बात से बात चले: तसनीफ़ हैदर के साथ एक अदबी गुफ़्तगू!
स्वप्निल तिवारी : सबसे पहले तो एक क्लीशे, लेकिन ज़रूरी सवाल कि लिखने की तरफ़ झुकाव कैसे हुआ? शुरुआत किस सिन्फ़ से हुई? और शेर कहने के पीछे तहरीक क्या थी। पहली ग़ज़ल या नज़्म के टुकड़े भी पढ़ने को मिल जाएँ तो क्या कहने।
तसनीफ़ : लिखने की तरफ़ झुकाव बहुत छोटी उम्र से हुआ था। अब ठीक से तो याद नहीं मगर ये शायद 1995 के आस पास की बात है, जब मेरी उम्र नौ बरस थी। दिल्ली के एक उर्दू रिसाले ‘बच्चों की निराली दुनिया’ में मेरी एक नज़्म ‘मेरा ख़ानदान’ छपी थी। शेर वेर मैं बहुत पहले कहने लगा था। क्लासिकल उस्तादों के रंग की ग़ज़लें पहले पहल लिखीं (जिनको बाद में पढ़ कर हंसी आती थी), मगर मैं और तालीफ़ (छोटा भाई), हम दोनों का एक तरीक़ा था, हम पुराने शायरों की तसवीरें किताबों से ढूंढ कर काट पीट कर अपनी एक डायरी में चिपकाते थे, उनके पसंदीदा शेर भी साथ लिखते थे, उनके हालात भी। उन में बहुत से मशहूर और ग़ैर मशहूर सभी तरह के पुराने शायर हुआ करते थे। मतलब जिन शायरों के बारे में हमें पता चलता जाता था। हम उनके नाम, शेर और हालात ए ज़िन्दगी लिख लेते थे। तो इस चक्कर में बहुत छोटी सी उम्र में अब्बा की किताबों का तो हमने बहुत हाल ख़राब किया। मगर काफ़ी कुछ पता भी चला और आगे जानने का शौक़ भी पैदा हुआ। तो इन्हीं हालात में शेर ओ शायरी शुरू हो गयी थी। पहली ग़ज़ल या नज़्म के टुकड़े तो बहुत से हैं, मगर अब उन्हें यहाँ क्या लिखा जाए। वो सब बाक़ायदा मश्क़ के ज़माने से भी पहले की बात है, जिनमें से कुछ चीज़ें अम्मी ने अभी भी संभाल कर रखी हैं।
स्वप्निल तिवारी : पहले आप सय्यद तसनीफ़ हैदर थे। फिर आप तसनीफ़ हैदर हुए। और इन दिनों सिर्फ़ तसनीफ़ के नाम से जाने जाते हैं। क्या वजूहात हैं इन तब्दीलियों के पीछे। क्या कोई शुऊरी कोशिश है।
तसनीफ़ : सय्यद का तो मसला ये है कि जब मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि इंसान की जो नस्ली पहचान है, वो बहुत से झगड़ों की जड़ है, तो मैंने उसे हटाना मुनासिब समझा। अब अदीब और शायर कोई सियासी लीडर तो होता नहीं है, वो समाज में कोई बड़ी तब्दीली भी नहीं ला सकता तो यूँही ख़ुद के साथ तजरबा करता रहता है। तो मुझे भी लगा कि मैं जिस मज़हब को नहीं मानता उसकी दी हुई नस्ली पहचान का ये नक़ली ताज सर पर लेकर क्यों घूमना। यही हाल ‘हैदर’ के साथ भी हुआ। हालांकि उर्दू में अभी भी मैं ‘तसनीफ़ हैदर’ के नाम से ही लिखता हूँ। मगर इसे हटाने से मेरी मुराद ये थी कि मैं एक ख़ास मज़हबी और नस्ली पहचान से पीछा छुड़ाना चाहता था। मगर इधर ग़ौर करता हूँ तो महसूस होता है कि