Imroz the poet

इमरोज़-एक जश्न अपने रंग, अपनी रौशनी का

इमरोज़ की मिट्टी का गुदाज़, लोच और लचक देखकर हैरत होती है कि कोई इतना सहज भी हो सकता है। लोग जो भी बातें करते रहें, वो दर-अस्ल इमरोज़ को अमृता के चश्मे के थ्रू देख रहे होते हैं जबकि इमरोज़ किसी भी परछाईं से अलग अपने वजूद, अपने मर्कज़ से मुकम्मल तौर पर जुड़े रहे हैं।

Majaz Blog

जब शराब पीते हुए एक मैख़ाने में उनकी मौत हो गई

मजाज़ की शाइरी किसी वाहिद मौजू के इर्द गिर्द चक्कर नहीं लगाती, बल्कि एक नौजवान की ज़िंदगी के बेश्तर पहलुओं पर बिखरी हुई है। मजाज़ की शाइरी में रूमान भी है, एक कश्मकश भी है, आह-ओ-ग़म भी है, कहीं उम्मीद है तो कहीं ना-उम्मीदी की इंतिहा नज़र आती है।

Rekhta Rauzan

रेख़्ता रौज़न देवनागरी लिपि में प्रकाशित होना क्यूँ ज़रूरी है?

उर्दू और हिन्दी को लेकर एक सवाल बार बार किया जाता है कि दोनों में क्या रिश्ता है और यहां तक कहा जाता है कि उर्दू मुसलमानों की ज़बान है तो सबसे पहले मैं स्पष्ट कर दूँ कि उर्दू किसी एक फ़िरक़े की ज़बान नहीं है। हमें मालूम होना चाहिए कि माहिर ए ग़ालिबयात मालिक राम रहे हैं, माहिर इक़बालियात पंडित जगन्नाथ आज़ाद रहे हैं, डॉ. गोपीचंद नारंग को पूरी अदबी दुनिया उर्दू के हवाले से जानती है। हम सभी को इल्म है कि यह दोनों ज़बानें एक दूसरे की पूरक कहलाती हैं, इस बारे में हमें यह भी मालूम होना चाहिए कि उर्दू हिन्द आर्याई ज़बान का ही नया रूप है।

Premchand

प्रेमचंद की कहानियों के किसानों से मिलिए, जो आज के किसानों से ही मिलते-जुलते हैं

किसानों के जीवन को मौज़ूअ बना कर लिखी गईं ये कहानीयाँ पढ़ कर जो एक ख़ास बात सामने आती है वो ये कि प्रेमचंद के समय के किसान और हमारे दौर के किसान एक ही से हालात का शिकार हैं। प्रेमचंद की ये कहानियाँ लम्बा समय गुज़र जाने के बाद भी हमारे आज के दौर के किसानों की कहानियाँ मालूम होती हैं।

Majrooh Sultanpuri, ‎मजरूह सुल्तानपुरी

मजरूह सुल्तानपुरी : जिन्हें जिगर मोरादाबादी ने फ़िल्मों में लिखने के लिए राज़ी किया

एक दिन मजरूह साहब अपने रिकॉर्ड प्लेयर में मल्लिका-ए-तरन्नुम ‘नूरजहाँ’ की गायी और फ़ैज़ साहब की लिखी नज़्म “मुझसे पहली सी मुहब्बत…” सुन रहे थे। इस नज़्म में एक मिसरा आया ‘तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है’। मजरूह साहब इस मिसरे के दीवाने हो गए और उन्होंने फ़ैज़ साहब से बात की कि वो इस मिसरे को ले कर एक मुखड़ा रचना चाहते हैं। फ़ैज़ साहब ने इजाज़त भी दे दी।

Urdu Bazar Delhi

दिल्ली का उर्दू बाज़ार : किताबों से कबाबों तक का सफ़र

मीर तक़ी मीर ने दिल्ली के गली-कूचों को ‘औराक़-ए-मुसव्वर’ यानी ‘सचित्र पन्नों’ की उपमा दी थी। ये वो ज़माना था जब दिल्ली में साहित्यिक, तहज़ीबी और सांस्कृतिक सर-गर्मियाँ चरम पर थीं और यहाँ हर तरफ़ शे’र-ओ-शायरी का दौर-दौरा था। दिल्ली के कूचा-ओ-बाज़ार अपनी रौनक़ों और अपने सौन्दर्य के ए’तबार से अपना कोई सानी नहीं रखते थे। दिल्ली की समाजी और साहित्यिक ज़िंदगी अपने विशेष मूल्यों की वजह से एक विशिष्ट और अद्वितीय मुक़ाम रखती थी।

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