ग़ज़ल में मिसरे का टकरा जाना
आपने सबने ये जुमला ख़ूब सुना होगा कि फ़लाँ ग़ज़ल फ़लाँ ग़ज़ल की ज़मीन पर है। ग़ज़ल की ज़मीन से मुराद ग़ज़ल का ढाँचा है या’नी ग़ज़ल की बह’र, क़ाफ़िया और रदीफ़। मतलब ग़ज़ल की ज़मीन क्या है, ये उसके मतले से तय हो जाता है। मिसाल के तौर पर मोमिन की एक मशहूर ग़ज़ल का मतला’ देखते हैं।
असर उस को ज़रा नहीं होता
रंज राहत- फ़ज़ा नहीं होता
इस मतले की बह’र है ‘बह’र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस सालिम’ या’नी फ़ाइलातुन (2122)- मुफ़ाइलुन (1212)- फ़ेलुन (22)
इस बह’र की ख़ास बात ये है कि इसके पहले रुक्न फ़ाइलातुन (2122) को फ़इलातुन (1122) से बदला जा सकता है और आख़िरी रुक्न फ़ेलुन (22) को फ़इलुन (112), फ़ालान (221) या फ़इलान (1121) से बदला जा सकता है।
आइए इस मतले की तक़्तीअ करते हैं;
असर उस को ज़रा नहीं होता
रंज राहत- फ़ज़ा नहीं होता
(अस र + उ स) को ज़रा नहीं होता
यहाँ असर और उसको में ‘र और उ’ के दरमियान वस्ल हुआ है जिसे अलिफ़-ए-वस्ल कहा जाता है। अलिफ़ या’नी ‘अ’। तब एक सवाल पैदा होता है कि ये ‘अ’ नहीं ‘उ’ है फिर अलिफ़-ए-वस्ल कैसे? दरअस्ल बात ये है कि उर्दू में अलिफ़ जब ज़बर की अलामत के साथ लिखा जाता है तब उसे ‘अ’, ज़ेर की अलामत के साथ लिखा जाता है तब उसे ‘इ’ और जब पेश की अलामत के साथ लिखा जाता है तब उसे ‘उ’ कहते हैं। या’नी अ, इ, उ तीनों अलिफ़ के ज़रीए लिखे जाते हैं इसी लिए इसे अलिफ़ वस्ल कहा जाता है।
आइए समझते हैं;
अस रुस को ज़रा नहीं होता
अब देखा जाए तो ‘अस’ का वज़्न 2 और ‘रुस’ का वज़्न भी 2 दिखाई पड़ रहा है लेकिन इस बह’र का पहला रुक्न 22 के वज़्न से शुरू’ नहीं होता है। वो या तो 2122 हो सकता है या 1122।
या’नी यहाँ अलिफ़ वस्ल के बा’द अस का अ और स दोनों मुतहर्रिक हो गए या’नी दोनों पर ज़बर की अलामत आ गई लिहाज़ा इसे 1/1 के वज़्न पर गिना जाएगा।
असरुस= अस (11) रुस (2) को (2) ज़रा (12) नहीं (12) होता (22)
रंज (21) राहत (22)- फ़ज़ा (12) नहीं (12) होता (22)
जैसा कि हमने पहले समझा कि इस बह’र का पहला रुक्न 2122 के इलावा 1122 भी हो सकता है। हम देख सकते हैं कि इस मतले में ऐसा ही हुआ है।
पहले मिसरे में;
1122, 1212, 22
दूसरे मिसरे में;
2122, 1212, 22
इस ग़ज़ल का क़ाफ़िया अलिफ़ आज़ाद का क़ाफ़िया है। ‘ज़रा’ और ‘फ़ज़ा’ और रदीफ़ ‘नहीं होता’ है। आइए हम इसी ज़मीन पर कही गई कुछ ग़ज़लों के मतले देखते हैं;
कोई काँटा चुभा नहीं होता
दिल अगर फूल- सा नहीं होता
बशीर बद्र
दर- ए- उम्मीद वा नहीं होता
अब वो जल्वा- नुमा नहीं होता
हैरत फ़र्रुख़ाबादी
जब कोई रास्ता नहीं होता
कौन मह’व- ए- दुआ नहीं होता
अमर सिंह फ़िगार
ज़ख़्म दिल पर लगा नहीं होता
हाल ऐसा हुआ नहीं होता
कौकब ज़की
हक़ किसी का अदा नहीं होता
वर्ना इंसाँ से क्या नहीं होता
सय्यद हामिद
हक़्क़- ए- ने’मत अदा नहीं होता
हम से शुक्र- ए- ख़ुदा नहीं होता
मुर्ली धर शाद
दूसरी मिसाल;
चराग़- ए- तूर जलाओ बड़ा अँधेरा है
ज़रा नक़ाब उठाओ बड़ा अँधेरा है
साग़र सिद्दीक़ी
हमारे पास तो आओ बड़ा अँधेरा है
कहीं न छोड़ के जाओ बड़ा अँधेरा है
बशीर बद्र
तीसरी मिसाल;
दिल- ए- नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
ग़ालिब
किस को देखा है ये हुआ क्या है