ये सब इतना ज़रूरी भी नहीं है। बहुत से ऐसे लोग हैं जिन में कोई नस्ली ग़ुरूर नहीं है, वो मज़हबी भी नहीं हैं। मगर उन्होंने अपने नाम से एक ‘अक्षर’ भी कम नहीं किया है। ग़ौर करने पर मुझे भी ये बात समझ में आई है कि इस तरह की पहचान किसी एक आदमी के मिटाने से न मिट सकती है, न बनाने से बन सकती है, इसके लिए पूरे समाज को स्ट्रगल करना पड़ेगा, इस तरह के पछड़ों से निकलने के लिए। अब हम दोनों ही ग़ैर-मज़हबी लोग हैं, यानी आप भी और मैं भी। मगर हालात ऐसे हैं कि एक ख़ास क़िस्म के सियासी मंज़रनामे या मज़हबी समाज में आपको हिन्दू और मुझे मसलमान बना दिया जाएगा और हम मुंह देखते रह जाएंगे। मज़ीद ज़ुल्म ये है कि कभी कभी इसी पहचान पर आपको और मुझे जज किया जाएगा और हम दोनों इन पहचानों को शायद ऐसे हालात में डिफ़ेंड करते भी नज़र आएं। तो बस तसनीफ़, तसनीफ़ हैदर या सय्यद तसनीफ़ हैदर की इस हेर फेर को आप समाज की थोपी हुई शनाख्त से बाहर निकलने की छटपटाहट का नाम दे सकते हैं।
स्वप्निल तिवारी : पहला मजमूआ ‘नए तमाशों का शहर’ आए अच्छा ख़ासा वक़्त हो चुका है। किसी शायर की ज़िन्दगी में पहले मजमूए का शाया होना बड़ा वाक़ेआ तो होता ही है। और बड़े वाक़ेआत लोगों को बदलते भी हैं। आप पहले मजमूए के बाद तर्ज़ ए इज़हार की, शेरी फ़िक्र की सतह पर क्या फ़र्क़ महसूस करते हैं ?
तसनीफ़ : मैंने अपने पहले मजमूए में तजरबों की कोशिश की थी। उसे आए छह बरस हो चुके हैं और इन बरसों में शायरी और ख़ुसूसन ग़ज़ल से फ़िक्री सतह पर मेरी दूरी बढ़ती ही गई है। मगर मैंने महसूस किया कि हमारे यहाँ एक क़िस्म की मुनाफ़िक़ात भी है। यानी मैंने ज़बान ओ बयान के जो तजरबे किये, उनको ज़फर इक़बाल ने पसंद नहीं किया। हालांकि उन्होंने मेरे शेरी मजमूए पर एक पूरा मज़मून लिखा था। उनका कहना था कि बाज़ जगहों पर शेरी ज़बान दुरुस्त नहीं। अब शायरी को भी अगर आप ज़बान का पाबन्द बनाएंगे तो फिर ज़फर इक़बाल की किताब ‘गुल आफ़ताब’ या उनके बाद के वो मजमूए जिनमें उन्होंने ज़बान की जमी हुई शक्लों को तोड़ा है, उन्हें सबसे पहले रद्द कर दिया जाना चाहिए था। मगर होता है ये कि हमारे यहाँ एक बड़ा शायर जिन बुनियादों पर ख़ुद को ‘बड़ा’ कहलवाना चाहता है, उन्हीं बुनियादों पर वो दूसरे को रद्द करता है। तो यही काम ज़फ़र साहब ने किया। मगर दूसरे कई लोगों ने उसे क़ुबूल भी किया। मसलन गुलज़ार साहब ने एक दिन फ़ोन करके मुझे इस तरह के तजरबों पर मुबारकबाद दी। हालांकि तारीफ़ वाऱीफ से ऐसा कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता और पड़ना भी नहीं चाहिए, मगर जब आप इस क़िस्म के अदबी घोटालों पर नज़र डालते हैं तो