سِکّوں کی کہانی اور ہمارے محاورے
آج کل ایک روپیے کا جو سکہ چلن میں ہے، وہ کئی مرحلوں سے گزر کر اس مقام تک پہنچا ہے۔روپیے کا سکہ سب سے پہلے شیر شاہ سوری نے اپنے دورِ حکومت میں 1540ء اور 1545ء کے بیچ جاری کیا۔
अगरचे ये शाइरी क्लासिकी उर्दू शाइरी के रिवायती साँचे से बहुत मेल खाती हुई नज़र नहीं आती, लेकिन ये हम-अस्र इंसानी तज्रबात और नफ़्सियात की गहरी तहों को खंगालने में रिवायत और जिद्दत के हर टूल के सहारे से अपना काम करती है। उनकी ग़ज़ल महज़ तख़लीक़ी सलाहियतों के इज़हार का अमल नहीं बल्कि किसी नादीदा-ओ-नायाब नुक्ते की तलाश, समाजी हक़ीक़तों के बयान और इंसानी वुजूद की पेचीदा तहों को बे-नक़ाब करने का ज़रीआ है।
آج کل ایک روپیے کا جو سکہ چلن میں ہے، وہ کئی مرحلوں سے گزر کر اس مقام تک پہنچا ہے۔روپیے کا سکہ سب سے پہلے شیر شاہ سوری نے اپنے دورِ حکومت میں 1540ء اور 1545ء کے بیچ جاری کیا۔
अच्छा शेर कहने से पहले हमें कई बातों का ध्यान रखना पड़ता है। अव्वल तो यह कि हमारा ख़याल यानी शेर का मौज़ूअ क्या है, और हम उसे पेश कैसे कर रहे हैं? शेर का मतलब होता है ”कोई एक बात, कोई एक मौज़ूअ दो मिसरों में कहना न कि दो मुख़्तलिफ़ मौज़ूअ दो मिसरों में कहना।
हाँ तो हम बात कर रहे थे ग़लती और हरकत और निगरानी जैसे अल्फ़ाज़ की। क्या आपने कभी सोचा कि आम तलफ़्फ़ुज़ में ऐसा होता ही क्यों है कि ग़लती को ग़ल्ती, हरकत को हर्कत बोला जाता है?? ये क्या सिर्फ़ तलफ़्फ़ुज़ के न पता होने का मुआमला है या इसमें कोई अरूज़ या’नी छंदशास्त्र से जुड़ी हुई बात भी है जो बराबर काम कर रही है??
ये उस वक़्त की बात है जब मोमिन की हिक्मत के चर्चे सुन कर लखनऊ की एक नामी-गिरामी तवाइफ़ जिसका नाम उम्मतुल फ़ातिमा था अपने इलाज के लिए मोमिन के पास दिल्ली चली आई थी। तवाइफ़ लखनऊ की थी तो शेर-ओ-अदब का ज़ौक़ भी रखती थी और शेर भी कहती थी। ‘साहिब’ उसका तख़ल्लुस था।लेकिन लोग उसे आम तौर पर ‘साहब जान’ के बजाय ‘साहिब जी’ कहा करते थे।
If one was to define Amrita Pritam’s journey in this world, one would simply say: “Love with Sahir, Marriage with Singh, Life with Imroz”.
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