मीर तक़ी मीर: चलो टुक मीर को सुनने कि मोती से पिरोता है
न रक्खो कान नज़्मे शाइरान-ए-हाल पर इतने
चलो टुक मीर को सुनने कि मोती से पिरोता है
(दूसरे शाइरों की शाइरी पर इतने कान मत धरो। माने उन्हें इतनी तवज्जोह मत दो… सुनना है तो मीर की शाइरी सुनो वो अपने शे’र में अल्फ़ाज़ ऐसे पिरोता है गोया किसी धागे में कोई मोती पिरोता हो!)
मीर के बारे में अक्सर ये कहा जाता है कि उन्होंने सह्ल ज़बान या सरल भाषा में शाइरी की है। ऐसी ज़बान जिसे समझने में किसी को कोई परेशानी न हो और ये बात अक्सर ग़ालिब से उनका मवाज़ना/तुलना करते हुए कही जाती है। लेकिन क्या वाक़ई मीर की शाइरी आसान/आसानी से समझ में आ जाने वाली शाइरी है?
एक शे’र देखिये,
दैर को छोड़ काबे आया मीर
जिसको चाहे ख़ुदा ख़राब करे
इस बज़ाहिर सीधे सादे से दिखाई देने वाले शे’र में एक लफ़्ज़ भी मुश्किल नहीं है। लेकिन क्या ये शे’र बिल्कुल सामने की बात कहता शे’र ही है? दूसरे अल्फ़ाज़ में कहें तो क्या ये वाक़ई आसान शे’र है? आइये ज़रा फिर से देखते हैं।
दैर को छोड़ काबे आया मीर
जिसको चाहे ख़ुदा ख़राब करे
दैर के म’आनी होते हैं मंदिर या बुतख़ाना। तो मीर अपने बारे में कह रहे हैं कि मीर मंदिर/बुतख़ाने को छोड़ कर काबा आ गए हैं और फिर इस वाक़ए को वाज़ेह करने के लिये ये भी कहते हैं कि “जिसको चाहे ख़ुदा ख़राब करे”। दूसरे मिसरे में इस्तेमालशुदा लफ़्ज़ “ख़राब” इस शे’र का मरकज़ी लफ़्ज़ मालूम होता है..तो पहले हम ख़राब लफ़्ज़ के लुग़वी मा’नी देखते हैं। जिससे हमें पता चले कि कितने मुख़्तलिफ़ ज़ावियों से शे’र समझा जा सकता है। “ख़राब” के लुग़वी मा’नी,
वीरान
तबाह
बर्बाद
उजड़ा हुआ
ज़ाए’अ
बुरा
अकारथ
निकम्मा
परेशान
अब शे’र में “ख़राब” लफ़्ज़ “ख़राब होने” या “ख़राब करने” के मुहावराती म’आनी में इस्तेमाल हुआ है। इस मुहावरे के म’आनी भी देखिये,
ख़राब करना/होना मुहावरे के म’आनी,
बिगाड़ना/बिगड़ जाना
उजाड़ना/उजड़ जाना
हराम करना/हराम होना
परेशान करना/परेशान होना
हैरान करना/हैरान होना
बदफ़ेल करना/बदफ़ेल होना
मुंह काला करना
इनके इलावा “ख़राब” लफ़्ज़ शराबी के लिये भी इस्तेमाल होता है. जैसे मस्तो ख़राब।
कुछ खुला?
इन मुख़्तलिफ़ लुग़वी म’आनी से शे’र के म’आनी भी बदलते चले जाएंगे. लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं हो जाती। शे’र की बुनत… अल्फ़ाज़ की नशिश्त ओ बर्ख़ास्त इतनी कमाल है कि पता ही नहीं चलता कि दूसरे मिसरे में इस्तेमाल किया गया “ख़राब” लफ़्ज़ दरअस्ल पहले मिसरे के किस लफ़्ज़ से मंसूब है। कहने का मतलब ये कि मीर के दैर से काबा आ जाने से ख़राब कौन हो गया है?
दैर… काबा… या ख़ुद मीर?
और यही इस शे’र का हुस्न भी है। कुछ और म’आनी खुले? चलिये तफ़्सील से समझते हैं…
यहां एक ज़ाविया तो ये हुआ कि इस अमल से (मीर के दैर से काबा आ जाने का अमल) मंदिर ख़राब/उजाड़/वीरान (“ख़राब” के तमाम म’आनी यहां लिये जा सकते हैं) हो गया है। माने दैर की सारी रौनक़ मीर से थी।
दूसरा ये कि इस अमल से काबा ख़राब/वीरान/उजाड़ हो गया है। माने एक बुतपरस्त काबा में आ गया और उसने काबा को ख़राब कर दिया।
तीसरा ये कि दैर से काबा तक आते आते/आ कर मीर ख़ुद ख़राब/बेकार/तबाह/बर्बाद हो गया।
बात अभी भी पूरी नहीं हुई है!
इस शे’र के दूसरे मिसरे के भी दो म’आनी हैं।
“जिसको चाहे ख़ुदा ख़राब करे“
पहला तो ये कि ख़ुदा जिसे चाहता है/प्रेम करता है उसे ख़राब कर देता है। और दूसरा ये कि ख़ुदा जिसे चाहे (अपने मन के मुताबिक) उसे ख़राब कर सकता है।
अब “ख़राब” लफ़्ज़ और “ख़राब होना/करना” के तक़रीबन बीस मुख़्तलिफ़ म’आनी हैं।इसके तीन अलग अलग अल्फ़ाज़ से मंसूब होने के इम्कानात हैं।
और दूसरे मिसरे के दो म’आनी निकलते हैं।
सो हज़रात अगर आप चाहें तो इस शे’र की शरह तक़रीबन सौ से ज़ियादा मुख़्तलिफ़ ज़ावियों से कर सकते हैं!
आप बस सोचते रहिये और नये नये म’आनी निकालते चले जाइये।
अब बताइये कमाल है कि नहीं!
मीर को यूं ही ख़ुदा ए सुख़न नहीं कहा जाता और इस शे’र को पढ़ते / समझते वक़्त जो हम पर गुज़र रही है उसके मुतअल्लिक़ मीर ख़ुद बरसों पहले फ़रमा गये हैं,
बातें हमारी याद रहें! फिर बातें ऐसी न सुनियेगा,
पढ़ते किसू को सुनियेगा तो देर तलक सर धुनियेगा
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