जी उचाट भी होता है। मगर फिर मैं समझ गया कि ये सभी के साथ होता है, मैं यहाँ कोई अकेला और अनोखा शख़्स नहीं हूँ। रही तर्ज़ ए इज़हार की बात तो ग़ज़ल के उस मजमूए और उसके बाद होने वाले तजरबों से ही मैं समझ गया कि ग़ज़ल में इस क़दर ही गुंजाइश है, इतना ही आप कर सकते हैं। मतलब किसी लफ़्ज़ का वज़न बदल दिया, किसी लफ़्ज़ को उसकी असल सूरत के बजाये उसकी प्रचलित शक्ल में इस्तेमाल कर लिया, किसी ख़याल को थोड़ा बहुत उलट पलट दिया, जिन्सी हवाले से (चूंकि हमारे समाज में ये एक बड़ा टैबू है) तो थोड़ा बहुत इसे तोड़ लिया। बाक़ी ज़्यादा कुछ करने को नहीं है तो फ़िक्री सतह पर तो यही तब्दीली हुई कि मैंने ग़ज़ल की इन मजबूरियों को तस्लीम कर लिया। यहाँ तक कि मुझे अब यही लगता है कि ग़ज़ल के शेर और चुटकुले में ज़्यादा फ़र्क़ नहीं होता। ग़ज़ल की इतनी ज़्यादा अदबी हैसियत होनी नहीं चाहिए जितनी हमारे यहाँ है, और शायद ग़ज़ल का यही शोर हमारे लोगों यानी उर्दू के लिखने वालों के निकम्मेपन को और मज़बूत करता है।
स्वप्निल तिवारी : ‘नए तमाशों का शहर’ के दीबाचे में आपने लिखा है कि आप अपने आपको बुनियादी तौर पर शायर मानते हैं, लेकिन अब आप ग़ज़ल भी कहते हैं, नज़्में भी, अफ़साने भी लिखते हैं और नॉवल्स पर भी काम चल ही रहा है। क्या कुछ ऐसा महसूस हुआ कि इज़हार के लिए शायरी पूरी नहीं पड़ रही? या कुछ और इरादा है? एक से दूसरी सिन्फ़ की तरफ़ जाते हुए क्या कुछ मुश्किलें पेश आती हैं?
तसनीफ़ : नए तमाशों के शहर के दीबाचे को आप इतनी अहमियत मत दीजिये। वो पहले शेरी मजमूए का एक एक्साइटमेंट जो होता है, उसी ने इस तरह की चीज़ें मुझसे लिखवाई थीं। अब तो मैं अपना उस ज़माने का लिखा देख भी लेता हूँ तो एक तरह के खोखले ग़ुरूर का अहसास होता है। 2014 में जब वो मजमूआ आया तो मैं जिस तरह की नस्र लिखता या पसंद करता था उसमें ambiguity बहुत थी, यानी बहुत शायराना पन था। साफ़ बात करना नहीं आती थी। अच्छा आती भी तो कैसे, तरबियत ही नहीं हुई थी। जिस तरह का अदब हमने पढ़ा था, वो सब बिला वजह के गर्वभाव से भरा पड़ा था। फिर उस में झूठ भी बहुत था, इसलिए सच को समझने और जानने में बड़ी मेहनत करनी पड़ी और अभी भी करनी पड़ रही है। ये बुनियादी तौर पर शायर होने वाली बात भी ऐसी ही है। इसमें मेरा कोई कमाल नहीं कि मैं छोटी उम्र से शायरी करने लगा। मेरे अब्बा शायर थे, एक ज़माने में उन्होंने ख़ुद बहुत अच्छी शायरी की थी। हमारे घर में तीन हज़ार से ज़्यादा उर्दू, फ़ारसी की किताबें थीं, बहुत से ऐसे रिसाले थे। घर पर सख़्ती थी, अब्बा तो बिल्डिंग के प्लेग्राउंड में भी खेलने के ख़िलाफ़ थे। इस सख़्ती