इन शेरों की तो पेंटिंग्स भी नहीं बनाई जा सकती
बोल कर दाद के फ़क़त दो बोल
ख़ून थुकवा लो शोबदा-गर से
इस शेर में जौन एलिया ने शायर को तारीफ़ का भूखा बताया है, लेकिन ये भी हक़ीक़त है कि महबूब की तारीफ़ करनी हो या मोहब्बत का इज़हार, सबकी पहली पसंद शायरी है, सबकी ज़िन्दगी में एक दौर ऎसा ज़रूर आता है जब ख़ूब शायरी पढ़ी जाती है और लिखने की कोशिशें भी होती हैं, ये दौर अक्सर मोहब्बत या आज की ज़बान में क्रश या पहले पहले प्यार का दौर होता है।
वो जो पहला था अपना इश्क़ वही
आख़िरी वारदात थी दिल की
पूजा भाटिया
लेकिन शायरी में तारीफ़ या दाद या किसी चीज़ को ग्लोरिफ़ाई करना अपने आप में अच्छी शायरी का हिस्सा रहा है, यूँ समझ लीजिए कि तारीफ़ में जो अलामतें इस्तेमाल की जाती हैं वो पुर-असर हों, तो ‘आह’ और ‘वाह’ बे-साख़्ता ही मुँह से निकल जाती है!
नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है
अब शायरी और ज़बान से नावाक़िफ़ शख़्स को इस शे’र में शायद कुछ अनोखा न लगे, लबों को गुलाब की पंखुड़ी ही तो कहा है, इसमें क्या बड़ी बात है? मगर ऐसा है नहीं, मीर ख़ुदा-ए-सुख़न यूँही नहीं कहलाते, उन्होंने लब को पंखुड़ी नहीं कहा है, लब की नाज़ुकी की बात की है, नाज़ुकी ख़ुद लब की एक ख़ूबी है, अब अगले मिसरे में कहा जा रहा है कि “पंखुड़ी इक गुलाब की सी है”।
हो सकता है कि ये भी लगे कि चलो लब की नाज़ुकी को गुलाब की पंखुड़ी कह दिया गया, लेकिन अगर आप ऐसा सोचते हैं तो आप फिर मात खा जाएंगे, अच्छे शायर के शेर में हर लफ़्ज़ किसी वज्ह से होता है और कोई भी लफ़्ज़ फ़ालतू या भरती का नहीं होता, इसीलिए लब की नाज़ुकी गुलाब की पंखुड़ी नहीं है, “पंखुड़ी की सी” है, यहाँ जो “सी” है वो इस शे’र को बला का नाज़ुक और ख़ूबसूरत बना रहा है कि अब आप को शायर ने तसव्वुर में छोड़ दिया कि ऐसी नाज़ुकी जो गुलाब की पंखुड़ी की सी है, अब गुलाब की पंखुड़ी तो आप फिर भी सोच लें मगर पंखुड़ी की ‘सी’ है कैसे सोचेंगे? इस शेर को तो एक मुसव्विर पेंट भी नहीं कर सकता। और यही शायरी है।
इसी तरह पंडित दयाशंकर “नसीम” ने गुलज़ार-ए-नसीम लिखी थी, गुल-बकावली की इस कहानी को उन्होंने नज़्म (काव्य) में तब्दील किया, तो ऐसा करने से पहले उस नस्र (गद्य) की तारीफ़ करते हैं, वो नस्र जो हिंदुस्तानी तहज़ीब का अहम हिस्सा है, वो कहते हैं:
उस मय को दो आतिशा करूँ मैं
वो नस्र है, दाद-ए-नज़्म दूँ मैं
मय को दो आतिशा करना या’नी उसका नशा दुगुना करना, वो नस्र है दाद-ए-नज़्म दूँ मैं, अब यहाँ एक बहुत अहम बात ये है कि नस्र और नज़्म में हमेशा नज़्म का मर्तबा ऊपर रहा है, उसकी वज्ह भी ज़ाहिर है कि नज़्म में हर तरह का क्राफ़्ट इस्तेमाल होता है, जैसे महाकाव्य और उपन्यास के बीच का फ़र्क़।
