Imroz the poet

इमरोज़-एक जश्न अपने रंग, अपनी रौशनी का

इमरोज़ की मिट्टी का गुदाज़, लोच और लचक देखकर हैरत होती है कि कोई इतना सहज भी हो सकता है। लोग जो भी बातें करते रहें, वो दर-अस्ल इमरोज़ को अमृता के चश्मे के थ्रू देख रहे होते हैं जबकि इमरोज़ किसी भी परछाईं से अलग अपने वजूद, अपने मर्कज़ से मुकम्मल तौर पर जुड़े रहे हैं।

Lafz

لفظ، وزن اور شعر

موسیقی میں فنکار اگر پیش کش کے دوران سُر سے کہیں ہٹ بھی جائے تو یہ سمجھا جاتا ہے کہ ریاض میں کمی بیشی رہ گئی ہے۔ اکثر اس نوع کی کمی بیشی سے صرفِ نظر بھی کیا جاتا ہے۔ لیکن اگر فنکاربے تالا ہوجائے تو اسے محض بے آہنگی سے تعبیر نہیں کیا جاتا بلکہ موسیقی کے ماہر اس بات سے یہ نتیجہ اخذ کرتے ہیں کہ فنکار فنِ موسیقی سے نابلد ہے۔ بالکل اسی طرح اگر کوئی شاعر پست سے پست ترین مضمون کو وزن میں پیش کرے تو موضونیت کا وصف اسے کم از کم کلامِ موزون کا درجہ عطا کرتا ہے۔

Ahmad Faraz

जब रिटायर्ड जनरल बोले ‘फ़राज़ तुम बाज़ नहीं आते, मैं तुम्हें देख लूँगा’

फ़राज़ रिहाई के बाद ऑफ़िस में बैठे थे कि फ़ोन की घंटी बजने लगी। उधर से आवाज़ आई, “वज़ीर-ए-आज़म आपसे बात करना चाहते हैं। भुट्टो फ़ोन पर आते ही बोले, ”फ़राज़ दिस इज़ मी, दिस टाइम आई सेवड योर लाईफ़। दे वांट टू ट्राई यू।”

भारतीय संगीत की संकीर्ण रागिनियाँ

दुनिया में किसी भी क्षेत्र की संगीत प्रणाली व्यापकता और गहराई में भारतीय संगीत का मुक़ाबला नहीं कर सकती। यद्यपि प्राचीन काल से भारतीय संगीत प्रणाली में कुछ ऐसे तत्व शामिल हुए हैं जिनकी हैसियत मात्र पौराणिक है मगर उन तत्वों की वजह से भारतीय संगीत की एक ऐसी तस्वीर सामने आजाती है जिसमें अलग अलग रंग बोलते हुए दिखाई देते हैं।

Sangeet aur taal

ताल का परिचय

ताल संगीत की हर क़िस्म में या हर प्रकार के संगीत में एक महत्वपूर्ण तत्व का स्थान रखता है। इसलिए कि ये संगीतमय ध्वनियों के प्राप्ति विस्तार को क्रमबद्ध और अनवरत रखता है। शायरी में जो स्थान छंद को प्राप्त है वही हैसियत संगीत में ताल को प्राप्त है। हिंदुस्तानी संगीत में ताल की अवधारणा वेदों से ही चली आरही है। वेदों के हम्दिया नग़मे (ईश्वर का स्तुतिगान) वो श्रोत हैं जिनसे आजकल की ज़रबें हासिल की गई हैं।

Ghazal-aur-Daccan

ग़ज़ल और दक्कन

आमतौर पर कहा जाता है, कि ग़ज़ल की इब्तदा दिल्ली से हुई। हो सकता है, लेकिन ऐसा भी कहा जाता है, कि ग़ज़ल की शुरुआत दक्कन से हुई। 17 वीं सदी से पहले उर्दू शाइरी गुजरात, दिल्ली, दक्कन हर जगह हो रही थी लेकिन कहीं ग़ज़ल मौजूद नहीं थी। आम- तौर पर मसनवी लिखने का रिवाज था। मसनवी के बा’द ग़ज़ल की शुरुआत ख़ास- तौर पर दक्कन के शाइर ‘क़ुली क़ुतुब शाह’ ने की। क़ुली क़ुतुब शाह के अलावा ‘वली मोहम्मद वली’, ‘क़ाज़ी महमूद बेहरी’ और ‘फ़ज़लुर्रहमान’ भी अहम् नाम हैं जिन्होंने ग़ज़ल की भीगी ज़मीन को सर- सब्ज़ करने में ख़ास किरदार अदा किया।

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