ماؤں کے عالمی دن پر۔۔۔
ماں دنیا كا مقدس ترین رشتہ ہے، جس كا كوئی نعم البدل نہیں۔ ماں كے اس ممتا بھرے عظیم رشتے كو شہرت كی بلندیوں پر پہنچانے میں کئی ادیبوں نے اہم کردار ادا کیا ہے۔
शायरी में अलग अलग थीम्स और उनसे जुड़े किरदार होते हैं जैसे इश्क़ की थीम है तो उसमें आशिक़ होगा, महबूब होगा, रक़ीब होगा, और कभी कभी उपदेश देने वाले का इज़ाफ़ा हो जाता है। इसी तरह लहरें और समंदर का ज़िक्र है तो नाख़ुदा होगा, हर ख़ास थीम के साथ उसके उतने ही ख़ास इस्तियारे या किरदार हैं।
ماں دنیا كا مقدس ترین رشتہ ہے، جس كا كوئی نعم البدل نہیں۔ ماں كے اس ممتا بھرے عظیم رشتے كو شہرت كی بلندیوں پر پہنچانے میں کئی ادیبوں نے اہم کردار ادا کیا ہے۔
अगर उर्दू शायरी में हम मोहब्बत की बात करें तो ऐसा नहीं हो सकता कि हमारे ज़ेहन में ‛‛बशीर बद्र’’ साहब का नाम न आए। आज की इस रफ़्तार-भरी ज़िन्दगी में बशीर बद्र साहब के अशआर हमें ठहरना सिखाते हैं, हमारे अंदर मोहब्बत के जज़्बात पैदा करते हैं। उन्होंने लगभग हर उम्र के लोगों पर अपनी शायरी की ख़ुश्बू को बिखेरा है और मोहब्बत के नए रंगों से मिलवाया है।
साल 2022 उर्दू सहाफ़त के हवाले से इंतिहाई अहम साल है। इस साल उर्दू ज़बान की सहाफ़त अपनी ‘उम्र के दो सौ साल मुकम्मल कर रही है। 27 मार्च 1822 को कलकत्ता से उर्दू का पहला अख़बार “जाम-ए-जहाँ-नुमा” जारी हुआ था। लिहाज़ा मार्च का महीना उर्दू सहाफ़त की दो सौ साला तक़रीबात का महीना है।
यूँ तो उर्दू सहाफ़त के आग़ाज़ का सेहरा हफ़्तावार ‘जाम-ए-जहाँ-नुमा’ के सर बाँधा जाता है, जो पंडित हरिहर दत्त ने 1822 में कलकत्ता से शाए’ किया था, लेकिन उस से क़ब्ल उर्दू हल्क़ों में ये बहस भी छिड़ चुकी है कि उर्दू का पहला अख़बार शे’र-ए-मैसूर टीपू सुल्तान ने 1794 में जारी किया था।
कमाल अमरोही अपने तरीके से जिए। अपने तरीके से फिल्में भी बनाईं, एक लंबे जीवन में सिर्फ चार फिल्मों का निर्देशन किया। ‘पाकीज़ा’ और ‘रज़िया सुल्तान’ इन दो फिल्मों को बनाने में इतना लंबा वक्त लिया कि इंडस्ट्री में बहुत से लोगों का कॅरियर भी उससे छोटा हुआ करता है। बचपन में एक बार अपनी अम्मी के डाँटने पर उन्होंने वादा किया कि वह किसी दिन मशहूर होंगे और उनके पल्लू को चाँदी के सिक्कों से भर देंगे।
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