अब ये मिसरा हम पर खुलता है कि ये नस्र इतनी ख़ूबसूरत है कि इसे मैं नज़्म के ज़रिए दाद दूँ, यानी कमतर मानी जाने वाली सिन्फ़ इतनी उम्दा है कि इससे बरतर मानी जाने वाली सिन्फ़ ही इसकी तारीफ़ का हक़ अदा कर सकती है।
जब तारीफ़ की ही बात आयी है तो इस दौर की बेहद मशहूर ग़ज़ल हम कैसे भूल सकते हैं, जिस शख़्स ने भी इसे पढ़ा है उसके तसव्वुर में कैसे कैसे रंग बिखरे होंगे इनका कोई अंदाज़ा भी नहीं लगा सकता सिवाय अहमद फ़राज़ के:
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
अब यहाँ ग़ौर कीजिए, शायर ने सुना है कि कोई शख़्स है जो बात करे तो बातों से फूल झड़ते हैं, कहावत है मुँह से फूल झड़ना यानी कोई इतना प्यारा और मधुर बोलता है कि उसके मुँह से जैसे फूल झड़ रहे हों, यहाँ लफ़्ज़ों को ही फूल कहा गया है, “लफ़्ज़ नहीं मानो फूल निकल रहे हों”, मगर फ़राज़ कहते हैं कि ”बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं”, इसका तसव्वुर कुछ ऐसा बैठता है जैसे बातें बेलें हों और उनसे फूल झड़ें, यहाँ तारीफ़ में एक और ख़ूबसूरती शामिल हो गयी है।
अब जैसे जौन एलिया कहते हैं:
तुम हो ख़ुश्बू के ख़्वाब की ख़ुश्बू
और उतनी ही बेमुरव्वत हो
हम एक ख़ुश्बू का ख़्वाब देखें और उस ख़्वाब में जो ख़ुश्बू महसूस करें, वो हो तुम! और ये हैं जौन एलिया! जौन एलिया के शे’र में एक ख़ुश्बू का ज़िक्र है और फिर उस ख़ुश्बू का उन्होंने ख़्वाब देखा है, फिर उस ख़्वाब की ख़ुश्बू आयी है, इत्मीनान से एक एक लफ़्ज़ के साथ अपने ख़याल की परतें जोड़िए।
ख़ुश्बू ख़ुद किसी की याद की बहुत नाज़ुक और जल्दी से खो जाने वाली शय होती है, जैसे कभी आपने अपने क्रश का परफ़्यूम सूँघा हो और वो ख़ुश्बू उसकी याद बन जाये, अब आप इसी ख़ुश्बू का ख़्वाब देखें या इस ख़ुश्बू को ख़्वाब में सूंघें और उस ख़्वाब की तासीर इस ख़ुश्बू के साथ मिल जाए, अब आपके पास सिर्फ़ याद नहीं है, ख़्वाब भी है और उस ख़्वाब की ख़ुशबू भी, थोड़ा सा ग़ौर करेंगे तो महसूस कर पाएंगे कि हर परत हक़ीक़त से एक दूरी पर खड़ी है, पहले ख़ुश्बू, फिर ख़ुश्बू का ख़्वाब फिर ख़्वाब की ख़ुश्बू, जैसे जैसे परतें बढ़ती गयीं, हक़ीक़त से दूरी बढ़ती गयी और इसी लिए ऐसा सनम बेमुरव्वत भी है जो इतना दूर है! और जो अस्थायी है, जो देर तक साथ नहीं रह सकता।
अब वापस अहमद फ़राज़ की ग़ज़ल पर आते हैं:
सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं
सुना है उसके बदन की तराश ऐसी है
कि फूल अपनी क़बाएँ कतर के देखते हैं
यहाँ पूरा कमाल तसव्वुर का है, शायर ख़ुद नहीं जानता कि ये शख़्स वाक़ई ऐसा है या नहीं, शायर ने उसके बारे में सुना है और उसकी हर ख़ूबी को शायर अपने अंदाज़ में देखता है, मुमकिन है कि उसने अब तक उस शख़्स की झलक भी न देखी हो, लेकिन शायर के तसव्वुरात के सहारे ही हम ख़ुद भी उसी मंज़र में पहुँच जाते हैं जो उसने रचा है, ये पूरी ग़ज़ल ही अपने आप में तारीफ़, तसव्वुर, ज़बान और तशबीहात का ख़ूबसूरत नमूना है जो हर पढ़ने वाले को एक जादू नगरी में ले जाती है।
