Mir Taqi Mir

जाने का नहीं शोर सुख़न का मेरे हरगिज़ : मीर तक़ी मीर

मीर तक़ी मीर, जिन्हें ख़ुदा-ए-सुख़न भी कहा जाता है, उर्दू के सबसे बड़े शा’इर हैं। मीर को ये दर्जा केवल उनकी शा’इरी की वजह से नहीं, ज़बान की इर्तिक़ा में उनके योगदान की वजह से भी हासिल है। शा’इरी का हर रंग उनके यहाँ नुमायाँ मिलता है, और इस लिहाज से वो उर्दू के वाहिद मुकम्मल शा’इर कहे जा सकते हैं।

Urdu ka safar

जब उर्दू ने मेरा माथा चूमा और मेरी आँख खुल गई

जब से मैंने उर्दू की उँगली पकड़ी है मैं एक दिन को भी सुस्ता नहीं सका हूँ। तेज़-गाम उर्दू की उँगली पकड़ के सफ़र करते रहना ख़ुशी के एहसास में इज़ाफ़ा करता है, लेकिन मेरी थकान का क्या? उर्दू मेरी थकान को अच्छी तरह समझती है। मैं उसे देखता हूँ और वो मेरे थके-माँदे बदन को अज़-जबीं ता- ब- पा देखती है। देख कर बड़ी चालाकी से मेरी हालत-ए-हाल को दर-गुज़र करके वापस चलने लगती है।

Urdu zabaan

ज़बान और इश्क़ किसी तरह की पाबन्दियाँ पसन्द नहीं करते

ज़बान और इश्क़ किसी तरह की पाबन्दियाँ पसन्द नहीं करते, कितनी अजीब बात है कि लफ़्ज़ ‘मजनूँ’ पागल के अर्थ में है, क़ैस इश्क़ में पागल हुआ तो उसे मजनून या मजनूँ बोलने लगे, लेकिन जज़बा-ए-इश्क़ इस क़दर ग़ालिब और ज़ाहिर था कि क़ैस की वज्ह से इस लफ़्ज़ में रफ़ता रफ़ता इश्क़ का मफ़हूम समाता चला गया और डिक्शनरी बग़लें झाँकते रह गई।

वो सुब्ह कभी तो आएगी

हमें पूरी उम्मीद रखनी है कि दुनिया फिर उतनी ही ख़ूबसूरत होगी जितनी इन दो बरसों पहले थी। हम उसी तरह बग़लगीर होंगे, उसी तरह हसेंगे-बोलेंगे, नाचेंगे-गाएंगे, खाऐंगे-पिऐंगे। उसी तरह शादियों में शहनाइयां और ढ़ोल-नगाड़े बजेंगे। उसी तरह महफ़िलें सजेंगी, शायरी सुनी जाएगी, मुशायरे बरपा होंगे। वैसे ही ट्रेनें खचाखच भरेंगी। भीड़ वाली जगहों पर भीड़ होगी। बाग़ों में झूले सुनसान नहीं पड़े होंगे, बच्चों के साथ गुनगुनाऐंगे, लहराएंगे।

आइये ! देखते हैं कि शायरों ने ख़्बाव को किस तरह बरता है

हमारा ख़्वाब वो जगह है जहाँ हमारी इजाज़त के बिना कोई भी दाख़िल नहीं हो सकता है | वहाँ बस वही आ सकते हैं जिन्हें हमारा प्यार हासिल है, जो बातें हक़ीक़त से जितनी दूर हों, वो ख़्वाबों में उतनी ही क़रीब हो जाती हैं |

उर्दू शाइरी में हमारी लोक-कहानियाँ और तारीख़ किस तरह महफ़ूज़ हो गई?

मसनवी दर-अस्ल अरबी का लफ़्ज़ है जिसके मआनी दो-दो के हैं। हालाँकि मसनवी लफ़्ज़ अरबी का है, लेकिन मसनवी की सिन्फ़ फ़ारसी शोरा की ईजाद मानी जाती है और पहली मारूफ़ मसनवी के 10वीं सदी में फ़ारसी ज़बान में लिखे जाने के सुराग़ मिलते हैं। ईजाद के साथ ही ईरान में मसनवी की सिन्फ़ बेहद मक़बूल हुई और इस सिन्फ़ में बहुत अहम शाइरी भी हुई। मसलन शाहनामा और मौलाना रूमी की मसनवी। शाहनामा दुनिया की उन सबसे तवील नज़्मों में है जिन्हें किसी एक शख़्स ने लिखा है और इसमें तक़रीबन 50,000 शेर हैं।

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