के कुछ बुरे नतीजे हुए तो कुछ अच्छे भी हुए, उसी का एक नतीजा था कि मैं पढ़ने पढ़ाने लगा। मुझे ख़ुद ही नहीं पता चला कि बहर में शेर कहना मुझे कब आ गया। ये इसी तरह है, जैसे किसी ख़ास माहौल में कोई बच्चा तैरना या साइकल चलाना सीख ले। इसमें कोई कमाल की बात नहीं है। तो जब मुझे इन सब बातों का ठीक ठीक अंदाज़ा हुआ, यानी जब मैंने इन बातों पर ग़ौर किया तो ज़ाहिर है कि मैंने नज़्म भी लिखी, अफ़साने भी, तनक़ीद भी लिखी और अब नॉविल के मैदान में भी कोशिश कर रहा हूँ। मगर मैं बस अदबी सतह पर ख़ुद को अभी इतना ही तैयार कर पाया हूँ कि जो कुछ मैं लिखता हूँ, उसमें क्या ठीक ठाक है और क्या दरिया में फ़ेंक देने लायक़ है, इसका मुझे अंदाज़ा है। मैं ख़राब तख़लीक़ को अपनी नालायक़ औलाद समझ कर उसे गले नहीं लगा सकता। मैं उसे फाड़ कर फ़ेंक देने के हक़ में हूँ।
स्वप्निल तिवारी : ठीक ठाक लिखने वाले लोगों को आम तौर पर मैं थोड़ा बहुत बाग़ी मानता ही हूँ। फिर भी हम सब अदीब किसी न किसी तरह अपने अपने कम्फर्ट ज़ोन का शिकार हैं। आपके तेवर न सिर्फ़ शायरी में बल्कि ज़िन्दगी में भी बाग़ी हैं। हालांकि बाग़ियों को इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता फिर भी कुछ फ़ायदा नुक़सान तो होगा ही इस बग़ावत का। इस बग़ावत से कहाँ ज़िन्दगी आसान होती है कहाँ मुश्किल होती महसूस होती है?
तसनीफ़ : अच्छा आपको ऐसा लगता है स्वप्निल भाई! ये बड़ी बात है। मुझे नहीं लगता कि मैं बाग़ी हूँ। बग़ावत बहुत बड़ी चीज़ है। मैंने बहुत छोटी उम्र में घर संभाल लिया। ख़ास तौर दिल्ली आने के बाद। और जब कोई पूरा घर आप के ज़रिये चल रहा हो तो बाज़ दफ़ा वो फ़ैसले लेना या उनका इज़हार करना बहुत आसान हो जाता है। जो मैंने लिए। ऐसा नहीं है कि मेरे घर पर मेरे मज़हब को छोड़ देने या शादी न करने या समाज के उसूलों के हिसाब से न चलने पर कोई शोर नहीं मचा। मगर मैं अपनी बात उन लोगों की ब-निस्बत ज़्यादा आसानी से मनवा सका हूँ, जो अपने माँ बाप पर डिपेंड हैं। मुझे कोई कंट्रोल नहीं कर सकता था, इसलिए ये सब मेरे लिए आसान था। नौकरी मैंने अगर बाक़ायदा तौर पर नहीं की तो उसमें किसी का क़ुसूर नहीं, वहां मेरी अपनी ग़लती या मिज़ाज का काहिली का दख़ल ज़्यादा है। मैं लिख पढ़ सकता हूँ, मगर बाक़ायदा किसी जगह जाना, वक़्त पर पहुंचना, डेडलाइन को नज़र में रख कर किसी ख़ास प्रोजेक्ट पर काम करना। ये सब मुझसे नहीं हो सकता है, आप मुझे इसमें धकेलेंगे तो मैं निकल भागने की कोशिश करूँगा और उसमें बुरी बुरी ग़लतियाँ भी होंगी मुझसे। तो ये ऐसी कोई बड़ी बग़ावत नहीं है। ये बस उसी ‘कम्फर्ट ज़ोन’ में रहने वाली बात