला कर दिया है। इस ज़मीं से हमने इतना काम लिया कि इस को क़ब्ल-अज़-वक़्त थका दिया है। वक़्त से पहले यह ज़मीं बूढ़ी हो गई है। परवीन शाकिर ने इस ज़मीन का दुख देख लिया था-
बोझ उठाते हुए फिरती है हमारा अब तक
ऐ ज़मीं मां तेरी यह उम्र तो आराम की थी
हम लोग इस जमीं को अपनी मलकियत समझने लगे थे और इस आसमान को अपनी जागीर मानने लगे थे।जिनके पास सब कुछ था वो उसके अलावा भी सब कुछ पाना चाहते थे। दिन को दिन नहीं मान रहे थे। रात को रात नहीं मान रहे थे। शहरयार ने क्या बात कही थी
रात को दिन से मिलाने की हवस थी हमको
काम अच्छा न था अंजाम भी अच्छा न हुआ
ज़फ़र इक़बाल कहते हैं
थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते-करते
कुछ और थक गया हूं आराम करते-करते
बहरहाल आने वाले वक़्त के लिए दुआ करनी चाहिए और जो हमारे बीच खाइयां हैं, दरारें हैं उन्हें भरने की कोशिश करनी चाहिए। नई नस्लों के लिए एक नई दुनिया बनानी है। जिसमें किसी को भी एहसास-ए-कमतरी न हो और किसी को भी एहसास-ए-बरतरी न हो। इंसान का इंसान से रिश्ता और मजबूत करने की जरूरत है। हवस ख़त्म तो नहीं होगी। मगर उसकी दीवारें तंग करनी होगी। अपनी ज़मीन को अब अपनी मां की तरह नहीं अपनी औलाद की तरह दुलार देना होगा। उसके सारे दुख, उसके सारे ज़ख्म मिलकर भरने होंगे। उसके नोचे गए ज़ेवर उसे वापस लौटाने होंगे। हमें पैसे के पीछे भागने की आदत कम करनी होगी और ज़िन्दगी के पीछे भागने की आदत ज़ियादा डालनी होगी। नहीं तो हम अभी सिर्फ़ कुछ हफ़्तों या महीनों के लिए क़ैद हुए हैं। अगर यह सिलसिला जारी रहा तो आगे मुमकिन है कि हमें उम्र-क़ैद की सज़ा दे दी जाए।
सभी शायर दोस्तों की तरफ से यह दुआ करता हूं कि हमें ऐसी सज़ा आगे कभी न मिले और अपने एक शेर के साथ बात ख़त्म करता हूं।
मिल बैठ के वो हंसना वो रोना चला गया
अब तो कोई ये कह दे करोना चला गया
कोरोना पर लिखा गया एक और ब्लॉग आप यहाँ पढ़ सकते हैं: वो सुब्ह कभी तो आएगी
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