Mir Taqi Mir

जाने का नहीं शोर सुख़न का मेरे हरगिज़ : मीर तक़ी मीर

मीर तक़ी मीर, जिन्हें ख़ुदा-ए-सुख़न भी कहा जाता है, उर्दू के सबसे बड़े शा’इर हैं। मीर को ये दर्जा केवल उनकी शा’इरी की वजह से नहीं, ज़बान की इर्तिक़ा में उनके योगदान की वजह से भी हासिल है। शा’इरी का हर रंग उनके यहाँ नुमायाँ मिलता है, और इस लिहाज से वो उर्दू के वाहिद मुकम्मल शा’इर कहे जा सकते हैं।

Zia Mohiuddin - Blog Cover

ضیا محی الدین: جنہوں نے صدا کاری کو فنکاری بنا دیا

ضیا محی الدین بلا مبالغہ وہ شخصیت تھے جنہوں نے صدا کاری کو ایک صنفِ سخن کے طور پر شناخت دی۔ اچھی صدا کاری اور آواز سے تاثر پیدا کرنے پر اختیار ایک صداکار کا امتیاز ہو سکتا ہے، ضیا البتہ ایسی شخصیت تھے کہ جن کا کام خود فنِ صدا کاری کے لیے باعثِ عزت قرار پایا۔

Jurat and Insha

Jurat Aur Insha ka Yaaraana: Interesting Anecdotes

Born in Delhi, in the year 1748, Yahya Aman, better known as the poet Jurat Qalandar Bakhsh was unlike any other poet of his time. Known for an artful portrayal of mischief, mirth and mockery in his poetry, Jurat, was defined as a ‘skirt-chasing poet’ by none other than Mir Taqi Mir.

Sahir-Ludhianvi Blog

साहिर लुधियानवी: नग़्मों में ज़िंदगी

अब्दुल हई उर्फ़ साहिर लुधियानवी के ख़ानदान में दूर-दूर तक शेर-ओ-शाइरी की रिवायत का नाम-ओ-निशान नहीं मिलता फिर भी उस्ताद फ़ैयाज़ हरियाणवी की पनाह में साहिर तक़रीबन पन्द्रह-सोलह की उम्र ही से शाइरी करने लगे थे। स्कूल के ही दिनों में साहिर को फ़ारसी, उर्दू की सैकड़ों ग़ज़लें और नज़्में हिफ़्ज़ थीं। साहिर अपने दोस्तों को अक्सर ग़ालिब, मीर, सौदा, इक़बाल और फ़िराक़ गोरखपुरी की शाइरी सुनाया करते थे।

Year 2022 Rewind

Rekhta Rewind 2022

The year 2022 is over. Looking back, it was anything but usual. Won’t be interesting to turn the wheel of time and look back at your most loved bits of literature? That’s precisely what we will do toda, Discuss your favourites across every category.

Ghalib Blog

आइये! बनारस का हुस्न ग़ालिब की नज़र से देखते हैं

तख़लीक़ की इस दुनिया के बेताज बादशाह ‘ग़ालिब’ ने ऐसे में कलकत्ता का सफ़र किया, क्यों किया! ये आप सब जानते हैं, मगर वो रास्ते में कुछ जगहों पर रुकते भी गए, बांदा, लखनऊ और काशी या बनारस ऐसे ही मक़ामात हैं। जो लोग ग़ालिब के ख़तों को पढ़ चुके हैं, उसकी उर्दू-फ़ारसी शायरी का ठीक से अध्ययन कर चुके हैं, उन्हें ये बताने की ज़रुरत नहीं कि मिटती हुई दिल्ली और उजड़ती हुई दहलवी तहज़ीब से उसका लगाव ज़्यादा नहीं रह गया था।

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