दिल धड़कता है माजरा क्या है
अख़्तर शीरानी
कुछ तो बोलो मियाँ हुआ क्या है
इस क़दर ख़ामुशी वज्ह क्या है
ख़ालिद अबरार
चौथी मिसाल;
क्यूँ न हम अहद-ए-रिफ़ाक़त को भुलाने लग जाएँ
शायद इस ज़ख़्म को भरने में ज़माने लग जाएँ
एहमद फ़राज़
पैकर- ए- अक़्ल तिरे होश ठिकाने लग जाएँ
तेरे पीछे भी जो हम जैसे दिवाने लग जाएँ
फ़रहत एहसास
कोई सुनता ही नहीं किस को सुनाने लग जाएँ
दर्द अगर उठ्ठे तो क्या शोर मचाने लग जाएँ
अकरम नक़्क़ाश
दिल को रह रह के ये अन्देशे डराने लग जाएँ
वापसी में उसे मुमकिन है ज़माने लग जाएँ
रेहाना रूही
हम तिरे इश्क़ में कुछ ऐसे ठिकाने लग जाएँ
रेग- ज़ारों में फिरें ख़ाक उड़ाने लग जाएँ
एहमद अशफ़ाक़
हम अगर रद्द- ए- अमल अपना दिखाने लग जाएँ
हर घमंडी के यहाँ होश ठिकाने लग जाएँ
रऊफ़ ख़ैर
सोग हम अपनी तबाही का मनाने लग जाएँ
इतने टूटे भी नहीं हैं कि ठिकाने लग जाएँ
इर्शाद अंजुम
सफ़- ए- मातम पे जो हम नाचने गाने लग जाएँ
गर्दिश-ए-वक़्त तिरे होश ठिकाने लग जाएँ
फ़रताश सय्यद
अब एक सवाल ये पैदा होता है कि क्या किसी शाइर की ग़ज़ल की ज़मीन पर ग़ज़ल कहना किसी तरह की चोरी है?
नहीं, हरगिज़ नहीं।
क्या वज्ह है कि कोई शाइर किसी दूसरे शाइर की ग़ज़ल की ज़मीन पर अपनी ग़ज़ल कहता है?
पहली वज्ह- बहुत बार इत्तेफ़ाक़न ऐसा हो जाता है।
दूसरी वज्ह- एक शाइर दूसरे शाइर की ग़ज़ल की ज़मीन पर ग़ज़ल कहकर उसे उसकी नज़्र करना चाहता है।
तीसरी वज्ह- ग़ज़ल की किसी पुरानी ज़मीन पर इस कोशिश के तौर पर नई ग़ज़ल कहने की रिवायत उर्दू अदब में आम है कि कही जा चुकी ग़ज़लों ने उस ज़मीन का हक़ अदा नहीं किया। लिहाज़ा नई ग़ज़ल को पहले की ग़ज़लों से बेहतर ग़ज़ल के तौर पर अंजाम देने की कोशिश की जाती है।
पाँचवीं मिसाल;
कहीं वो चेहरा- ए- ज़ेबा नज़र नहीं आया
गया वो शख़्स तो फिर लौट कर नहीं आया
कहूँ तो किस से कहूँ आ के अब सर- ए- मंज़िल
सफ़र तमाम हुआ हम- सफ़र नहीं आया
सहर अंसारी
हुसूल- ए- मंज़िल- ए- जाँ का हुनर नहीं आया
वो रौशनी थी कि कुछ भी नज़र नहीं आया
हर एक मोड़ पे हम ने बहुत सदाएँ दीं
सफ़र तमाम हुआ हम- सफ़र नहीं आया
बख़्श लाइलपूरी
अज़ाब ये भी किसी और पर नहीं आया
कि एक उम्र चले और घर नहीं आया
करें तो किस से करें ना-रसाइयों का गिला
सफ़र तमाम हुआ हम- सफ़र नहीं आया
इफ़्तिख़ार आरिफ़
छटवीं मिसाल;
उज़्र उन की ज़बान से निकला
तीर गोया कमान से निकला
फ़ित्ना- गर क्या मकान से निकला
आसमाँ आसमान से निकला
दाग़ देहलवी
हौसला इम्तिहान से निकला
जान का काम जान से निकला
इक सितम मिट गया तो और हुआ
आसमाँ आसमान से निकला
मुज़्तर ख़ैराबादी
आख़िरी मिसाल;
क़फ़न दाबे बग़ल में घर से मैं निकला तो हूँ अर्सी
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए
अर्सी लखनवी
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए
बशीर बद्र
पेश की गई पाँचवीं, छठवीं और सातवीं या’नी आख़िरी मिसाल में हमने देखा कि ज़मीन एक होने के साथ- साथ पूरा का पूरा एक मिसरा हर मिसाल में कॉमन है।
क्या इसे चोरी कहा जाएगा?
नहीं। ये एक पुरानी रिवायत है जिसे हम तज़्मीन या’नी गिरह लगाना कहते हैं। दिए गए मिसरे पर मिसरा लगा कर नए ज़ाविए से नया शे’र कहना।
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