ज़रूरी नहीं है कि बहुत नाज़ुक, मद्धम और फूलों सी ज़बान ही इस्तेमाल की जाए हालाँकि इस मौज़ू की शायरी ऐसी ज़बान में बेइंतिहा खिलती है लेकिन कुछ आसान और रोज़मर्रा की ज़बान में भी तारीफ़ मुमकिन है,
कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे
जाने कैसे लोग वो होंगे जो उसको भाते होंगे
यहाँ जौन एलिया का मलाल, रश्क, महबूब की तमाम ख़ूबियों का तसव्वुर उन लोगों से जोड़ कर करना जो उसे पसंद हों, ये एक तरह से ये कहना है कि उन लोगों को तो मुँह मांगी मुराद मिल जाती होगी जो उसको पसंद आते होंगे।
यारो कुछ तो ज़िक्र करो तुम उसकी क़यामत बाँहों का
वो जो सिमटते होंगे उनमें वो तो मर जाते होंगे
और फिर ये शे’र, फ़राज़ अगर महबूब का ज़िक्र सुन कर उससे मिलने का तसव्वुर कर रहे हैं तो जौन यहाँ अलग ही दुनिया में हैं, जैसे हम कहें कि यार जिन लोगों के पास गाड़ी बंगला होता होगा वो कितने मज़े से रहते होंगे ना? और फिर हमीं पूछें कि वो गाड़ी बंगला कैसा है? या जिन्हें मोहब्बत मिली होगी वो लोग कितने ख़ुश होंगे? यहाँ हमारी जलन भी है, और दिलचस्पी भी है, हम जानना भी चाहते हैं और हम अपने ज़ेहन में एक तस्वीर भी बना के भी बैठे हैं कि वो बाहें तो क़यामत ही हैं, ”यारो उनका ज़िक्र करो”, लेकिन क्योंकि हम तसव्वुर में यारों से आगे जा चुके हैं, हम ख़ुद ही कहते हैं, जो उन बाहों में सिमटते होंगे, वो तो मर ही जाते होंगे ना?
अब ग़ालिब का शे’र देखिए:
ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयाँ अपना
बन गया रक़ीब आख़िर, था जो राज़दाँ अपना
यानी एक तो बात उस परी (महबूबा) की चली, फिर मेरे जैसा शायर उसे बयान करे, अब इस हुस्न की दो-धारी तलवार से कौन बच सकता है, तो जो मेरा राज़दाँ था जिसे मैं सब बताता था, वो मेरा रक़ीब हो चुका है।
कहने को कहा जा सकता है कि शायर झूठ बोल रहा है, झूठी तारीफ़ कर रहा है मगर मुमकिन है शायर का सच यही हो।
मोहब्बत से बड़ा सच है भी क्या? इश्क़ से बड़ा ईमान क्या हो सकता है? मोहब्बत में आशिक़ चाँद तारे तोड़ने की बात करता है और अक्सर दिल भी तुड़वा बैठता है, मगर हमें सिर्फ़ टूटे दिल की बात पर यक़ीन आता है, चाँद तारे तोड़ने वाली बात पर नहीं, जहाँ हक़ीक़त ये है कि दिल सलामत है फिर भी टूटा हुआ है, इसी तरह चाँद तारे भी तोड़े जाते हैं। बस आप मोहब्बत कीजिए, हर सच में हज़ार सच और हर रंग में हज़ार रंग दिखेंगे।
मोहब्बत की नज़र मिल जाये तो दृष्टि और दर्शन, साइट और इनसाइट, बसारत और बसीरत का फ़र्क़ ज़ाहिर होता है, जभी तो इक़बाल कह गए हैं:
जब इश्क़ सिखाता है अदाब-ए-ख़ुद-आगही
खुलते हैं ग़ुलामों पर असरार-ए-शहंशाही
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