Tag : Urdu Poetry

shayari karna

दर अस्ल आमद का शेर ही सबसे ज़ियादा वक़्त लेता है

शाइरी करना और शाइरी होना, होने-करने, करने-होने की क्रियाओं में इस तरह गुँथा हुआ है जैसे तरह-तरह के धागे एक-दूसरे से उलझ जाएँ। शाइरी करने वाले के लिए शुरुआत ”शाइरी होने” से होती है और उसकी शाइरी होने के बा’द शाइरी की समझ रखने वाले कहते हैं, तुम अभी शाइरी कर नहीं पा रहे हो।

Meer-Aur-Mohsin-Naqvi

जन्नत में शायरों की एक महफ़िल

मैंने सुना है मेरे बाद कोई लफ़्ज़ों का ऐसा साहिर पैदा हुआ है , जिसे इश्क़ ने निकम्मा कर रखा था और ज़माने ने पागल क़रार दे रखा था, कोई ग़ालिब गुज़रा था , क्या था वो शख़्स? उस के बारे में मैं पहले ही कह दिया था कि उस्ताद मिला तो ठीक वर्ना मोहमल बकेगा।

Shahryar Blog

ख़्वाब , सूरज , जुनून , रेत, रात जैसे शब्दों को शहरयार ने अलग अंदाज़ में बरता है

शहरयार ने रात को कई रंगों में रंगने की कामयाब कोशिश की है। उन्होंने रात को अक्सर ज़ुल्म से ताबीर किया है। रात का रंग सियाह होता है, जो नेगेटिविटी ज़ाहिर करता है। सूरज, रोशनी और ख़ुशहाली की अलामत है। शहरयार के यहां रात अक्सर ज़ुल्म की इंतिहा दिखाती है।

Maihar-1

मैहर : जहाँ अतीत मौजूदा वक़्त के साथ-साथ चलता है

मेरे लिए मैहर आना दरअसल मेरे बचपन के नास्टेल्जिया से जुड़ा था। बहुत साल पहले की बात है। तब मैं नौ बरस की उम्र में पिता के साथ उस पहाड़ की पथरीली ऊँची-नीची सीढ़ियाँ चढ़कर मंदिर तक पहुँचा था। माँ पीछे छूट गई थीं। ऊँचाई पर तेज हवा चल रही थी और मेरे कपड़े फड़फड़ा रहे थे। तब पिता के साथ मैंने ऊपर रेलिंग से झाँका था।

Lal Qila 1960 movie blog

लाल क़िला फ़िल्म आज भी हमें अपने असर में रक्खे हुए है

ख़ूबसूरत मुकालिमों से आरास्ता 1960 में मंज़र-ए-आम पर आयी फ़िल्म “लाल क़िला” सिर्फ़ लाल क़िले और हिन्दोस्तान के आख़िरी ताजदार बहादुर शाह ज़फ़र की कहानी नहीं है, बल्कि उस शरारे की कहानी है जो ज़ुल्म और इस्तेहसाल की हवा पा कर 1857 में एक शोले की शक्ल इख़्तियार कर गया।

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