Imroz the poet

इमरोज़-एक जश्न अपने रंग, अपनी रौशनी का

इमरोज़ की मिट्टी का गुदाज़, लोच और लचक देखकर हैरत होती है कि कोई इतना सहज भी हो सकता है। लोग जो भी बातें करते रहें, वो दर-अस्ल इमरोज़ को अमृता के चश्मे के थ्रू देख रहे होते हैं जबकि इमरोज़ किसी भी परछाईं से अलग अपने वजूद, अपने मर्कज़ से मुकम्मल तौर पर जुड़े रहे हैं।

Dagh Dehlvi

दिन में ग़ज़ल कहते और रात तक तवायफ़ों / क़व्वालों के ज़रिये मशहूर हो जाती

नवाब मिर्ज़ा ख़ान दाग़ की पैदाइश 25 मई 1831 को दिल्ली के लाल चौक में हुई, उनके वालिद शहीद शमसुद्दीन अहमद पंजाब में एक छोटी सी रियासत फ़िरोज़पुर झिरका के वली थे। इनकी वालिदा वज़ीर ख़ानम उर्फ़ छोटी बेगम थीं। दाग़ जब मात्र चार वर्ष के थे तभी इनके वालिद को एक अंग्रेज़ी सिविल सर्वेंट अधिकारी विलियम फ़्रेज़र के क़त्ल के जुर्म में 8 अक्टूबर 1835 को फाॅंसी दे दी गई ,उसके बाद इनकी वालिदा का रो रो कर बुरा हाल हो गया था और वो अंग्रेज़ों के भय से कई दिनों तक छुपकर रहीं।

जो कृष्ण भक्त थे और मौलवी भी थे, और कामरेड भी

हसरत शायर तो थे ही ,संविधान सभा के सदस्य भी थे, जो यूनाइटेड प्रोविंस से चुने गए थे ,इस्लामी विद्वान,फ़लसफ़ी और कृष्ण-भक्त इनके बारे में कहा जाता है। हसरत जब भी हज की यात्रा करके लौटते थे तो सीधे मथुरा वृंदावन जाया करते थे। वो कहते थे जब तक मैं मथुरा न जाऊॅं मेरा हज किस काम का है उनके बारे में मशहूर है कि उन्होंने तेरह हज किए थे।

Qaafiya

क़ाफ़िये की ये बहसें काफ़ी दिलचस्प हैं

सौती क़ाफ़िया या’नी लफ़्ज़ सुनने में एक जैसी आवाज़ देते हों चाहे उनका इमला (spelling) अलग हो। मसलन ख़त के आख़िर में ‘तोय’(خط) है और मत(مت) के आख़िर में ‘ते’ है तो देखने में बे-शक ये एक दूसरे से मुख़्तलिफ़ मा’लूम होते हैं मगर सुनने में एक ही आवाज़ देते हैं। इसी तरह ‘ख़ास’ और ‘पास’ का हम-क़ाफ़िया होना। यही सौती क़ाफ़िया है।

Kaifi Azmi Blog

कैफ़ी आज़मी: एक सच्चे तरक़्क़ी-पसंद की ज़िंदगी और शायरी का क़िस्सा

कैफ़ी का जन्म आजमगढ़ के एक छोटे से गाँव मजवाँ में 1918 को हुआ था। उनका ख़ानदान पुराने ख़्यालात का जागीरदार ख़ानदान था। जहाँ न शिक्षा थी और न नए ख़्यालात की वो आज़ादी जिसे लेकर कैफ़ी जन्मे थे।

Faiz Ahmad Faiz

Faiz, Friend of My Soul

A relentless humanist, a hopeless romantic, and a heartbroken patriot, Faiz is everything that life can offer. He is no stranger to the festivities and griefs of the human. His oeuvre is the adjudicator of humanity. Faiz, to me, was the last humanist of the twentieth century who embraced everything human.

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