है। हाँ अदब में अगर आप कहें तो मैं मान सकता हूँ कि थोड़ी बहुत इंकार की हिम्मत मैं करता हूँ। मुझे कोई चीज़ जल्दी संतुष्ट नहीं करती, आज करती है तो कल अपने ही हक़ में कोई नया सवाल पैदा कर लेती है। दुनियावी तौर पर देखिये तो नुक़सान ये है कि मैं ‘मुशायरा’ नहीं पढ़ सकता, अभी तक मेरी पी एच डी मुकम्मल नहीं हो सकी, मैं कोई मुस्तक़िल नौकरी नहीं कर पाया, अपने आप जो कुछ करने चला उसमें तजरबा न होने की वजह से कई बार मुंह की भी खाई, बदनाम भी हुआ। मगर फ़ायदा सिर्फ़ एक है और वो ये कि मेरे पास ज़िन्दगी का तजरबा है, मैं जिन रास्तों से गुज़रा हूँ। वो इतने मुख़्तलिफ़ और बाज़ दफ़ा इतने मुश्किल रहे हैं कि उन्होंने मेरे लिखने के तौर तरीक़े को बहुत कुछ बदल दिया है और यही मेरा मेयार ए अदब भी बनाते बिगाड़ते रहे हैं। मुझे सवालों पर उकसाते रहे हैं और इंसानी ज़िन्दगी, उसके मक़सद के अलावा यही बातें अदब के हवाले से भी मेरे ज़हन में अगर पैदा हुईं तो वो इन्ही तजरबों की वजह से।
स्वप्निल तिवारी : अदबी दुनिया के ज़रिये आपने हिंदी उर्दू के साथ साथ दुनिया भर की दूसरी ज़बानों का अदब भी पेश किया है। इस सिलसिले में आपकी नज़र दुनिया भर के अदब के एक बड़े हिस्से से गुज़री होगी। उर्दू अदब और दूसरी ज़बानों के अदब में क्या कोई फ़र्क़ महसूस हुआ? मुआसिर उर्दू अदब को कंटेम्पररी आलमी अदब के सामने कहाँ पाते हैं?
तसनीफ़ : हर अदब का एक ख़ास बैकग्राउंड होता है। उसी की बुनियाद पर उसे जांचा परखा जाना चाहिए। फिर आज तो इंटरनेट का ज़माना है। उर्दू वाले भी उसी तरह दुनिया के बाक़ी अदब से जुड़ रहे हैं, जिस तरह दूसरी ज़बानों के लोग। मगर हमारे यहाँ परेशानी ये है कि हम ‘पढ़ने’ के अमल से दूर होते जा रहे हैं। मैं ख़ुद बहुत ज़्यादा नहीं पढ़ सका हूँ, मगर मुझे लगता है कि लिखने वालों को पढ़ने के अमल से जुड़े रहना चाहिए। हमारे यहाँ अदीब बनने का मतलब है कि आसान से दो मिसरे बहर में लिख कर आप शायर हो गए, अदीब हो गये। दूसरी ज़बानों में ऐसा नहीं है। वहां आपको ख़ुदको साबित करना होता है। आपको कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। अब कोई पूछेगा कि क्या ग़ज़ल लिखने में मेहनत नहीं लगती। तो मेरा तो यही जवाब है कि ग़ज़ल वज़ल में बिलकुल मेहनत नहीं लगती। ये बहुत आसान से काम हैं। आप दस पंद्रह दिन मेहनत करके बहर वहर का खेल समझ सकते हैं। हर नस्ल में जो ‘अदब’ लिखा जाता है, उसमें जवानों की तादाद ज़्यादा होती है। आप दूसरी ज़बानों को देखिये, हिन्दुस्तान में ही देख लीजिये आप को जवान लोग अच्छा फ़िक्शन लिखते या नज़्में कहते मिल जाएंगे। मगर हमारे यहाँ हर दूसरा नौ-जवान ग़ज़ल कहना और शायर कहलवाना चाहता है। उसकी ख़्वाबों की मंज़िल मुशायरा है। उसे इस बात से कोई लेना देना ही नहीं कि फ़िक्री सतह पर वो कितना कंगाल है। अदबी लिहाज़ से उसने अभी पहले पायदान पर भी क़दम नहीं रक्खा मगर लोगों की वाह वाह का शोर उसे बर्बाद कर देता है। मैं इसे किसी अफ़ीम के नशे में डूब कर सड़क किनारे लेटे हुए नशेड़ी के आसमान में उड़ने वाले ख़्वाब से ज़्यादा नहीं समझता। हमारे यहाँ जो बूढ़े या अदेढ़ उम्र के लोग अदब लिख रहे हैं, बस उन्हीं से थोड़ा बहुत काम चल रहा है। इसलिए आलमी अदब से कोई मुक़ाबला तो नहीं हो सकता। अलबत्ता जितना फ़ायदा हम उससे उठा सकते हैं, नहीं उठा पा रहे हैं।
स्वप्निल तिवारी : आप अक्सर कहते हैं कि ग़ज़ल में कुछ कहने को बचा नहीं। लेकिन वहीँ आप ख़ुद भी ग़ज़लें कहते नज़र आते हैं। क्या ये खुला तज़ाद नहीं?
तसनीफ़ : मैं हालांकि अब ग़ज़ल कम लिखता हूँ, मगर इससे इंकार नहीं है कि लिखता हूँ। मगर मेरे ग़ज़ल लिखने से ग़ज़ल के मुआमले में मेरी कही हुई बात पर कहाँ से फ़र्क़ पड़ता है। मैं ये मानता हूँ कि ग़ज़ल लिखिए, अच्छी चीज़ है। मगर वो शायरी की कोई बड़ी या एक्स्ट्रा आर्डिनरी फ़ॉर्म नहीं है। मेरी ग़ज़लें भी इससे बाहर नहीं हैं, तो तज़ाद का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। अब तो मैं शायरी के बारे में भी काफ़ी मोहतात हो गया हूँ। फ़िलहाल तो मेरा यही ख़याल है कि जिस अदब में अफ़साना या नॉविल नहीं लिखा जा रहा, वहां शायरी अगर होगी भी तो ज़्यादा तर कूड़ा करकट ही होगी।
स्वप्निल तिवारी : हिन्दुस्तान और पकिस्तान की मौजूदा शेरी फ़िज़ा के बारे में आपका क्या ख़याल है। पता नहीं मेरा ये पूछना कैसा है, मगर एक सवाल अक्सर हमारे ज़हन में आता है कि तीस चालीस बरस बाद हमारे समाज में शेर ओ अदब की कितनी अहमियत बाक़ी रहेगी?
तसनीफ़ : हिन्दुस्तान और पकिस्तान की शेरी फ़िज़ा में शोर ज़्यादा है और जेनुइन लिखने वाले ‘शायर’ भी बहुत कम हैं। ज़्यादा तर लोगों को या तो ऊल जलूल, मुबहम नस्री नज़्म लिखने के साथ मशहूर अदबी रिसालों में एक क़िस्म की छपास का हौका है या तो मुशायरों में ग़ज़लें सुना कर महफ़िल लूटने का। पकिस्तान में ज़ाहिद इमरोज़, मुस्तफ़ा अरबाब, तनवीर अंजुम, ज़ुल्फ़िक़ार आदिल और इदरीस बाबर मुझे बहुत पसंद आते हैं। हिन्दुस्तानियों में से मैं किसी का नाम इसलिए नहीं लेना चाहता कि हमारे यहाँ लोगों के पेट वैसे ही तारीफ़ से बहुत फूले हुए हैं। उन्हें अभी तारीफ़ की नहीं, अपने आप को इल्मी और तख़्लीक़ी मैदानों में जांचने परखने की ज़रुरत ज़्यादा है।
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